‘हजारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पे रोती है। बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा।’ जब करोड़ों कष्ट में तपते हैं। तब किसी देश की आत्मा शुद्ध होती है। वक्त को भी सदियों तक इंतजार होता है। तब कोई कालजयी आत्मा देह के घेरे में कैद होती है। विवेकानन्द का जन्म एक साधारण घटना नहीं है। मैं स्वामी विवेकानन्द को केवल भगवा साधु के रूप में स्वीकार करने से इंकार करता हूं। नरेन्द्र विवेकानन्द के रूप में तब्दील हुए थे। तब उन्होंने भी श्रीरामकृष्णदेव की बात को भी सहसा नहीं माना। उन्होंने अपने होने वाले गुरु से लगातार सवाल किए। इसलिए भी मैं विवेकानन्द से लगातार जिरह करता रहता हूं। मैं विवेकानन्द के बौद्धिक और ऐतिहासिक अवमूल्यन के खिलाफ लगातार संघर्ष करने को भी अपने जीवन के उद्देश्यों में से एक मानता हूं। विवेकानन्द को लेकर ऐसी कोई कशिश होनी चाहिए कि हम सही ढंग से इतिहास में उनका मूल्यांकन करने की कोशिश तो करें।
उनतालीस वर्ष की उम्र में वैचारिक अनगढ़ता भी हो सकती है। कई अनगढ़ प्रस्तर प्रतिमाएं लेकिन खंडित होने पर भी शाश्वत कलाबोध की पहचान होती हैं। विवेकानन्द का जीवनदर्शन शास्त्रीयता की कसौटी पर कसे जाने से भी व्यक्तित्व की नैतिक ऊंचाई का प्रमाणपत्र तो जरूर हासिल करेगा। उसे अतीत से भविष्य की जनयात्रा का प्रतीक समझा जाए, तो विवेकानन्द भारतीय कारवां का जरूरी पथ संचलन बन जाते हैं। उनकी समझ को इसी ढंग से स्वीकार करना बेहतर लगता है। विवेकानन्द की स्तुति करना, कालांतर में उनकी उपेक्षा या तिरस्कार करना, उनसे उदासीन हो जाना बौद्धिक स्खलन का नाम है। जीवन-विरत होकर संन्यासी अधिकतर उदासीन होते हैं। कुछ संन्यासी लेकिन उदासीन नहीं होते। सभी उदासीन संन्यासी भी नहीं होते। इस प्रचलित रूढ़ अर्थ में विवेकानन्द न तो सेवानिवृत्त संन्यासी थे और न ही उन्हें कोई उदासीन कहेगा। उन्होंने सोई हुई भारतीय कौम को जगाने के लिए परम्परादायिक होकर धर्म या धार्मिक तात्विकता के माध्यम को अन्य किसी माध्यम के मुकाबले तरजीह तो दी। यह समकालीन इतिहास और भूगोल की भी उनसे मांग थी।
डेढ़ सौ बरस से ज्यादा हो जाने पर भी मौजूदा दुनिया में विवेकानन्द के लिए सम्मान और समझ धूमिल नहीं हुई है। उनके कई एकांगी आलोचक और श्रद्धालु प्रशंसक इतिहास की पोथियों में दाखिलदफ्तर हो गए हैं। इससे भी सिद्ध हुआ कि विवेकानन्द को लेकर अपनाया गया आलोचनातंत्र वैज्ञानिक समाजशास्त्र की अवधारणाओं से अधिकतर अलग थलग भी रहा है। अपने भावुक जोश बल्कि युवावस्था के उन्माद और जबर्दस्त इतिहासबोध के कारण विवेकानन्द ने आक्रामक भाषा का सत्ता प्रतिष्ठान के विरुद्ध इस्तेमाल भी किया है। वैसा तार्किक उद्बोधन तो संकीर्ण हिन्दूवाद के विरुद्ध डॉ. अम्बेडकर के अपवाद को छोड़कर बहुजन समाज पार्टी के नेतागण भी अभिव्यक्त नहीं कर पाए। यदि वैसी भाषा का इस्तेमाल करते भी, तो उन्हें आमफहम समझ के नागरिक तत्वों का समर्थन नहीं मिलता। वह यश तो इतिहास की जिल्दों में विवेकान्द के लिए सुरक्षित हो गया है। ब्राह्मणत्व की बद्धमूल अवधारणाओं पर आक्रमणकारी विवेकानन्द को जब पढ़ा जाए तो कूढ़मगज धर्मध्वजों की घिग्गी बंध जाती है।
संविधान की बहुत सी उपपत्तियों के झुरमुट में विवेकानन्द ही विवेकानन्द अनायास गूंजते हैं। आईन की इन आयतों की न्यायालयीन व्याख्याओं में लेकिन विवेकानन्द के तर्कों को समीक्षित नहीं किया जा सका है। यदि हो पाता तो उससे अंगरेजी ज्ञानशास्त्र से प्रेरित न्यायिक फतवों के यथास्थितिवादी निर्वचन का ढांचा चरमराने भी लगता। न्यायिक निर्वचन उस पृष्ठभूमि से काफी और बार बार उपजते रहे हैं जिसको मानने का निषेध इस प्रखर साधु ने किया था। विवेकानन्द ने तो अपने खुदरा संबोधनों की कड़ियों को जोड़कर राजदर्शन का एक संभावित जनतांत्रिक संस्करण वक्त के माथे की लकीरों की तरह लिख ही दिया है। उस इबारत को पढ़ना वेस्टमिन्स्टर कोख से प्रसूत राजवंशियों के लिए मुसीबत बुलाना है। इसलिए विवेकानन्द साहित्य में से कुछ चुने हुए वाक्यों को संदर्भरहित खंगाल कर अपने स्वार्थों की सलवटों पर इस्तरी चलाकर लकदक दिखने के लिए लगातार व्याख्यायित करना बड़ा बुद्धिजीवी शगल हो गया है।
विवेकानन्द को लेकर केन्द्रीय सरोकार का एक कारण और भी है। उन्हें भगवाधारी साधु के रूप में प्रचारित कर उनकी संकीर्ण कथित हिन्दू राष्ट्रवादी मार्केटिंग हो रही है। उन्होंने वेदांत का प्रचार करने से ज्यादा युवकों को फुटबॉल खेलने की प्रतीकात्मक सलाह भी दी थी। वेदांत की शिक्षाएं लेना लेकिन उपेक्षित नहीं किया था। धर्म और अध्यात्म के अतिरिक्त सामाजिक जीवन के बाकी क्षेत्रों में धुर दक्षिणपंथी और वामपंथी विचारकों ने भारतीय इतिहास को विवेकानन्द से वंचित रखने की बौद्धिक, सरकारी, पाठ्यक्रमित और गैरनीयतन कोशिशें भी की हैं। अमेरिकी धर्म गुरुओं और राजनेताओं के आचरण पर कड़ी टिप्पणी करने के कारण विवेकानन्द के कालजयी यश को यूरोप और अमेरिका के विद्वान हिन्दू धर्म की चहारदीवारी और उसके विश्व के धर्मों से आध्यात्मिक अंतसंर्बंधों के दायरे में भी देखते हैं। भारतीय बल्कि विश्व अकिंचन समाज के लिए किए गए विवेकानन्द के काम को समाजशास्त्रीय बौद्धिक शोध में भी दरकिनार कर दिया जाता है। उनसे प्रभावित भारतीय प्रकल्य वर्ग भी शिक्षा, समाजशास्त्र, राजनीतिविज्ञान, मनोविज्ञान, अर्थशास्त्र और संसदीय संस्थाओं के संदर्भ में विवेकानन्द के उर्वर तथा भविष्यमूलक सूत्रों की उल्था करने में अपने पारंपरिक दिमागी ढांचे के कारण परहेज करते हैं।
वैज्ञानिक वृत्ति के विकास की एक शर्त यह भी होती है कि अतीत के धुल गए कपड़े पर वर्तमान को इस्तरी चलाने का इरादा हो। इतिहास धोबी के यहां धुला हुआ वह कपड़ा होता है। जिस पर सलवटें ही सलवटें होती हैं। आजादी के महासमर में ऐसी बहुत सी शक्तियां भी थीं। वे इतिहास को समकालीन और भविष्यमूलक बनाने से कतराती रहीं। स्वतंत्रता एक बहुत बड़ा वरदान बनकर आई। तब हाशिए पर पड़ी इन राजनीतिक ताकतों ने सलवटों वाले अतीत को इतिहास का स्थायी लक्षण बताया।
इक्कीसवीं सदी में देश में विधायिकाओं में महिलाओं को एक तिहाई स्थान देना एक बड़ी राजनीतिक क्रांति करार दिया जा रहा है। पश्चिम तो खैर ज्यादा पिछड़ा हुआ है। फिर भी विधायिका में एक तिहाई स्थान आरक्षित करने में सबको ठंडा पसीना आ रहा है। इस तथाकथित आरक्षण के अंदर जातीय आधार पर भी उपआरक्षण की बिसात बिछाई जाती है। विवेकानन्द ने कहा था कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में स्त्रियों को जनसंख्या के अनुपात के कारण आधे स्थान देने ही चाहिए। इस लिहाज से यह विद्रोही संन्यासी देश की महिलाओं का सबसे बड़ा नायक हुआ होता।
कनक तिवारी
(लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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