Win against fear:  डर के आगे जीत

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साल 1869 में हिंदुस्तान में दो ध्यार्नाषक बात हुई – एक, शायर मिर्जा गालिब चल बसे। दूसरे, राष्ट्रपिता महात्मा गांधी ने जन्म लिया। पहले ने इंसानी कमजोरियों जैसे कि शराबनोशी, जुएबाजी, इश्कफरोशी, कर्जखोरी इत्यादि का जश्न मनाया। कुछ इस सफाई से कि आज भी काहिल किस्म के लोग उनके शेरों, गजलों और नज्मों में अपनी बेवकूफी का संबल ढूंढते हैं। दूसरे ने अपनी मानवीय कमजोरियों को समझा, स्वीकार किया और उस पर जीत को अपने जीवन का ध्येय बनाया। इसमें इतना आगे निकल गए कि आइन्स्टायन ने इनके बारे में यहां तक कह दिया कि आने वाले पीढ़ियों को शायद ही विश्वास होगा कि गांधी जैसा हाड़-मांस का आदमी भी धरती पर चला करता था।
कोरोना वायरस की मार के बारे में अगर इन दोनों से पूछा जाता तो दोनों का जवाब भी उल्टा ही होता। गांधी कहते कि आत्मनिर्भर बनो, साफ-सफाई पर ध्यान दो, अड़ोस-पड़ोस वालों का ध्यान रखो और गरीबों को इसकी मार से सबसे पहले बचाओ। गालिब ये शेर दे मारता ‘रंज से खूगर हुआ इंसान तो मिट जाता है रंज, मुश्किलें  मुझ पर पड़ी इतनी आसां हो गई’ – कोई समस्या जब ज्यादा जटिल हो जाए तो आदमी सिर पीटना बंद कर देता है। डॉक्टर इसे ‘हर्ड इम्यूनिटी’ का नाम देते हैं। आबादी के साठ प्रतिशत को अगर कोई संक्रमण की बीमारी हो जाए तो इसका असर जाता रहता है।
सरकार गांधी जी के सुझाए रास्ते पर चल रही है। लोगों को समझाने में लगी है कि हाथ धोओ, मास्क पहनो, दूसरे से दो गज दूर रहो। इस चक्कर में लॉकडाउन भी कर रखा है। लेकिन इससे एक अलग तरह का बवाल खड़ा हो गया है। रोजी-रोटी की तलाश में शहर आए लोग वापस घर जाने की जद्दो-जहद में हैं। जैसा कि संकट में अक्सर होता है लोग घर की तरफ भाग लेते हैं। इसलिए नहीं कि वहाँ बचाव की कोई गैरंटी है। इसके पीछे अवचेतन मन में हजारों सालों से बसी सोच है कि किसी तरह से अगर गुफा में घुस गए तो बच जाएंगे। समर्पण का भाव भी है कि अगर मरना ही है तो अपने घर में, अपनों के बीच मरेंगे। ये उन शहरों के लिए लानत है जिसका ये कारोबार चलाते थे। उन खेतिहरों के मुंह पर थप्पड़ है जिनको ये कमरतोड़ मेहनत से बचाते थे। इन्हें महीने भर भी नहीं सम्भाल पाए।
वैसे आदमी की स्मृति छोटी होती है। नई बीमारी है सो सारे अपना कैमरा-माइक-कलम इधर ही दागे बैठे हैं। इस फेर में कि उनके हांका ही लोग सुने, इन लोगों ने डर का बवंडर खड़ा कर रखा है। अगर कहें कि कोरोना से साढ़े तीन महीने में भारत में साढ़े तीन हजार लोग मरे तो कोई कान भी नहीं पटपटाएगा। लेकिन इसी को इस तरह से परोसें, जैसा कि विशेषज्ञों ने अप्रैल में किया, कि लॉकडाउन के बावजूद मई के तीसरे सप्ताह तक पांच लाख लोग कोरोना के चपेट में होंगें और इनमें से पैंतीस हजार के आसपास निबट लेंगे तो रोंगटे खड़े होना स्वाभाविक है। अब जब कि पानी सिर से ऊपर चला गया है, बिलों में घुसे आलोचक बाहर निकलने लगे हैं। लॉकडाउन को चुनौती देने लगे हैं। विशेषज्ञों की खाट खड़ी करने लगे हैं कि इन्होंने गलत अंदाजा लगा सरकारों को डरा दिया। दुनियां की अर्थव्यवस्था चौपट हो गई है। भूख और बेरोजगारी से करोड़ों मारे जाएंगे। ज्ञानी भी हथियार डालने को तैयार नहीं है। ‘सेकंड वेब’ की बात कर सरकारों की गति सांप-छछून्दर की कर रहे हैं। वे दुविधा में हैं कि लॉकडाउन हटाएं कि ना हटाएं।
पिछले पांच महीने से दुनिया में चार-पांच शब्दों का राज है। 23 मई 2020 के दिन इंटरनेट पर कोरोना के 121, लॉकडाउन के 57.2, क्वॉरंटीन के 45.2, सोशल डिसटेंसिंग के 126 करोड़, वैक्सीन के 29, इकॉनमी के 219, मास्क के 243, वेंटिलेटर के 11.6, हैंडवाश के 11, होप (आशा) के 319 और फीयर (भय) के 84.5 करोड़  लिंक थे। अगर हम ये मानें कि लिंकों की संख्या जनसंवाद के विषयों का सूचक है तो हम ये कह सकते हैं कि लोग कोरोना से ज्यादा अर्थव्यवस्था को लेकर चिंतित हैं। लॉकडाउन से ज्यादा मास्क और सोशल डिसटेंसिंग की बात कर रहे हैं। भय से कहीं अधिक उम्मीद पर टिके हैं। ऐसे में लोगों के दिमाग में सुन्न करने वाले आंकड़े ठूंसने का क्या मतलब? जो ठीक होकर घर गए, सो गए। जिनका इलाज चल रहा है, चल रहा है। जितने जान गंवा बैठे, उनकी संख्या मात्र क्या लोगों को सचेत करने के लिए काफी नहीं है? क्या ये रोज बताते हैं कि भारत में हर दिन सड़क दुर्घटना में 500, सिगरेट पीने से उपजी बीमारी से 2750, शराब से 750, गिरने से 800 और पानी में डूबने से 82 लोग मर जाते हैं? क्यों नहीं ये ज्यादा जोर इस बात पर देते हैं कि मास्क पहनने और हाथ धोने से कोरोना का खतरा जाता रहता है। आप तसल्ली से अपना काम कर सकते हैं। बीमारी पकड़ भी ले तो घबराने की जरूरत नहीं है। ये उतनी मारक नहीं है।
लॉकडाउन पर भी ज्यादा हायतौबा मचाने का कोई लाभ नहीं है। ये तो जीवन की एक सच्चाई है। आजाद जीवन तो एक भ्रम है। खेल मां के पेट से ही शुरू हो जाता है, जहां नौ महीने का प्रवास भी एक तरह से लॉकडाउन ही है। धर्म, कानून, संस्कृति, अनुशासन, लोकलाज एक तरह से लॉकडाउन का ही फरमान है। गरीबों की तो छोड़िए, खाते-पीते भी सवेरे उठते ही टाइम-टेबल, टाई-बेल्ट और  जूते में बंध जाते हैं। बसों-गाड़ियों में लदे दफ्तर-स्कूल पहुंच जाते हैं। शोषण-चक्र में फंसे कमजोर एक तरह से लॉकडाउन में ही जी रहे होते हैं। इस बार कोरोना ने भी फटे में पैर घुसा दिया है। हुक्म है कि घर बैठो जिससे कि ये बीमारी एक से दूसरे को ना लगे। सरकार तब तक इलाज की तैयारी कर ले। लोग मास्क, सोशल डिसटेंसिंग और हैंडवाश का महत्व जान लें।
महीनों गुजर गए हैं। समय आ गया है कि लोग बार-बार हाथ धोने को जीवन-शैली बनाएं। मास्क पहन बाहर निकलें। रोजमर्रा के जीवन-चक्र को दोबारा गति दें। जान के हजार दुश्मन हैं, एक और सही। डर कर कब तक कोने में दुबके रहेंगे। करोड़ों के जान-माल और रोजी-रोटी का सवाल है।
(लेखक हरियाणा सरकार में प्रमुख सचिव के पद पर कार्यरत हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)