Why question marks on the questions from government ?सरकार से सवालों पर सवालिया निशान क्यों?

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लोकतंत्र में मताधिकार के साथ-साथ सरकार से सवाल पूछने के अधिकार को भी काफी अहमियत दी जाती है। आजकल सवालों पर खड़े हो रहे सवालिया निशानों ने सबको सकते में डाल दिया है। पूछा जा रहा है कि आखिर सरकार से सवाल करने में लोग क्यों कतराते हैं? हालांकि इधर कुछ दिनों से यह चर्चा इसलिए गरम है क्योंकि भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी ने लोगों को सलाह दी है कि वे प्रधानमंत्री से खुलकर सवाल करें। इसके अलावा कर्नाटक के आईएएस अधिकारी शशिकांत सेंथिल ने लोकतंत्र का सवाल उठाते हुए शुक्रवार को अपने पद से इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा जिस प्रकार से लोकतंत्र के संस्थानों को दबाया जा रहा है, वैसे में मैं सिविल सर्विस में रहकर काम नहीं कर सकता। सेंथिल के इस्तीफे से समझा जा सकता है कि मामला कितना गंभीर है। इससे पहले एक और आईएएस अफसर कन्नन गोपीनाथन ने भी इस्तीफा दे दिया था।
सबसे पहले चर्चा भाजपा के वरिष्ठ नेता डॉ. मुरली मनोहर जोशी की। भारतीय जनता पार्टी के नेताओं को अपने समझदार बुजुर्ग डॉ. मुरली मनोहर जोशी के बताए रास्ते पर चलना चाहिए। पर उससे पहले खुद डॉ. जोशी को उस रास्ते पर खुद चलकर दिखाना चाहिए, जिस पर चलने की सलाह वे दूसरे लोगों को दे रहे हैं। दरअसल, उन्होंने कहा है कि मेरा मानना है कि ऐसे नेतृत्व की बहुत जरूरत है, जो बेबाकी से अपनी बात रखता हो, सिद्धांतों के आधार पर प्रधानमंत्री से बहस कर सकता हो, बिना किसी डर के और बिना इस बात की परवाह किए कि प्रधानमंत्री नाराज होंगे या खुश। इसकी शुरूआत उन्हें खुद करनी होगी। जो बोले, सो कुंडी खोले के अंदाज में वे बेखौफ होकर, निडर होकर अगर प्रधानमंत्री से अपनी बात कहते हैं तो इससे दूसरे नेताओं को प्रेरणा मिलेगी, नहीं तो उनकी बात पर उपदेश कुशल बहुतेरे की मिसाल बन कर रह जाएगी। डॉक्टर जोशी ने अपनी पार्टी के दो प्रधानमंत्रियों के साथ काम किया है। वे अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में मंत्री रहे हैं और नरेंद्र मोदी की सरकार बनने के बाद भी पांच साल तक सांसद रहे और संसद की इस्टीमेट कमेटी के अध्यक्ष थे। 2014 के लोकसभा चुनाव में उनकी वाराणसी सीट उनसे लेकर तब प्रधानमंत्री पद के दावेदार के रूप में चुनाव लड़ रहे नरेंद्र मोदी को दी गई थी और उनको कानपुर सीट से चुनाव लड़ना पड़ा था। ध्यान नहीं आता है कि इस जबरदस्ती के खिलाफ उन्होंने बेखौफ होकर प्रधानमंत्री के दावेदार से बहस की थी।
पांच साल तक उन्होंने सरकार के किसी काम पर सवाल नहीं उठाया। प्रधानमंत्री ने एकतरफा फैसला करके नोटबंदी लागू की। बिना पूरी तैयारी के हड़बड़ी में जीएसटी लागू किया। इन दो फैसलों की वजह से देश की आर्थिकी का भट्ठा बैठा हुआ है। क्या वे मानते हैं कि पिछले पांच साल में केंद्र सरकार ने कोई ऐसा काम ही नहीं किया, जिस पर उनको सवाल उठाना चाहिए था या विरोध करना चाहिए था? अगर सरकार इतनी ही अच्छी, सच्ची और काम करने वाली है तो फिर अब भी अच्छा ही काम कर रही होगी! सो, दूसरे नेताओं को ललकारने का कोई मतलब नहीं बनता है? वैसे भी इतनी लंबी राजनीतिक पारी खेलने और जीवन के 85 बसंत देखने के बाद जब खुद डॉक्टर जोशी प्रधानमंत्री से सवाल नहीं कर रहे हैं तो दूसरे नेताओं को सवाल क्यों करना चाहिए? या तो डॉक्टर जोशी पार्टी और सरकार के सारे फैसलों से सहमत हैं या सहमत नहीं हैं तब भी जो चल रहा उसे वैसे ही चलने देने के पक्षधर हैं, इसलिए इक्का-दुक्का अपवादों को छोड़कर खुद कभी बहस नहीं की या नाराजगी जाहिर नहीं की। सो, उन्हें क्यों दूसरे नेताओं को इस बात के लिए ललकारना चाहिए कि वे प्रधानमंत्री से निडर होकर बहस करें? जब डॉक्टर जोशी और लालकृष्ण आडवाणी जैसे बड़े नेता ने भी प्रधानमंत्री के किसी फैसले पर सवाल नहीं किया है। तो तय मानें कि दूसरा कोई नेता भी सवाल उठाने नहीं जा रहा है। विपक्ष के नेता बेखौफ होकर अपनी बात कह रहे हैं तो वह उनका काम है। पर वे भी अपनी पार्टी के सुप्रीमो के सामने निडर होकर तो क्या कैसे भी सवाल नहीं उठाते हैं।
डॉक्टर जोशी ने दूसरी बात यह कही कि राष्ट्रीय महत्व के मुद्दों पर पार्टी लाइन से ऊपर उठ कर चर्चा करने की परंपरा लगभग खत्म हो गई है, इसे फिर से शुरू करना होगा। सुनने में यह बात भी बहुत अच्छी लग रही है। पर क्या वे यह नहीं देख रहे हैं कि सरकार किस तरह से राजनीतिक बदले की भावना से काम कर रही है? विपक्षी पार्टियों के नेताओं के साथ सरकार का बरताव कैसा है? कैसे गड़े मुर्दे उखाड़े जा रहे हैं और केंद्रीय एजेंसियों का इस्तेमाल कर विपक्षी नेताओं को जेल भेजा जा रहा है? क्या उनकी पीढ़ी का कोई नेता यह सोच सकता था कि देश की मुख्य विपक्षी पार्टी को खत्म कर देने का एलान किया जाएगा? जब राजनीतिक माहौल इस कदर बिगड़ा हुआ है और नेता भय के साये में हैं तो कैसे विपक्ष के साथ संवाद की संस्कृति फलेगी फूलेगी? इसमें कोई संदेह नहीं है कि डॉक्टर जोशी अपने पूरे राजनीतिक जीवन में लोकतांत्रिक मूल्यों का पालन करते रहे हैं।
विरोधियों का सम्मान किया है और पद का दुरुपयोग नहीं किया है। जीवन भर साफ सुथरी राजनीति की है। पर अगर वे चाहते हैं कि बेखौफ होकर मौजूदा प्रधानमंत्री के या आगे के भी किसी प्रधानमंत्री के सामने बात की जाए तो इसकी शुरूआत उन्हीं को करनी होगी। लोग उनके आचरण को देखेंगे, उनके उपदेशों को नहीं। महात्मा गांधी ने उपदेश नहीं दिए थे। उन्होंने कहा था कि उनका जीवन, उनका आचरण ही उनका उपदेश है। सो, उपदेश देने और दूसरों से उस पर अमल करने की उम्मीद पालने से बेहतर है कि वे वैसा आचरण करें, जिसकी दूसरों से अपेक्षा करते हैं। अब बारी इस्तीफा देने वाले आईएएस अफसर की। बीजेपी सरकार में अधिकारियों के इस्तीफे का दौर जारी है। कर्नाटक के एक आईएएस अधिकारी ने इस्तीफा दे दिया है।
दक्षिण कन्नड़ जिले में डिप्टी कमिश्नर पद पर तैनात एस शशिकांत सेंथिल ने शुक्रवार को इस्तीफा दे दिया। उन्होंने कहा कि जब अनैतिक तरीके से लोकतंत्र के संस्थानों को दबाया जा रहा हो, ऐसे में मैं सिविल सर्विस में रहना अनैतिक समझता हूं। एस शशिकांत सेंथिल पिछले हफ्ते से छुट्टी पर थे। वह एसएम कृष्णा के दामाद वीजी सिद्धार्थ की आत्महत्या मामले की जांच भी कर रहे थे। एस शशिकांत के इस्तीफे के बाद लोकतंत्र पर सीधे पर प्रश्न उठ रहे हैं। एस शशिकांत 2009 बैच के आईएएस अधिकारी हैं और वे रहने वाले तमिलनाडु के हैं। उनके कार्यकाल की बात की जाए तो जून 2017 में दक्षिण कन्नड़ जिले के तौर उपायुक्त बनाया गया था। इससे पहले वह 2009 और 2012 में अन्य पद पर कार्यरत रहे हैं।
इससे पहले अगस्त के महीने में केरल के रहने वाले आईएएस अधिकारी कन्नन गोपिनाथन ने भी जम्मू-कश्मीर मसले के विरोध में अपना इस्तीफा दे दिया था। उन्होंने भी बोलने की आजादी को प्रमुख मुद्दा बनाया था। विशेष तौर पर दानह में 500 आदिवासी कर्मचारियों को नौकरी से निकालने और कश्मीर में लोगों को नजरबंद करने पर आपत्ति जताई थी। बहरहाल, मामला चाहे डॉक्टर मुरली मनोहर जोशी का हो या दोनों आईएएस अधिकारियों का, सवालों पर सवालिया निशान ठीक नहीं है। सवाल होते रहना चाहिए। इससे लोकतंत्र मजबूत होता है और कामकाज भी पारदर्शी होते हैं। खैर, देखना यह है कि आगे होता क्या है?
(लेखक आज समाज के समाचार संपादक हैं)
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