कल 21 अक्टूबर को महाराष्ट्र और हरियाणा विधानसभा के लिर चुनाव हो चुके हैं, अब मतगणना शेष है। पर इस चुनावो में प्रचार हेतु सत्तारूढ़ दल ने अपने एजेंडे में अनुच्छेद 370, सर्जिकल स्ट्राइक, सावरकर और कश्मीर तो रखा, पर महाराष्ट्र को हिला देने वाला बैंकिंग घोटाला, पीएमसी बैंक से जुड़े मसले और खाताधारकों की मौतें, पांव पसारती आर्थिक मंदी आदि जनता को सीधे प्रभावित करते हुए मुद्दे क्यों नहीं सत्तारूढ़ दल के एजेंडे में शामिल किए गए ? आज का विमर्श इसी विषय पर है।
राष्ट्र का सैन्यबल से मजबूत होना ही राष्ट्र निर्माण नहीं है। राष्ट्र की निर्मिति होती है राष्ट्र के नागरिकों के सुख सुविधा और समृद्धि के मापदंड से। एक मजबूत सैन्यबल भी धन चाहता है। बिना धन के कोई भी राष्ट्र बड़ा और मजबूत सैन्यबल की तो बात ही छोड़िये, एक छोटी मोटी सेना भी संभाल नहीं सकता है। आज भी जो देश सैन्यबल के आधार पर दुनिया मे अपना स्थान रखते हैं, वे आर्थिक दृष्टि और आर्थिक संकेतकों में भी एक विशिष्ट स्थान रखते हैं। चाहे अमेरिका हो, या रूस हो या चीन हो, इन सबकी आर्थिक हैसियत और इनकी सैन्य क्षमता का तुलनात्मक अध्ययन करें तो आप इसी निष्कर्ष पर पहुंचेंगे।
बात आज ग्लोबल हंगर इंडेक्स की है। 117 देशों में हमने 102 स्थान प्राप्त किया है। यह देश की आर्थिक नीतियों को बनाने और लागू करने वाले नीति नियंताओं की प्रतिभा और मेधा पर एक सवाल उठाता है। आर्थिक क्षेत्र के अन्य संकेतक चाहे वह विकास की दर से जुड़े हों, या मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से, या बैंकिंग सेक्टर से, या आयात निर्यात से या कर संग्रह से होने वाली सरकारी आय से, या बेरोजगारी से, या अन्य कोई भी अर्थ संकेतक यह संकेत नहीं दे रहा है कि आखिर हमने पिछले 6 सालों में क्या पाया। आर्थिक रूप से टूटता देश दुनियाभर के लिए एक आसान चारागाह बन जाता है। उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख कम होती जाती है और देश के अंदर असंतोष तो उपजता ही है। यह भी विडंबना है कि हनारे अन्न भंडार भरे पड़े हैं। वे मौसम और चूहों की मार से बर्बाद हो रहे हैं, और हम दुनिया के सबसे भूखे देशों में से एक है। इससे बड़ी विडंबना यह है कि साल दर साल भुखमरी में अव्वल पहुंचने के करीब होते हुए भी सत्ता और नीति नियंताओं को इसकी कोई चिंता भी नहीं दिख रही है।
हालांकि अभी यह स्थिति सुधारी जा सकती है। पर स्थिति बहुत बिगड़े, उस दशा में उस स्थिति पर पहुंचने के पहले ही अगर सरकार कोई सार्थक उपाय नहीं करती तो सिवाय अतीत को कोसने के कुछ भी शेष नहीं बचेगा। आज बैंकिंग सेक्टर से जुड़ी मुंबई से आने वाली चार मौतों की खबरें अगर आप को लगता है कि भविष्य के अशनि संकेत नहीं हैं तो आप आने वाले तूफान से अनभिज्ञ हैं। यह सभी सदमे से मरने या आत्महत्या करने वाले व्यक्ति कोई, आर्थिक हैसियत में किसी विपन्न या निम्न वर्ग के नहीं थे। एक के खाते में तो 90 लाख जमा थे। सोचिये जिसके खाते में 90 लाख जमा हों, वह कितनी निश्चितता से जीवन बिता सकता है ? पर 90 लाख रुपए रख कर भी, सिर्फ उसे वक्त पर न मिलने के कारण, उस व्यक्ति को आत्महत्या जैसे दु:खद मार्ग का सहारा लेना पड़ा। क्या यह सत्ता, बैंकिंग सेक्टर और हम सबके लिए शर्म की बात नहीं है।
यह बात पीएमसी बैंक की है। हम एक ऐसे वक्त में आ गए हैं जहां, विदर्भ के सूखा पीड़ित क्षेत्र का किसान भी पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर लेता है और मुंबई के एक बैंक में सुरक्षित निवेश से रखे हुए 90 लाख रुपए का खाताधारक भी आत्महत्या कर लेता है। पीएमसी बैंक के लोगों ने जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से अपनी समस्या का हल पूछा तो वे, टीवी पर सुरक्षा घेरे में भागती नजर आईं। उंस समय उनका बच निकलना भी उचित ही था। जब एक सामान्य खाताधारक को, उसके अपने ही पैसे के लिए जिसे वह एक विद्ड्रॉल स्लिप पर भर कर निकाल सकता है, देश के वित्तमंत्री से अपने ही जमा पैसों के निकालने लिए असहज भरे सवाल करना पड़ जाय और सरकार, बजाय इन सवालों के समाधान के, भागती नजर आये तो समझ लीजिए, या तो सरकार असंवेदनशील है या जिस आर्थिक और बैंकिंग दुरवस्था में खाताधारक आ गए हैं, उसे सुधारना उनके बस में नहीं है।
चार खाताधारकों की मौत, तीन को हार्ट अटैक, एक डॉक्टर ने की आत्महत्या! क्या यह खबर आक्रोशित नहीं करती हमें? पंजाब एंड महाराष्ट्र को-आॅपरेटिव (पीएमसी) बैंक घोटाले से पीड़ित एक और खाताधारक 59 साल के फत्तोमल पंजाबी की मंगलवार को हार्ट अटैक के कारण मौत हुई है। पीएमसी बैंक घोटाले के कारण बीते 24 घंटे में यह दूसरे खाताधारक की मौत है। यह सिलसिला यहीं थम जाय, हमें ऐसी आशा करनी चाहिए। इस असामयिक और दु:खद मृत्यु की जिम्मेदारी कौन लेगा। सरकार तो लेने से रही। उसने जब पुलवामा शहीदों के मृत्यु की जिम्मेदारी नहीं ली तो इन अभागे खाताधारकों की क्या जिम्मेदारी लेंगे। ईश्वर और नियति पर यह जुर्म चिपकाते जाइये। उन्हें आदत है यह सब देखने और देख कर भी चुप रह जाने की।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का बयान आया है कि बैंकिंग सेक्टर की इस दुरवस्था के लिए 2004 से 2014 तक का यूपीए, या डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार और डॉ. रघुरामराजन की आरबीआई गवर्नरशिप जिम्मेदार है। वित्तमंत्री के इस बयान को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। हो सकता है उनकी बात में दम हो और यूपीए सरकार ही इसके लिए जिम्मेदार हो। पर यह बयान आज 6 साल बाद आ रहा है। 2014 के तत्काल बाद जो आर्थिक सर्वेक्षण सरकार बजट के पहले संसद में पेश करती है, तब तो सरकार ने यह बात कही नहीं। 2014 के बाद 2019 तक लगातार 6 बजट यह सरकार पेश कर चुकी है पर यह बात न तब कही गई और न बैंकों के दुरवस्था को रोकने के लिए सरकार ने कोई उपाय किए। हर सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार के कामकाज पर सवाल उठाती है। यह एक मानवीय कमजोरी है। नौकरशाही में भी यही होता है। हम भी नौकरी में थे तो, यही कहते और सुनते थे कि खराब कानून व्यवस्था हमें विरासत में मिली है और अब जाकर तो कुछ ठीक ठाक हुआ है। पर यह बहाना भी लंबा नहीं चलता था। पर यहां तो सरकार इसे 6 साल से खींच रही है और सरकार के समर्थक तो सोशल मीडिया पर लगातार यही तर्क दे रहे हैं कि पिछला कूड़ा साफ किया जा रहा है।
आज के वित्तमंत्री के इस बयान पर कि, बैंकिंग सेक्टर को सबसे अधिक नुकसान मनमोहन सिंह और रघुरामराजन के कार्यकाल में हुआ है, मेरा यह कहना है कि, सरकार 2004 से 2019 तक सभी बैंकों के बारे में एक श्वेतपत्र जारी करे। श्वेतपत्र में साफ साफ यह बाताइए कि किस साल किस किस संस्थान को कितना रुपया ऋण दिया गया था। किसके सिफारिश पर ऋण दिया गया, और बैंक के किस अधिकारी ने केवल सिफारिश पर ही ऋण दे दिया। कितनों के ऋण समय पर वापस नहीं आये। ऋण न आने पर क्या कार्यवाही की जानी चाहिए थी जो नहीं की गई। एनपीए क्यों हुए और इसके लिए किसकी जिम्मेदारी है। सिफारिश पर अपात्र को ऋण देने के मामले या बड़ी राशि के ऋण को डिफॉल्ट करने के मामले में बैंक या सरकार के वित्त मंत्रालय या पीएमओ की कितनी भूमिका है। आज तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी सरकार ने रघुरामराजन तत्कालीन आरबीआई गवर्नर, द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई उन बड़े लोन डिफॉल्टर्स की सूची सार्वजनिक नहीं की है। क्यों उनके नाम सार्वजनिक करने से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है।
बात आज ग्लोबल हंगर इंडेक्स की है। 117 देशों में हमने 102 स्थान प्राप्त किया है। यह देश की आर्थिक नीतियों को बनाने और लागू करने वाले नीति नियंताओं की प्रतिभा और मेधा पर एक सवाल उठाता है। आर्थिक क्षेत्र के अन्य संकेतक चाहे वह विकास की दर से जुड़े हों, या मैन्युफैक्चरिंग सेक्टर से, या बैंकिंग सेक्टर से, या आयात निर्यात से या कर संग्रह से होने वाली सरकारी आय से, या बेरोजगारी से, या अन्य कोई भी अर्थ संकेतक यह संकेत नहीं दे रहा है कि आखिर हमने पिछले 6 सालों में क्या पाया। आर्थिक रूप से टूटता देश दुनियाभर के लिए एक आसान चारागाह बन जाता है। उसकी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर साख कम होती जाती है और देश के अंदर असंतोष तो उपजता ही है। यह भी विडंबना है कि हनारे अन्न भंडार भरे पड़े हैं। वे मौसम और चूहों की मार से बर्बाद हो रहे हैं, और हम दुनिया के सबसे भूखे देशों में से एक है। इससे बड़ी विडंबना यह है कि साल दर साल भुखमरी में अव्वल पहुंचने के करीब होते हुए भी सत्ता और नीति नियंताओं को इसकी कोई चिंता भी नहीं दिख रही है।
हालांकि अभी यह स्थिति सुधारी जा सकती है। पर स्थिति बहुत बिगड़े, उस दशा में उस स्थिति पर पहुंचने के पहले ही अगर सरकार कोई सार्थक उपाय नहीं करती तो सिवाय अतीत को कोसने के कुछ भी शेष नहीं बचेगा। आज बैंकिंग सेक्टर से जुड़ी मुंबई से आने वाली चार मौतों की खबरें अगर आप को लगता है कि भविष्य के अशनि संकेत नहीं हैं तो आप आने वाले तूफान से अनभिज्ञ हैं। यह सभी सदमे से मरने या आत्महत्या करने वाले व्यक्ति कोई, आर्थिक हैसियत में किसी विपन्न या निम्न वर्ग के नहीं थे। एक के खाते में तो 90 लाख जमा थे। सोचिये जिसके खाते में 90 लाख जमा हों, वह कितनी निश्चितता से जीवन बिता सकता है ? पर 90 लाख रुपए रख कर भी, सिर्फ उसे वक्त पर न मिलने के कारण, उस व्यक्ति को आत्महत्या जैसे दु:खद मार्ग का सहारा लेना पड़ा। क्या यह सत्ता, बैंकिंग सेक्टर और हम सबके लिए शर्म की बात नहीं है।
यह बात पीएमसी बैंक की है। हम एक ऐसे वक्त में आ गए हैं जहां, विदर्भ के सूखा पीड़ित क्षेत्र का किसान भी पेड़ से लटक कर आत्महत्या कर लेता है और मुंबई के एक बैंक में सुरक्षित निवेश से रखे हुए 90 लाख रुपए का खाताधारक भी आत्महत्या कर लेता है। पीएमसी बैंक के लोगों ने जब वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण से अपनी समस्या का हल पूछा तो वे, टीवी पर सुरक्षा घेरे में भागती नजर आईं। उंस समय उनका बच निकलना भी उचित ही था। जब एक सामान्य खाताधारक को, उसके अपने ही पैसे के लिए जिसे वह एक विद्ड्रॉल स्लिप पर भर कर निकाल सकता है, देश के वित्तमंत्री से अपने ही जमा पैसों के निकालने लिए असहज भरे सवाल करना पड़ जाय और सरकार, बजाय इन सवालों के समाधान के, भागती नजर आये तो समझ लीजिए, या तो सरकार असंवेदनशील है या जिस आर्थिक और बैंकिंग दुरवस्था में खाताधारक आ गए हैं, उसे सुधारना उनके बस में नहीं है।
चार खाताधारकों की मौत, तीन को हार्ट अटैक, एक डॉक्टर ने की आत्महत्या! क्या यह खबर आक्रोशित नहीं करती हमें? पंजाब एंड महाराष्ट्र को-आॅपरेटिव (पीएमसी) बैंक घोटाले से पीड़ित एक और खाताधारक 59 साल के फत्तोमल पंजाबी की मंगलवार को हार्ट अटैक के कारण मौत हुई है। पीएमसी बैंक घोटाले के कारण बीते 24 घंटे में यह दूसरे खाताधारक की मौत है। यह सिलसिला यहीं थम जाय, हमें ऐसी आशा करनी चाहिए। इस असामयिक और दु:खद मृत्यु की जिम्मेदारी कौन लेगा। सरकार तो लेने से रही। उसने जब पुलवामा शहीदों के मृत्यु की जिम्मेदारी नहीं ली तो इन अभागे खाताधारकों की क्या जिम्मेदारी लेंगे। ईश्वर और नियति पर यह जुर्म चिपकाते जाइये। उन्हें आदत है यह सब देखने और देख कर भी चुप रह जाने की।
वित्तमंत्री निर्मला सीतारमण का बयान आया है कि बैंकिंग सेक्टर की इस दुरवस्था के लिए 2004 से 2014 तक का यूपीए, या डॉ. मनमोहन सिंह की सरकार और डॉ. रघुरामराजन की आरबीआई गवर्नरशिप जिम्मेदार है। वित्तमंत्री के इस बयान को हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। हो सकता है उनकी बात में दम हो और यूपीए सरकार ही इसके लिए जिम्मेदार हो। पर यह बयान आज 6 साल बाद आ रहा है। 2014 के तत्काल बाद जो आर्थिक सर्वेक्षण सरकार बजट के पहले संसद में पेश करती है, तब तो सरकार ने यह बात कही नहीं। 2014 के बाद 2019 तक लगातार 6 बजट यह सरकार पेश कर चुकी है पर यह बात न तब कही गई और न बैंकों के दुरवस्था को रोकने के लिए सरकार ने कोई उपाय किए। हर सरकार अपने पूर्ववर्ती सरकार के कामकाज पर सवाल उठाती है। यह एक मानवीय कमजोरी है। नौकरशाही में भी यही होता है। हम भी नौकरी में थे तो, यही कहते और सुनते थे कि खराब कानून व्यवस्था हमें विरासत में मिली है और अब जाकर तो कुछ ठीक ठाक हुआ है। पर यह बहाना भी लंबा नहीं चलता था। पर यहां तो सरकार इसे 6 साल से खींच रही है और सरकार के समर्थक तो सोशल मीडिया पर लगातार यही तर्क दे रहे हैं कि पिछला कूड़ा साफ किया जा रहा है।
आज के वित्तमंत्री के इस बयान पर कि, बैंकिंग सेक्टर को सबसे अधिक नुकसान मनमोहन सिंह और रघुरामराजन के कार्यकाल में हुआ है, मेरा यह कहना है कि, सरकार 2004 से 2019 तक सभी बैंकों के बारे में एक श्वेतपत्र जारी करे। श्वेतपत्र में साफ साफ यह बाताइए कि किस साल किस किस संस्थान को कितना रुपया ऋण दिया गया था। किसके सिफारिश पर ऋण दिया गया, और बैंक के किस अधिकारी ने केवल सिफारिश पर ही ऋण दे दिया। कितनों के ऋण समय पर वापस नहीं आये। ऋण न आने पर क्या कार्यवाही की जानी चाहिए थी जो नहीं की गई। एनपीए क्यों हुए और इसके लिए किसकी जिम्मेदारी है। सिफारिश पर अपात्र को ऋण देने के मामले या बड़ी राशि के ऋण को डिफॉल्ट करने के मामले में बैंक या सरकार के वित्त मंत्रालय या पीएमओ की कितनी भूमिका है। आज तक सुप्रीम कोर्ट के निर्देश के बाद भी सरकार ने रघुरामराजन तत्कालीन आरबीआई गवर्नर, द्वारा प्रधानमंत्री कार्यालय को भेजी गई उन बड़े लोन डिफॉल्टर्स की सूची सार्वजनिक नहीं की है। क्यों उनके नाम सार्वजनिक करने से सरकार को क्या नुकसान हो सकता है।