बचपन में पिताजी हमें रामचरित मानस की कथा चौपाइयां सुनाते थे। उन्होंने हमें बताया, कि जब एक विद्वान जो महापंडित भी है, रावण, अभिमानी राजा बन जाता है, तब सभी भयवश, उसकी हां में हां मिलाते हुए जयकारा लगाते हैं। उसकी परिणिति यह चौपाई स्पष्ट करती है, “सचिव बैद गुरु तीनि जौ, प्रिय बोलहिं भय आस। राजधर्म, तन तीनि कर, होई बेगहिं नास”। हमारा धर्म कहता है कि मृत शरीर की जब यात्रा निकल रही हो, तो हमें बगैर यह जाने की शव किसका है, उसको नमन करना चाहिए। पक्ष-विपक्ष सियासी हो सकते हैं मगर किसी शव पर राजनीतिक विचारधारा हावी नहीं होनी चाहिए। यह हमारे देश की समृद्ध परंपरा रही है। संसद में कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने जब आंदोलन में शहीद हो चुके दो सौ किसानों को श्रद्धांजलि देने के लिए खड़े होकर दो मिनट मौन का आह्वान किया, तब सभी विपक्षी दलों के सांसद मृत किसानों के सम्मान में खड़े हो गये, मगर दूसरी तरफ सत्तापक्ष के सांसद शेम-शेम चिल्लाते रहे। लोकसभा अध्यक्ष ने सभी को रोका भी। राम के वनगमन के वृत्तांत को सुनकर जब हम दुखी थे। पिताजी ने हमें राजगुरु ब्रह्मार्षि वशिष्ठ जी और भरत के संवाद को सुनाया। “सुनहु भरत भावी प्रबल, बिलखि कहहुं मुनिनाथ। हानि, लाभ, जीवन, मरण, जस, अपजस विधि हाथ”। उन्होंने बताया कि तुम सदैव मानवता और प्राकृति संरक्षक नीति अपनाकर अपने पूर्ण बुद्धि, विवेक और ज्ञान के साथ अच्छा करने का प्रयास करो, परिणाम, ईश्वर तय करेंगे। कमोबेश यही बात गीता में श्रीकृष्ण ने कही है। उस दिन से हमने इसे अपने जीवन का मूलमंत्र बना लिया।
सोमवार को संसद में टीएमसी की सदस्य महुआ मोइत्रा ने बजट चर्चा के दौरान सरकार, न्यायिक आचरण और मीडिया का सच बयां किया। धारा प्रवाह अंग्रेजी में जब उन्होंने सभी जिम्मेदारों को घेरा, तब लोकतंत्र का मायने समझ आया। पुनः एक नारी को शक्तिरूपा देख अच्छा लगा। उन्होंने पूर्व मुख्य न्यायाधीश और मौजूदा राज्यसभा सदस्य रंजन गोगोई के आचरण को सवालों में खड़ा किया। उन्होंने कायराना और बहादुरीपूर्ण कार्यों की भी तुलनात्मक चर्चा की। दो दिन बाद सत्तारूढ़ दल को उनका भाषण विशेषाधिकार हनन लगा और उनको इसका नोटिस थमा दिया। सरकार के आंकड़ों-तथ्यों को सामने रखकर कांग्रेस के अधीर रंजन चौधरी ने भी उसे कटघरे में खड़ा किया। बसपा सांसद रितेश पांडेय ने लॉकडाउन के दौरान एशिया के सबसे अमीर भारतीय पूंजीपति के हर घंटे 90 करोड़ रुपये कमाने का आंकड़ा देकर सरकार को बैकफुट पर ला दिया। इन तीनों के भाषण में लोकतंत्र के कथित चौथे स्तंभ “भारतीय मीडिया” का सत्ता के सौदागरों का खिलौना बनने की बात सदन में गूंजी। एनसीपी के सांसद अमोल कोल्हे ने सरकार के सार्वजनिक उद्योगों को बेचने की मुहिम और जवानों के किसान पिता के राजधानी की शरहदों पर मरने पर सवाल उठाया। उन्होंने सरकार की प्राथमिकता, नई संसद बनाने या फिर हर संसदीय क्षेत्र में बेहतरीन व्यवस्था का अस्पताल बनाने की बात करके घेरा। सांसदों की सबसे बड़ी चिंता किसान आंदोलन और किसानों को बदनाम करने की रही। मोदी सरकार में छह साल मंत्री रहीं, हरसिमरत कौर ने इस मौके पर किसानों को परजीवी और आंदोलनकारियों को आंदोलनजीवी की संज्ञा देकर संबोधित करने को शर्मनाक बताया।
हाल के दिनों में सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश ने कहा कि अदालत के फैसलों की आलोचना बढ़ी हैं। उनकी बात संसद में सही सिद्ध हुई, जहां न्यायपालिका और उसके न्यायाधीश के आचरण की आवाज गूंजी। संवैधानिक लोकतंत्र के तीन घोषित स्तंभ हैं मगर उनकी जवाबदेही लगातार कम होती जा रही है। वजह, तमाम अदालती फैसले इस तरह से सुनाए गये, जैसे वह कहीं से प्रिंट होकर आ गये और न्यायाधीशों ने पढ़कर सुना दिया। जब ऐसे फैसले आते हैं, तो निश्चित रूप से न्यायपालिका की विश्वसनीयता खत्म होती है। एक व्यक्ति विशेष को जमानत देने के लिए आधी रात को देश की सर्वोच्च अदालत बैठ जाती है, वहीं एक दूसरे समान अपराध वाले व्यक्ति को महीनों जमानत नहीं मिलती। उसका मानसिक, शारीरिक और आर्थिक शोषण करके न्याय की हत्या की जाती है। यह निश्चित रूप से चिंता का विषय है। भीमा कोरेगांव मामला सर्वविदित है। इस मुकदमें में फंसाकर दर्जनों लोगों, विचारकों को जेल भेज दिया गया। अदालत में बार-बार तथ्य प्रस्तुत करने के बाद भी कोई सकारात्मक कदम नहीं उठाया गया। आरोपियों ने मजबूरन अपने मामले से जुड़े तथ्यों को वैश्विक स्तर की अमेरिकन लैब में जांच कराने के बाद पुनः शपथपत्र दाखिल किया है। जांच में आया है कि लैपटॉप में छेड़छाड़ करके उसमें दस्तावेज प्लांट किये गये थे। आपको याद होगा कि जब एनआरसी और एनपीआर के खिलाफ आंदोलन चल रहा था, तब किस तरह से हिंसा कराई गई। पीड़ित आंदोलनकारियों को ही मुलजिम बना दिया गया था। इसी तरह हाथरस कांड के घटनाक्रम को कवर करने जा रहे पत्रकारों को पहले रोका गया और फिर कुछ चुनिंदा पत्रकारों को गिरफ्तार किया गया। इन सभी मामलों में अदालती चुप्पी, उसे खुद मुलजिम बना देती है।
वहीं, दूसरी ओर एक स्वस्थ संवैधानिक लोकतंत्र की पहचान स्वतंत्र पत्रकारिता से होती है। इस वक्त संसद से लेकर सड़क तक मीडिया की विश्वसनीयता खत्म हो गई है। उसे गोदी मीडिया का नाम दिया जा रहा है। मीडिया की मजबूरी है कि उसे कोई सरकारी संरक्षण नहीं है, जिससे मुकदमों से लेकर लाठी तक उसे ही झेलनी पड़ती है। ईमानदार और निष्पक्ष पत्रकारिता कितने खतरों से भरी है, यह मौजूदा वक्त में देखने को मिल रहा है। स्वतंत्र भारत के इतिहास में ऐसा पहली बार हो रहा है, जब मीडिया और न्यायपालिका को न सिर्फ बाहर से बल्कि अपने भीतर से भी शर्मनाक आलोचनाओं का सामना करना पड़ रहा है। आपको याद होगा कि 1975 में हाईकोर्ट के एक जज जगमोहन सिन्हा ने प्लांट किये गए सबूतों के आधार पर तत्कालीन प्रधानमंत्री श्रीमती इंदिरा गांधी के चुनाव को निरस्त कर दिया था, मगर श्रीमती गांधी ने किसी के साथ बदले वाली भावना से काम नहीं किया था। आज उसका उलट देखने को मिल रहा है। जो आंदोलन से निकले हैं, वही जनांदोलनों को बदनाम करने की साजिश रचते हैं। काम करने पर उनका भरोसा कम है, तमाशेबाजी पर अधिक। यही कारण है कि हमारा देश, पूरे विश्व में तमाशा बन रहा है। जब विश्व के बड़े सजग लोग हालात पर टिप्पणी करते हैं, तब सरकारी संरक्षण में इन तमाशाइयों से उन पर अभद्र टिप्पणियां कराई जाती हैं।
सत्ता, जनहित में काम करने के लिए प्रतिबद्ध होती है, न कि दूसरों की बुराई खोजने में। विपक्ष, सरकार के फैसलों में जनहित की उपेक्षा वाले तथ्यों को उठाकर उनका विरोध जताने का काम करती है। न्यायपालिका का कर्तव्य है कि वह हर किसी के हक की संरक्षा करे और अगर कोई जबर व्यक्ति या संस्था उसका हक मारे, तो उसे रोके। मीडिया का काम तीनों के कार्यों की समीक्षा करना और सरकार से उसके कार्यों पर सवाल करना है। दुख तब होता है, जब सभी अपने काम छोड़कर सिर्फ तमाशा करने वाले बन जाते हैं। अगर हमें लोकतंत्र को जीवित रखना है, तो यह तमाशेबाजी बंद करनी होगी। नहीं तो हम विश्व के सबसे बड़े लोकतांत्रिक गणराज्य कहलाने का हक खो देंगे। अधिकारों के साथ ही सभी की जवाबदेही भी तय होनी चाहिए, न कि देश को पुलिस स्टेट बनाने की कोशिश करनी चाहिए।
जय हिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)