रेत के समन्दर में अपनी लहरदार पीठ पर सवारी का लुत्फ देने वाले इस रेगिस्तान के जहाज ऊंट के हालात इन दिनों बुरे ही नजर आ रहे है। उपयोग एवं संरक्षण के अभाव में रेगिस्तान का यह टाईटेनिक डूबता सा नजर आ रहा है। निरन्तर घटती उंटों की संख्या को देखते हुए यह कहने में कोई अतिशियोक्ति नहीं होगी कि आगामी वर्षों में उंट देखना व उस पर सवारी करना केवल एक स्वप्न बन कर न रह जाये। मरू मेलों और विदेशी सैलानियों के उपयोग में आने वाले रेगिस्तान के जहाज ऊंट के कुछ वर्षों पूर्व इतने बुरे दिन नहीं थे लेकिन जैसे जैसे समय बदला संसाधनों का स्वरूप बदला और बदलावों की इस तेज रफ्तार में बहुत पीछे छूट गया यह रेगिस्तान का जहाज।
एक वो भी जमाना था जब उंट परिवार का हिस्सा हुआ करता था, परिवार की शानो शौकत के इस प्रतीक को बाकायदा परिवार के सदस्य जितना सम्मान मिला करता था, घर में बच्चे के नामकरण की ही तरह इसका भी नाम रखा जाता था बादल, तूफान और सिकन्दर सरीखे नामों से नवाजा जाने वाला यह जानवर पारिवारिक समारोहों में भी एक विशेष भूमिका निभाता था, घर में शादी हो या फिर और कोई खुशी का त्यौहार उंटों का नृत्य भी बडे लुत्फ देने वाला हुआ करता था लेकिन समय की मार ने इस मूक जानवर को हाशिये पर ला कर खडा कर दिया और आज यह बेचारा बना हुआ अपने संरक्षण के लिये ताक रहा है।
आज के समय में साधन संपन्न जैसलमेर की विरासत व यहां के स्थानीय लोगों के आवागमन का साधन रेगिस्तान का जहाज ऊंट अब आधुनिक युग में अपनी दुर्दशा पर आंसू बहा रहा है। अब इस रेगिस्तान में सीमाओं की निगेहबानी में बीएसएफ के साथ ऊंट हर कदम पर साथ चल रहा है, लेकिन इन सबके बावजूद अब सरकारों द्वारा ऊंट के विकास व उत्थान को लेकर कोई प्रयास नहीं किए जा रहे हैं। देश भर में सबसे ज्यादा ऊंट राजस्थान में पाएं जाते है। इसके साथ ही राजस्थान में ऊंटों की सर्वाधिक संख्या जैसलमेर में है। जैसलमेर के देगराय ओरण के सिर्फ 4 गांवों की बात करे तो जैसलमेर के सांवता, रासला, अचला व भोपा गांवों में 5 हजार से ज्यादा ऊंट है, लेकिन अब ऊंटपालकों के सामने रेगिस्तान के जहाज के पालन पोषण को लेकर समस्या खड़ी हो गई है।
जिले में 50 हजार ऊंट है। पहले ऊंट आवागमन के लिए उपयोग में लिए जाते थे। लेकिन अब आवागमन के साधन होने से ऊंटों की उपयोगिता बेहद कम हो गई है। इसके साथ ही सरकार ने ऊष्ट विकास योजना भी बंद कर दी। इसके साथ ही पिछले दो साल से पर्यटन सीजन पिटने के कारण ऊंट से रेगिस्तान पर सफर व ऊंटनी के दूध से बने प्रोडक्ट भी बनने बंद हो गए है।
राज्य सरकार द्वारा ऊष्ट विकास योजना के तहत पूर्व में योजना शुरू करते हुए ऊंटनी के बच्चे पर तीन किश्तों में 10 हजार रुपए की राशि दी जाती थी, लेकिन पिछले कुछ सालों से सरकार द्वारा यह योजना भी बंद कर दी गई है। इससे ऊंटपालकों को मिलने वाला सहयोग भी पूरी तरह से बंद हो गया है। ऊंटनी के दूध को लेकर सरकार द्वारा कोई नीति नहीं बनाई गई है। जिससे सीमावर्ती जिले में हर महीने लाखों लीटर दूध व्यर्थ जा रहा है। ऊंटनी के दूध को विभिन्न बीमारियों के लिए संजीवनी बूटी तक की उपाधि दी जा चुकी है। राज्य सरकार की ओर से उष्ट्र ऊंटों की लगातार घटती संख्या को रोकने के लिए और ऊंटों के संरक्षण संवर्धन के लिए उष्ट्र विकास योजना शुरू की गई थी लेकिन जागरुकता के अभाव में यह योजना भी कारगर साबित नहीं हो रही।