मेरे कोच जीवित होते तो यह पुरस्कार उनके चरणों में रख देता : नेत्रपाल हुड्डा

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मैं पिछले आठ से 10 साल से ध्यानचंद पुरस्कार के लिए प्रयासरत था। मेरे शिष्य मुझे पुरस्कार दिलाने की मुहिम छेड़े हुए थे। इससे मैं निराश ज़रूर था लेकिन मैंने हिम्मत नहीं छोड़ी थी क्योंकि भारत केसरी और रुस्तम-ए-हिंद जैसे बड़े खिताब जीतने के अलावा मैंने 1974 में क्राइस्टचर्च में कॉमनवेल्थ गेम्स में सिल्वर और 1970 में एशियाई खेलों में ब्रॉन्ज़ मेडल हासिल किए थे। चार साल बाद तेहरान में एशियाई खेलों में मेरी तैयारी अच्छी थी लेकिन बीमार होने की वजह से वहां पदक न जीत पाने का आज तक अफसोस है।

फिर भी मैं मानता हूं कि यह पुरस्कार मेरे लिए काफी मायने रखता है। तकरीबन 30 साल फौज में नौकरी की। इस दौरान असम, जयपुर, जबलपुर, नागालैंड और अमृतसर में रहा। इनमें अमृतसर में पोस्टिंग मेरे लिए काफी यादगार रही। इसी दौरान मैं कई राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर की प्रतियोगिताओं में पदक जीतने में सफल रहा। कई बार छुट्टी लेकर अखाड़े में बच्चों को प्रैक्टिस कराता था। आर्मी की ओर से भी मुझे कई प्रतियोगिताओं में भाग लेने के लिए विदेश जाने का अवसर मिला।

उन दिनों दिल्ली के आज़ादपुर स्थित अखाड़े के उस्ताद कैप्टन चांदरूप मेरे गुरु थे। मुझे अंतरराष्ट्रीय स्तर का पहलवान बनाने में उनका बहुत बड़ा योगदान रहा। वह कई बार मुझे अपने साथ खाना खिलाते। मेरी मालिश करते। कई बार बाहर से मेरी ज़रूरत की चीज़े लेकर आते। जब वह काफी बुजुर्ग हो गए थे तो मैं हू अखाड़े के बच्चों को ट्रेनिंग देने का काम करता था। अगर वह जीवित होते तो यह पुरस्कार मैं उनके चरणों में रख देता। लेकिन अब उस अखाड़े में भी वैसे प्रयास नहीं हो रहे जैसे होने चाहिए। इसका मुझे मलाल है।

जिस तरह मैं और उस समय के पहलवान कड़ी मेहनत किया करते थे, वैसी मेहनत आज के पहलवान नहीं करते। अब आप कहेंगे कि आज ओलिम्पिक मेडल मिल रहे हैं, तब नहीं मिलते थे। इसकी बड़ी वजह मेरे ख्याल से यह है कि आज भारत ही नहीं, दुनिया भर में कुश्ती का स्तर नीचे गिरा है जिसका फायदा भारतीय पहलवानों को मिला  है। मुझे उम्मीद है कि हमारे पहलवान भविष्य में कड़ी मेहनत करके और भी ज़्यादा पदक जीतेंगे।

मेरी दिली इच्छा यह है कि मुझे सरकार अखाड़े के लिए ज़मीन दे, जहां मैं बच्चों को फ्री कोचिंग देकर देश के लिए आला दर्जे के पहलवान तैयार करूं। यह ठीक है कि मैं हार्ट की दिक्कत की वजह से पहले जैसा सक्रिय नहीं रह गया हूं लेकिन मैं कुछ पहलवानों की मदद से युवा पीढ़ी को कोचिंग देना चाहता हूं। आज भी काफी बच्चे मेरे पास आते हैं। मैं उनका डाइट चार्ट से लेकर ट्रेनिंग का शैड्यूल तैयार करता हूं। कभी कभी फरीदाबाद स्थित अखाड़ों में चला जाता हूं जहां मुझे पहलवान बहुत इज्ज़त देते हैं। अब मुझे भी लगता है कि ध्यानचंद पुरस्कार जीतने के बाद मेरी देश के प्रति ज़िम्मेदारी बढ़ गई है। मुझे अफसोस है कि सरकारी स्तर पर पिछले 20 साल से मेरी सेवाओं का कोई लाभ नहीं उठया गया।

(लेखक को खेल दिवस के मौके पर ध्यानचंद पुरस्कार के लिए चुना गया है, जो एशियाई खेलों और कॉमनवेल्थ गेम्स के भी मेडलिस्ट हैं)