ये सारा बवाल खेती के व्यवसायीकरण और कटाई के मशीनीकरण का करा-धरा है।1990 के उत्तरार्ध में कम्बाइन हार्वेस्टर से फसल-कटाई होने लगी। हाथ से काटने से ये तरीका सस्ता था लेकिन इससे खेतों में बड़े-बड़े डंठल छूटने लगे। दोबारा इसकी कटाई का खर्चा कौन उठाए सो खेतिहर इसमें आग लगाने लग गए। वातावरण में राख ही राख भरने लगा। सर्दियाँ इसी की आसपास शुरू होती है। कुछ समय पहले तक आफत बनी तेज हवा और बारिश जा चुकी होती है। सो राख ना तो ऊपर जाती है, न ही तितर-बितर होती है और ना ही बारिश में घुल पाती है। धुआं और धूल छोड़ती मोटर, फैक्टरी, निर्माण कार्य हवा को दमघोंटू बना देते हैं। शहरों का बुरा हाल हो जाता है। दिवाली के पटाखे जख़्म पर नमक का काम करते हैं। बीमार की तो छोड़िए, अच्छे-भले के भी आंख-नाक जलने लगते हैं। फेफड़ा जवाब देने लगता है। सरकार रंग-बिरंगी आपात-स्थिति घोषित करने लगती है। टीवी-अखबार एयर क्वालिटी इंडेक्स दिखा-दिखा कर सबको डराने में जुट जाते हैं। लोगों के पास इनको भुगतने के अलावा कोई चारा नहीं रहता। निदा फाजली के एक लोकप्रिय शेर में शुकून ढूंढते हैं:
कभी किसी को मुकम्मल जहां नहीं मिलता
कहीं जमीं तो कहीं आसमां नहीं मिलता
कोफ़्त तब होती जब वातावरण प्रदूषण जैसी जानलेवा चीज को भी लोग मजाक में लेने लगते हैं। पूरे साल सोते रहते हैं। जब प्रदूषित धुंध से दिन में रात होने लगता है, लोगों के आंख-नाक बहने लगते हैं तब कहीं जाकर इससे निबटने का ठेका लिए फिरने वाले लोग ज्ञान की गंगा बहाने निकलते हैं। किसानों को पराली जलाने के बजाय उसे जमीन में दबाने के लिए कहने लगते हैं। इसके लिए हैपी सीडर मशीन के इस्तेमाल की जिÞद करने लगते हैं। किसान कहते हैं कि इतना खर्चा वो नहीं उठा सकते। मशीन साल में एक बार ही इस्तेमाल होती है। बहुत जल्दी खराब भी हो जाती है। ऊपर से ये उनके लिए फालतू का खर्च है। कन्सल्टंट लोग तरह-तरह की इनामी योजना गढ़ते हैं। लठैत टाइप लोग कहते हैं कि पराली में आग लगाने वालों को भारी-भरकम जुमार्ना लगाओ। कोई आड-ईवेन स्कीम लेकर आ जाता है। लेकिन परिणाम वही ढाक के तीन पात रहता है। जिस कानून को बहुतायत स्वेक्षा से नहीं मानते उसे आसानी से लागू नहीं किया जा सकता।
जानकारों का मानना है कि मशीनीकरण का तांडव यहीं नहीं रुकने वाला। इजरायल के एक लेखक युवान हरारी का कहना है कि अब तक मशीन मजदूरों के काम ही छीन रहा था। आॅर्टिफिशल इंटेलिजेंस तो सबका दिमाग हैक करने में लगा है। आईटी और बायोटेक्नोलोजी क्षेत्र में शोध पर अरबों-खरबों खर्च हो रहे हैं। जल्दी ही एक स्थिति आने वाली है कि रोबोट और कम्प्यूटर प्रोग्राम सारा काम अपने हाथ में ले लेगा और आदमी को ठाला बिठा देगा। ये प्रक्रिया पूरे परवान पर है। लेकिन लोग हैं कि हाथ पर हाथ धरे बैठे हैं। प्रभावशाली लोगों का एक धड़ा इसे रोकने में लगा है। उनका कहना है कि ये आदम-जाति के विनाश का कारण बनेगा।
उनसे असहमति रखने वालों का कहना है कि ये रुकने वाली चीज नहीं है। लोग खामखाह डर फैला रहे हैं। पहले मशीन के बारे में ऐसा ही बोलते थे। उनकी समझ से आर्टिफिशल इंटेलिजेन्स दुनियां को बेहतर बनाएगी। बस आदमी की भूमिका बदल जाएगी। उन्हें विश्वास है कि कम्प्यूटर हमेशा आदमी के कहे से चलेगा। हरारी के यूजलेस क्लास वाली बात बेसिरपैर की नहीं लगती। जो हुनर कुछ साल पहले रोजगार की गारंटी हुआ करता था, अब उसे कोई पूछता तक नहीं है। सेल्फ-ड्राइविंग कार से लेकर रोबोटिक सर्जन तक बाजार में आ गया है। रोज एआई आदमी की कोई न कोई जगह हड़प ले रहा है। ऐसे में एक सोच ये है कि आने वाले समय में यूनिवर्सल बेसिक इंकम और सिटिजन वेज जैसी आर्थिक व्यवस्था बनेगी। इसके तहत सबको हर माह एक निश्चित रकम मिल जाया करेगी। लोगों को कुछ करने की जरूरत नहीं रहेगी।
जहां तक दिल्ली में त्योहार के समय साल-दर-साल प्रदूषित धुंध की बात है ये हमारा खुद का अर्जित किया हुआ है। अगर कम्बाइन हॉर्वस्टर से ही कटाई होनी है तो इसको बनाया ही इस तरह से जाना चाहिए कि ये धान की फसल को जड़ से काटे। ना रहेगी पराली और ना रहेगी उसको जलाने की जरूरत। दूसरा उपाय है कि दिल्ली-एनसीआर के मोटरों-फैक्टरियों से स्मॉग टैक्स वसूला जाए और उसी पैसे से हैपी सीडर से पराली-सहित गेहूं की बीजाई कराई जाए। ऐसे समय में मोटर-गाड़ियां के इस्तेमाल और प्रदूषण फैलानी वाली औद्योगिक इकाइयों के संचालन पर नकेल कसी जाए। दिवाली के आसपास पटाखे पर भी पाबंदी जरूरी है। जिसे हम उत्सव मनाना कहते हैं असल में वो आत्महत्या करने जैसा है। बात तभी बनेगी जब लोग जागरुक हों, वातावरण को ठीक रखने के लिए प्रतिबद्ध हों। जब पानी सिर पर हो तब हाथ-पैर मारने से कुछ हासिल नहीं होने वाला।
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