महाराष्ट्र में मातोश्री क्या गठबंधन की राजनीति से इतर कोई नया फामूर्ला गढ़ेगी। भाजपा-शिवसेना की क्या तीन दशक पुरानी दोस्ती बिखर जाएगी। भाजपा-शिवसेना क्या तीसरे विकल्प की तरफ अपना कदम बढ़ाएंगे। भाजपा और शिवसेना क्या जनादेश को किनारे कर अगल-अगल रास्ते पर चलने को तैयार है। क्या भाजपा एनसीपी से सामर्थन लेकर सरकार बनाएगी। कांग्रेस क्या शिवसेना का बाहर से समर्थन करेगी। इस तरह के कई सवाल हैं। भाजपा और शिवसेना चुनाव युति कर भले लड़ा हो, लेकिन जमींनी सच्चाई यही है कि शिवसेना सरकार में रहकर भी विपक्ष की भूमिका निभाती रही और कई अहम मसलों पर वह फणनवीस सरकार के विरोध में खड़ी रही। शिवसेना का मुखपत्र सामना गठबंधन पर आग उगलता रहा है। भाजपा को सामना की टिप्पणियां नहीं पच रही हैं। दोनों दलों में तल्खी बढ़ गयी है। मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस ने साफ कर दिया है कि चुनाव पूर्व 50-50 का कोइ फामूर्ला नहीं तय किया गया था। जबकि शिवसेना इस बात पर अड़ी है कि राष्ट्रीय अध्यक्ष अमितशाह के बीच सत्ता में आधी भागीदारी की हिस्सेदारी तय हुई थी। जबकि मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस ने साफ कर दिया है कि अगले पांच साल तक भाजपा का मुख्यमंत्री राज्य में रहेगा। भाजपा विधायक दल की मीटिंग में मुख्यमंत्री देवेंद्र फणनवीस को नेता चुन लिया गया है। शिवसेना यह सब क्यों कर रही है। क्या उसने तय कर लिया है कि वह भाजपा के साथ नहीं जाएगी। अगर ऐसा नहीं हैं तो वह यह सियासी मंचन क्यों कर रही है। जबकि एनसीपी और कांग्रेस यह तय कर चुकी हैं कि वह प्रतिपक्ष की भूमिका निभाएगी। महाराष्ट्र की जनता ने जो जनादेश दिया है वह भाजपा और शिवसेना गठबंधन को दिया है। शिवसेना किस विकल्प की बात कर रही है। उसका इशारा साफ तौर पर शरद पवार की एनसीपी से है। क्योंकि अगर शिवसेना और एनसीपी आपस में मिल जाते हैं और कांग्रेस बाहर से समर्थन करती है तो आराम से सरकार बन जाएगी। लेकिन यह विकल्प भाजपा के पास भी है वह भी एनसीपी को मिलाकर राज्य में अपनी सरकार बना सकती है। लेकिन वास्तव में क्या शिवसेना अपनी अड़िगता कायम रख पाएगी। ऐसा लगता नहीं है। क्योंकि शिवसेना हर बार शर्तों का भारी पुलिंदा रखती है और रुठने-मनाने का दौर चलता है बाद में सब कुछ सामान्य हो जाता है। पांच साल सरकार भी चलती है। यह बात खुद शिवसेना नेता संजय राऊत ने साफ कर दिया है कि शिवसेना सिर्फ सत्ता कि नहीँ विचारों की राजनीति भी करती है।सत्ता के लिए कुछ भी करना लोकतंत्र की हत्या के सामान है। शिवसेना प्रवक्ता और राज्यसभा सासंद राऊत ने यहां तक कह डाला कि हरियाणा की तरह यहां कोई दुष्यंत नहीं है जिसका पिता जेल में हो। उसके पास विकल्प खुला है। सारी बात शिवसेना खुद कह रही है। अगर यही जमींनी सच्चाई है तो फिर वह नाटक क्यों कर रही है। वह जिस विकल्प की बात कर रही है क्या वह , एनसीपी के साथ पांच साल सरकार चला लेगी। क्या कांग्रेस के बगैर सरकार बनना संभव है। शिवसेना की सरकार क्या पांच साल का कार्यकाल पूरा कर लेगी। अगर ऐसा संभव नहीं है तो वह सियासी मंचन के सिवाय कुछ भी नहीं है।
राज्य में भाजपा सबसे बड़े दल के रुप में उभरी है। उसके पास 105 विधायक हैं। इसके पूर्व दोनों दलों के नेता राज्यपाल भगत सिंह कोशियारी से मिल चुके हैं। राज्य में आठ नवम्बर तक नयी सरकार बन जानी चाहिए। अभी सियासी नाटकबाजी का अच्छा मौका है। शिवसेना क्या आदित्य ठाकरे को राज्य का मुख्यमंत्री बनाना चाहती है। जिसकी वजह से वह 50-50 के फामूर्ले की बात कर रही है। दोनों दलों के बीच सीटों का बड़ा अंतर है। 2014 के चुनाव की अपेक्षा इस बार दोनों दलों की सीटें कम आयी हैं। भाजपा के पास 105 सीटें हैं जबकि उसके सेना के पास उसकी आधी यानी 56 सीटें हैं फिर भाजपा यह शर्त क्यों मानेगी। इतने बड़े दल होने के बाद वह क्यों झुकना चाहेगी। शिवसेना हर बार इस तरह का सियासी नाटक करती है। लेकिन बाद में वह फिसल जाती है। अगर आदित्य ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाने का ख्वाब पूरा नहीं हो पाया तो शिवसेना सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका वाले मंत्रालय चाहेगी। जिस पर भाजपा को समझौता करना पड़ेगा। क्योंकि ताली एक हाथ से नहीँ बजती। जनता ने जो जनादेश दिया है उसका दोनों को सम्मान करना होगा। भाजपा-शिवसेना को युति चलाने के लिए नरम रुख अख्तियार करना पड़ेगा।
भाजपा और शिवसेना नेताओं के बीच तल्खी बढ़ गयी है। भाजपा नेता संजय कांकड़े के एक कल्पनातीत बयान ने यह उलझन और बढ़ा दी है। उन्होंने यहां तक कह डाला कि शिवसेना के 40 से 45 विधायक भाजपा के संपर्क में हैं। फिलहाल कांकड़े के इस बयान में कोई जमींनी सच्चाई नहीं दिखती है। भाजपा राज्य में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की प्रभावशाली राजनीति की वजह से अपना अच्छा विस्तार कर लिया है। जबकि भाजपा को आगे बढ़ाने वाली शिवसेना ही है। बाला साहब ठाकरे की अंगुली पकड़ कर भाजपा आगे बढ़ी है। दक्षिण के राज्यों में भजपा का कोई अस्तित्व नहीं था। शहरी राजनीति में शिवसेना की पकड़ आज भी मजबूत है। शिवसेना का उभार पहले क्षेत्रिय संगठन के रुप में हुआ। बाला साहब ठाकरे कभी चुनाव नहीं लड़ा। लेकिन फैलती सियासी जमींन और राज्य में बढ़ती पैठ की वजह से ठाकरे परिवार राजनीति में आगे बढ़ा। बाला साहब के जाने के बाद अब उद्धव के बाद वह तीसरी पीढ़ी कि राजनीति कर रही है। लेकिन उसकी रणनीति कितनी कामयाब होगी, यह वक्त बताएगा। भाजपा नेता सुधीर के बयान विनाश काले विपरीत बुद्धि ने इस तल्खी को और बढ़ा दिया है। महाराष्ट्र में कांग्रेस आज भले हासिए पर है। लेकिन वह अपनी धर्म निरेपक्ष छबि को कभी नुकसान नहीं होने देगी। क्योंकि राज्य में एनसीपी से मिल कर उसने अच्छी राजनीति की है। 2019 के चुनाव में दोनों दलों ने बेहतर प्रदर्शन किया है। कांग्रेस और एनसीपी राज्य में विपक्ष की मजबूत भूमिका में हैं। इसलिए भजपा-शिवसेना सरकार को दमदार प्रतिपक्ष का सामना करना पड़ेगा। जहां तक तीसरे विकल्प की बात शिवसेना कर रही है।