डॉ. महेंद्र ठाकुर :
प्रतिवर्ष 14 सितम्बर हिन्दी दिवस के रूप में मनाया जाता है। तीव्र गति से चलने वाले सोशल मीडिया के इस युग को धन्यवाद कि अब हर घटनाक्रम सार्वजनिक हो जाता है। भाषा अथवा मातृभाषा किसी भी देश या समाज के लिए उसकी पहचान की तरह होती है। उस देश या राष्ट्र का दायित्व है कि वह अपनी मातृभाषा का संरक्षण और संवर्धन करे। भारत के परिप्रेक्ष्य में कहा जाए तो यहाँ पर थोड़ी सी दूरी के बाद ही भाषा बदल जाती है, हमें भाषा का स्वरुप दिखता है। हिन्दी हमारी राष्ट्रभाषा जरुर है लेकिन इसके साथ ही स्थानीय बोलियों का अपना एक विशिष्ट महत्व है।
लेकिन अब भारत में राष्ट्रभाषा हिन्दी की वर्तमान अवस्था पर विचार करना अब अपरिहार्य हो गया है। बाकी दुनिया में भाषाओँ के सम्बन्ध में क्या चल रहा है इसके बारे यूनेस्कों का कहना है कि हर दो सप्ताह में एक भाषा विलुप्त हो रही है। यदि हम दक्षिण एशिया की बात करें तो यह प्रश्न उठत्ता है कि भूटान और नेपाल के आलावा भारत का कौन सा पडोसी देश है, जहाँ उसकी मातृभाषा अथवा राष्ट्रभाषा का परचम लहरा रहा है? आज कदाचित नेपाल और भूटान में ही उनकी मातृभाषाओं में उनके अधिकांश काम होते हैं। मैंने स्वयं नेपाल में देखा है क्योंकि मेरे ससुराल वहां हैं। इसी कारण इन देशों के लोगों को अपनी भाषा। संस्कृति और जीवन-पद्धति पर गर्व भी है।
जहाँ तक भाषा संबंधी भारत की बात आती है तो कहने को तो भारत में हिंदी को राष्ट्रभाषा की उपाधि प्राप्त है लेकिन उसके साथ यहाँ बहुत हीं निम्न दर्जे का व्यवहार होता है। भारत में हिंदी की अवस्था कैसी है इसका अंदाजा आप यहाँ से लगा सकते हैं कि संसद की अधिकांश कार्यवाही अंग्रेजी में ही होती है। कुछ समय पहले ही कांग्रेसी सांसद शशि थरूर द्वारा केंद्रीय मंत्री ज्योतिराजे सिंधिया को हिंदी भाषा में बोलने पर आपत्ति दर्ज कराई गयी थी। आज भी कानून अंग्रेजी में बनते हैं, न्यायालयों की प्रक्रिया
अंग्रेजी में होती है। हिंदी या अन्य मातृभाषायें तभी सुनने में आती हैं जब लोगों को अंग्रेजी भाषा नहीं आती है। बल्कि अब तो हिंगलिश का भी प्रचलन शुरू हो गया है। स्थिति इतनी बिगड़ गयी है कि यदि आज के बच्चों को चौहत्तर लिखने को बोल दिया जाए तो वे आसमान देखने लगते हैं। मैं अंग्रेजी विरोधी नहीं हूँ परन्तु अंग्रेजी सीखने का अर्थ मातृभाषा या राष्ट्रभाषा का विलुप्त होना नहीं होता। मुझे लगता है कि संयुक्त राष्ट्र संघ का 21 फरवरी को अंतर्राष्ट्रीय मातृभाषा दिवस मनाने का अर्थ यह नहीं है कि लोग अन्य भाषाओं को सीखना बंद कर दें। वे सभी भाषाएँ सीखे लेकिन अपनी मातृभाषा और राष्ट्रभाषा अपरिहार्य रूप से सीखें।
और जहां तक विदेशी भाषाओं का प्रश्न है, उन्हें भी आवश्यकतानुसार सीखना चाहिए। उनका उपयोग वैश्विक स्तर पर व्यापार, डिप्लोमेसी और अनुसंधान आदि के लिए आवश्यक है। लेकिन यहाँ यह भी ध्यान देना आवश्यक है कि इन तीनों उद्यमों (व्यापार, डिप्लोमेसी और अनुसंधान) में देश में कितने प्रतिशत लोग कार्यरत हैं? इस प्रश्न का उत्तर यदि ढूंढेंगे तो पता चलेगा बहुत कम लोग। यह संख्या मुश्किल में लाखों में होगी। दूसरी तरफ यदि हम भारत की जनसंख्या के आंकड़ों को देखें तो ये लगभग 140 करोड़ के लगभग है। अब प्रश्न उठता है कि 100 करोड़ से अधिक लोगों पर अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा को थोपना कितना सही है? मैकाले ने तो साफ़ साफ कहा था कि उनके अंग्रेजी स्कूलों का उद्देश्य ब्रिटिश शासन के गुलाम तैयार करना है। दूसरे यह बात भी सत्य है कि भारत के शिक्षा जगत में अंग्रेजी भाषा की अनिवार्यता के कारण हर साल बड़ी संख्या में विद्यार्थी परीक्षाओं में अनुत्तीर्ण होते हैं।
क्या इसके कारण उनका मनोबल नहीं गिरता है? क्या इससे उनका भविष्य प्रभावित नही होता? क्या हर साल परीक्षा परिणाम आते हैं तो बच्चों द्वारा आत्महत्या के समाचार हम नहीं पढ़ते या सुनते? क्या भारत में टॉक इंग्लिश वॉक इंग्लिश संस्कृति की आवश्यकता है? दूसरे प्रश्न यह भी उठता है कि पूरी दुनिया में ब्रिटेन, अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया और न्यूजीलैंड की और आधे कनाडा के आलावा (आधा कनाडा फ्रांसीसी बोलता है) अंग्रेजी भाषा का वर्चश्व कहाँ हैं? दुनिया की महाशक्तियां कहलाने वाले देश चीन, फ्रांस, जर्मनी, जापान, यहाँ तक कि इटली जैसे देशों में सारा महत्वपूर्ण काम उनकी अपनी भाषा में ही होता है।
तो फिर भारत में ऐसा करने में क्या समस्या है? वैश्विक इतिहास पर दृष्टि डालें तो पता चलता है कि कोई भी देश आज तक विदेशी भाषा के बल पर महाशक्ति नहीं बना है। इसका श्रेय केवल और केवल मातृभाषा या उस देश की राष्ट्रभाषा को जाता है। लेकिन भारत के साथ मामला उल्टा है। यहाँ हर जगह अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा का प्रभुत्व है। परिस्थिति इतनी गंभीर है कि संस्कृत में मंत्रिपद की शपथ लेने वाले प्रताप सारंगी जैसे मातृभाषा के पैरोकार के ट्वीट भी अंग्रेजी में आते हैं। बच्चों को माता पिता द्वारा ‘हाथ’ शब्द सीखाने की जगह ‘हैँण्डू’ और ‘नाक’ की जगह ‘नोजू’ सिखाया जाता है। दूसरा बड़ा प्रश्न उठता है कि क्या हम अंग्रेजी भाषा का उपयोग फ्रांस, जर्मनी, चीन, रूस और जापान जैसे देशों के साथ कर सकते हैं?
क्या हम अंग्रेजी के उपयोग से इन देशों के साथ व्यापार, डिप्लोमेसी और अनुसंधान कार्यों में पूरा लाभ उठा सकते हैं? यदि हाँ तब अच्छी बात है लेकिन यदि न तो फिर अंग्रेजी को इतना महत्व क्यों? क्या इस देश के नीतिनिर्धारकों और सरकारों को यह नहीं लगता है कि इस अंग्रेजी भाषा के कारण देश में मौलिकता और संस्कृति का कितना क्षय (हानि) हुआ है। क्या भारत आज भी अंग्रेजों की कॉलोनी नहीं है? सुप्रसिद्ध पुस्तक डिकोलोनाईजिंग डी माइंड" में केन्या के सुप्रसिद्ध लेखक थियोंगो लिखते हैं।
सांस्कृतिक बम सबसे बड़ा शस्त्र है जो दिन प्रतिदिन छोड़ा और चलाया जाता है, संस्कृति बम का प्रभाव लोगों के अपने नाम, भाषा, वातावरण, संघर्ष, परम्परा अपनी एकता अपनी क्षमताओं और अंततः अपना अपनत्व सब कुछ समाप्त कर देता है। क्या अंग्रेजी भाषा थियोंगो के अनुसार सांस्कृतिक बम के लिए उत्प्रेरक नहीं है? क्या ये सच नहीं है कि इस अंग्रेजी की अनिवार्यता के कारण अधिकांश भारत के लोग नकलची बन गयें हैं? यह सत्य है कि भारत के मुट्ठी भर लोगों की उन्नति में अंग्रेजी भाषा का योगदान है
लेकिन क्या यह सत्य नहीं है कि भारत की 100 करोड़ से भी अधिक गरीब, पिछडी, ग्रामीण, मजदूर वर्ग और वंचित वर्ग का उद्धार अंग्रेजी से नहीं हो सकता? मुझे लगता है कि यह विशाल कार्य मातृभाषा या राष्ट्रभाषा के बिना नहीं हो सकता है। भारत की राष्ट्रभाषा को समर्पित ‘हिंदी दिवस’ के इस उपलक्ष्य पर आईये आज चिंतन करते हैं कि क्या मातृभाषा या स्वभाषा या फिर राष्ट्रभाषा हिंदी के बिना भारत विश्वगुरु या वैश्विक महाशक्ति बन पाएगा? साथ ही हमें यह भी ध्यान रखना चाहिए कि मातृभाषा हाथ होता है और अन्य भाषायें उस हाथ में हथियार का काम करती हैं। यदि हाथ ही दुर्बल होगा तो हथियार भी नही चलेगा।
डॉ. महेंद्र ठाकुर, हिमाचल प्रदेश आधारित फ्रीलांसर स्तंभकार हैं साथ ही कई बेस्टसेलर और सुप्रसिद्ध पुस्तकों के हिंदी अनुवादक भी हैं। इनका ट्विटर हैंडल @Mahender_Chem है।
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