किसी भी विचारधारा, संगठन या राजनीतिक दल को अपने अन्दर के और बाहर के शत्रुओं से निरंतर लड़ते रहना पड़ता है। इसी तरह राजनीतिक नेतृत्त्व को भी। जब तक कोई नेतृत्त्व अपने आंतरिक शत्रुओं से नहीं जीत पाएगा, तब तक वह बाहरी शत्रुओं के साथ भी पूरी ताकत से नहीं लड़ सकता। कांग्रेस पार्टी और कांग्रेस नेतृत्त्व को इस समय अपने अन्दर के और बाहर के विरोधियों से निपटने की सख्त जरूरत है। राहुल गांधी अपने 21 महीने के कार्यकाल में दोनों ही तरह के शत्रुओं से लड़ने में नाकाम रहे। उनकी पार्टी के अन्दर ही लोकतंत्र इतना अधिक हो गया था, कि पार्टी एक तरह से अराजकता की शिकार हो गयी थी। उनके बड़बोले नेता मणिशंकर अय्यर, शशि थरूर या गुलाम नबी आजाद क्या बोल देंगे, कुछ पता नहीं रहता था। शायद इसी वजह से राहुल गांधी बाहरी शत्रुओं से निपटने में भी नाकाम रहे। भारतीय जनता पार्टी के लोगों ने उनकी ‘पप्पू’ की छवि बना दी थी, दु:ख रहा, कि वे इस छवि को अपने से दूर नहीं कर पाए। फिर लोकसभा चुनाव में हार के बाद लड़ने की बजाय उन्होंने हथियार डाल दिए और पार्टी की अध्यक्षता छोड़ दी। एक लम्बे जद्दोजहद के बाद पार्टी ने पुरानी अध्यक्ष सोनिया गांधी को ही अंतरिम अध्यक्ष बनाने के लिए मना लिया। लेकिन यह अंतिम हल नहीं है, पार्टी को अपना कोई स्थायी अध्यक्ष चुनना ही होगा।
कांग्रेस की दिक्कत यह है कि सर्वाधिक लम्बे समय तक देश में राज करने के बाद भी उसके नेताओं ने पार्टी संगठन को मजबूत करने की जगह सारा जोर खुद को मजबूत बनाने में लगाया। वे सदैव इस ताक में रहे, कि फलां को पार्टी अध्यक्ष की नजरों में गिराकर खुद उसकी नजरों में चढ़ जाएं। इसका नतीजा यह हुआ, कि पार्टी का संगठन कमजोर होता गया। पार्टी नेताओं ने मान लिया था, कि इस देश की जनता तो उन्हें ही जिताएगी। उनकी यही आत्म-मुग्धता पार्टी को ले डूबी। सत्य तो यह है, कि आज कांग्रेस की धुरी नेहरू परिवार बन गया है। इसीलिए वे सोनिया गांधी, राहुल गांधी अथवा प्रियंका गांधी में ही अपना नेतृत्त्व तलाशते हैं। और फिर परिवार की गणेश परिक्रमा किया करते हैं। अपनी इस कोशिश में वे अक्सर अराजकता की हद तक पहुंच जाते हैं। पिछले दो लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का नेता विरोधी दल तक नहीं बन पाने की स्थिति देख कर यही लगता है, कि पार्टी नेतृत्त्व को सबसे पहले अपनी पार्टी के अन्दर बैठे छिपे हुए शत्रुओं का सफाया अभियान चलाना चाहिए। सदैव जीत उसी की होती है, जो पूरे विश्वास के साथ अपने भीतर के और बाहर के शत्रुओं से निपटने में सक्षम होता है। यह सच है, कि सोनिया गांधी को पार्टी चलाने का सबसे लम्बा अनुभव है। वे अंतरिम अध्यक्ष बनने के पहले भी 19 साल तक पार्टी की अध्यक्ष रह चुकी हैं। और उनके ही कार्यकाल में कांग्रेस पुन: सत्ता में पहुंची और दस साल तक लगातार पार्टी सत्ता में रही। किन्तु इसके बाद भी यह सवाल बना ही रहेगा कि क्या सोनिया नरेंद्र मोदी की चुनौती से निपटने में सक्षम हैं। क्योंकि एक तरफ तो उनका गिरता हुआ स्वास्थ्य है, दूसरे उतना ही गिरता हुआ पार्टी कार्यकर्ताओं का मनोबल है। आखिर दो बार लगातार पार्टी का सत्ता से बाहर रहना और सूबों में भी कमजोर स्थिति के चलते क्या वे कार्यकर्ताओं में प्राण फूंक पाएंगी?
यहां प्रश्न यह भी उठता है, कि कांग्रेस अपनी वैचारिक जमीन पर कमजोर क्योंकर हुई? तो इसका एक ही जवाब है, कि कांग्रेस ने बदलाव को स्वीकार नहीं किया। जिस बदलाव को 1977 में हार के बाद इंदिरा गांधी ने परख लिया था, उस बदलाव को सोनिया गांधी नहीं भांप सकीं। मालूम हो, कि इंदिरा गांधी ने 1980 से पार्टी को एक खास विचारधारा से बाहर लाईं और वैश्विक परिवर्तन को समझ लिया था, कि कम्युनिस्ट दलों और उनकी आइडियोलाजी के भरोसे अब ज्यादा दिनों तक राज नहीं किया जा सकता। लेकिन उनकी मृत्यु के बाद उनके नासमझ पुत्र ने जिन नेताओं पर भरोसा किया, वे ही उन्हें ले डूबे। फिर नरसिंह राव और मनमोहन की टीम ने तो ग्लोबल लिबराइजेशन का वह दौर शुरू किया, कि आम जनता में कांग्रेस की छवि ही समाप्त हो गयी। इसके बाद फिर सीताराम केसरी का सनक भरा दौर तथा पुन: कांग्रेस की कमान नेहरू परिवार के हाथ। उस वक्त सोनिया ने माकपा के हरिकिशन सिंह सुरजीत से लेकर छोटे-छोटे दलों के साथ ऐसी रेल बनाई, कि 2004 में कांग्रेस मात्र 145 सीटें लेकर ही सत्ता में आ गयी। जबकि सत्ताधारी दल भाजपा उससे कुल सात सीट पीछे थी। किन्तु सोनिया का यूपीए काम कर गया। और कांग्रेस आठ साल बाद पुन: सत्ता में आ गयी। इसके बाद 2009 में कम्युनिस्ट दलों से दूर रह कर कांग्रेस ने और ज्यादा सीटें सीटें जीतीं। उसे तब 205 सीटें मिल गईं। यूपीए के दोनों ही कार्यकाल में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रहे। क्योंकि सोनिया की नजरों में वे सबसे काबिल थे। किन्तु चढ़ने-उतरने की कांग्रेसी नेताओं की कोशिश ने सारा खेल बिगाड़ दिया। नतीजा यह हुआ, कि 2014 में कांग्रेस कुल 44 सीटें जीत पाई। और 2019 में मात्र 52 सीटें।
इसके बाद दो अक्टूबर 2017 को कांग्रेस की कमान राहुल गांधी को मिली, किन्तु उनके पास न तो अनुभव था न ही सत्ता की हनक। इसलिए भले यह माना जाए, कि कर्नाटक, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में उन्होंने भाजपा को धूल चटाई, मगर लोकसभा में वे कुछ न कर सके। यह भाजपा और नरेंद्र मोदी की जीत थी, कि उन्होंने अपना शत्रु पैदा नहीं होने दिया, बल्कि स्वयं चुना। वे शत्रु थे राहुल गांधी, जिनको परस्त करना उसके लिए सबसे आसान था। राहुल गांधी न तो अपने अन्दर के शत्रुओं से मुकाबला कर सके, न बाहर के वे नरेंद्र मोदी के हाथों में खेलते रहे। जबकि इस युद्ध में नरेंद्र मोदी सबसे घाघ और मंजे हुए खिलाड़ी बनाकर उभरे। उन्होंने अपनी पार्टी के अन्दर के शत्रुओं को जिस निर्ममतापूर्वक कुचला, उसी कुशलता से कांग्रेस, सपा, राजद, बसपा और टीएमसी को निपटाया। यह नरेंद्र मोदी की सफलता रही, कि उन्होंने पश्चिम बंगाल में चिर विरोधी कम्युनिस्ट दलों के कार्यकर्ताओं को अपने साथ ले लिया। ममता बनर्जी की aसारी दावेदारी हवा हो गयी। अब कांग्रेस को अपने भीतर बदलाव लाना होगा। कांग्रेस एक ऐसी पार्टी रही है, जिसने मध्य मार्ग चुना ह। उसके भीतर हिंदू-मुस्लिम कट्टरपंथी भी रहे तो वामदली लोग भी, पर उसने अपना झुकाव किसी एक तरफ नहीं होने दिया, इसीलिए इंदिरा गांधी विपरीत परिस्थितियों में भी राज करती रहीं। पार्टी को अपना रास्ता बीच में से चुनना होगा। उसे न हिंदू परस्त दिखना होगा न मुस्लिम परस्त। साथ ही उसे गरीबों को मुफ्त दान के अतिरिक्त कुछ ठोस सुझाव देने होंगे, कि सबको रोजगार कैसे मिले? कैसे अर्थ-व्यवस्था सुधरे? सत्ता का लोकतंत्रीकरण कैसे हो? तब ही पार्टी अपने उद्देश्यों में सफल हो पाएगी। सोनिया गांधी में क्षमता है, अब देखना यह है, कि वह अपना प्रदर्शन कैसे कर पाती हैं।