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Yearning to get rid of the shackles in nda alliance: मंथन- एनडीए गठबंधन में बंधनों से मुक्त होने की तड़प

हरियाणा और महाराष्टÑ विधानसभा चुनाव के बाद अब झारखंड में हो रहे विधानसभा चुनाव में एनडीए गठबंधन में दरार साफ नजर आने लगी है। ऐसा लग रहा है मानो सभी क्षेत्रीय दल गठबंधन के बंधनों से खुद को मुक्त करना चाह रहे हैं। झारखंड में बीजेपी के सबसे भरोसे दल आजसू ने क्रांति का बिगुल फूंक दिया है। वहीं महाराष्टÑ में शिवसेना जैसी पार्टी ने अपनी राह अलग कर ली है। आने वाले दिनों में बिहार में चुनाव होने हैं। इससे पहले भारतीय जनता पार्टी को गंभीरता से मंथन करने की जरूरत है कि क्यों गठबंधन के दल बंधनों से मुक्त होने की तड़प दिखा रहे हैं। क्या यह गठबंधन की राजनीति से मुक्ति की शुरूआत है या फिर वक्त का फेर और मजबूरी है।
हरियाणा विधानसभा चुनाव में जब शिरोमणी अकाली दल ने भाजपा को चुनौती दी थी तो किसी को सहसा विश्वास नहीं हुआ था। शिरोमणी अकाली दल के पुरोधा प्रकाश सिंह बादल जब भी मोदी के साथ नजर आए हैं, लोगों ने मोदी को उनके पांव छू कर आशीर्वाद लेते पाया है। पंजाब में लंबे समय से यह पार्टी बीजेपी की सहयोगी पार्टी के रूप में रही है। दोनों ने साथ मिलकर लंबे समय तक प्रदेश में शासन भी किया है। पर इसी पार्टी ने जब टिकट को लेकर पड़ोसी राज्य हरियाणा में आंखें तरेरी तो आश्चर्य हुआ। अंतत: सहमति नहीं होने पर हरियाणा विधानसभा चुनाव के मैदान में अकाली दल ने अपने प्रत्याशियों को भाजपा से अलग कर लिया और उन्हें अकले ही मैदान में उतारा। चुनाव परिणाम भले ही अकालियों के लिए अच्छा नहीं रहे, लेकिन इसने स्पष्ट कर दिया कि गठबंधन से मुक्त होने की तड़प उनमें भी है।
ऐसा ही हाल महाराष्टÑ का रहा। चुनाव से पहले यहां तक स्थिति हो गई थी कि कहीं दोनों दल अलग-अलग चुनाव न लड़ने लगे। जैसे-तैसे टिकट बंटवारे पर सहमति भी बनी और दोनों दलों ने साथ चुनाव भी लड़ा। पर चुनाव के बाद सरकार बनाने की जब स्थिति आई और दोनों दलों के बीच जो लड़ाई हुई है उसने भारतीय राजनीति को नए तरीके से मंथन करने पर मजबूर कर दिया है। हालात यह हैं कि आपसी खींचतान के कारण अब तक महाराष्टÑ में सरकार का गठन नहीं हो सका है। संवैधानिक संकट को देखते हुए वहां राष्टÑपति शासन लग चुका है। महाराष्टÑ में सबसे पुराने गठबंधन शिवसेना और भाजपा के नेता अब एक दूसरे की शक्ल देखने से भी परहेज कर रहे हैं। दोनों दलों में आरोप प्रत्यारोपों का दौर इस कदर है कि दोनों एक दूसरे को झूठा और फरेबी साबित करने में जुटे हैं। संसद का लोकसभा सत्र शुरू होने वाला है। इससे पहले शिवसेना कोटे से सांसदों के सीट विपक्ष की तरफ शिफ्ट भी कर दिए गए हैं। संकेत साफ है। किसी भी कीमत पर समझौता नहीं होगा।
झारखंड विधानसभा चुनाव में भी महाराष्ट्र की सियासी हलचल का असर साफ तौर पर दिख रहा है। शिवसेना की ही तरह बीजेपी की गठबंधन सहयोगी आजसू ने भी टकराव का ही रास्ता चुन लिया है। साल 2000 में जब झारखंड अलग राज्य बना था तब से लेकर अब तक आजसू बीजेपी की प्रमुख सहयोगी रही है। पिछले चुनाव में भी दोनों ने मिलकर अच्छा प्रदर्शन किया था और सरकार बनाई थी। आजसू के कोटे से कई मंत्री भी सरकार में रहे। पर इस बार चुनाव से पूर्व ही आजसू ने आंखे तरेरनी शुरू कर दी थी। अब वो अलग चुनाव लड़ रही है। ऐसा ही हाल पासवान की पार्टी लोजपा का है। वह भी केंद्र में एनडीए के साथ है, लेकिन झारखंड में अलग चुनाव लड़ रही है। एनडीए में सिर्फ एक राष्ट्रीय पार्टी है बीजेपी जबकि सारी सहयोगी पार्टियां क्षेत्रीय हैं, लिहाजा जिस राज्य में जो पार्टी मजबूत है बीजेपी उसके साथ मिल कर चुनाव लड़ती है। ये स्थिति महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, बिहार और झारखंड में प्रमुख रूप से देखने को मिलती है। बिहार में एनडीए नेता के रूप में जिस नीतीश कुमार को अमित शाह ने पार्टी के नेता के रूप में मान्यता दी थी उसी नीतीश कुमार की पार्टी जदयू पड़ोसी राज्य झारखंड में सभी सीटों पर चुनाव लड़ रही है। इतना ही नहीं खुलकर बीजेपी सरकार पर हमला बोल रही है। ऐसे में समझना आसान है कि क्यों राजनीति को सबसे बड़ा समयचक्र कहा जाता है।
भारतीय जनता पार्टी के लिए यह गहन मंथन का समय है कि क्यों क्षेत्रीय दल उससे दूर होते जा रहे हैं। क्यों केंद्र में सहयोगी बनी पार्टियां राज्यों में अपना चाल और चरित्र दिखा रही हैं। आखिर ऐसी क्या बात है कि धीरे-धीरे सभी राज्यों में लंबे समय से सहयोगी रही पार्टियां उनकी पकड़ से निकलने को छटपटा रही है। महाराष्टÑ में शिवसेना, हरियाणा में अकाली दल, झारखंड में आजसू, लोजपा, जदयू ने गठबंधन के बंधन से खुद को मुक्त क्यों कर लिया इस पर मंथन करने की जरूरत है।
क्या यह बंधन से मुक्ति का संग्राम सिर्फ आने वाले दिनों में बेहतर डील के लिए है? या फिर सच में एनडीए के अंदर मोदी और शाह की जोड़ी ने अपना एकछत्र राज्य कायम कर लिया है, जो दूसरे दलों को पसंद नहीं आ रहा है। जदयू के महासचिव केसी त्यागी का हाल ही में दिया एक इंटरव्यू सोशल मीडिया पर चर्चा बटोर रहा है। इसमें वो कहते हैं कि झारखंड में एनडीए बचा ही नहीं है। आपसी समन्वय और तालमेल की कमी के चलते सभी पार्टियां अलग अलग चुनाव लड़ रही हैं। त्योगी कहते हैं कि शिव सेना, जेडीयू और अकाली दल एनडीए के संस्थापक दल हैं। अब पहले की तरह एनडीए की मीटिंग नहीं होती है। वैचारिक विषयों पर तालमेल और प्रयास भी नहीं होता… कोई एजेंडा इस समय अस्तित्व में नहीं है। केसी त्यागी की बातें बहुत गहराई लिए है। उनका यह दर्द आने वाले दिनों में एनडीए के भविष्य पर चिंता व्यक्त करती है।
इसमें दो राय नहीं कि लोकसभा चुनाव और विधानसभा चुनाव में जमीन आसमान का अंतर होता है। भाजपा के साथ सबसे बड़ी मजबूरी यह है कि एक दो राज्यों को छोड़ दें तो कमोबेश सभी राज्यों में बिना क्षेत्रीय दलों के सहयोग के बिना उसके अस्तित्व पर संकट है।
हाल ही में हरियाणा और महाराष्टÑ में इसकी क्षलक भी दिख ही चुकी है। ऐसे में झारखंड का परिणाम क्या होगा इस पर बहुत कुछ कहने को बांकि नहीं है। कोई भी गठबंधन आपसी तालमेल और समन्वय पर ही चलता है। अगर एनडीए में ऐसा नहीं है तो यह आने वाले दिनों में खतरे के संकेत हैं। हालांकि भाजपा के चाणक्य कहे जाने वाले अमित शाह ने तीन दिन पहले मीडिया को दिए इंटरव्यू में कई बातों को स्वीकार किया है। शिवसेना की मांग को अस्वीकार्य बता कर वो एनडीए के साथी दलों को भी संदेश दे रहे हैं कि ऐसी जुर्रत तो कतई न करें। हरियाणा और झारखंड में भी सीटों को लेकर समझौते का फॉर्मुला तय नहीं होने का कारण कहीं भाजपा का यही ओवर कांफिंडेंस तो नहीं। मोदी मैजिक एक समय तक ही चल सकता है। झारखंड का चुनावी परिणाम सीधे तौर पर बिहार की राजनीति को प्रभावित करेगा। ऐसे में भाजपा के शीर्ष नेताओं को एनडीए गठबंधन को बिखराव से रोकने के लिए सार्थक प्रयास करने होंगे।

कुणाल वर्मा
(लेखक आज समाज के संपादक हैं।)

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