चंडीगढ़ की प्रसिद्धि के दो प्रमुख कारण हैं। पहला कारण तो यह है कि एक आदर्श शहर है जिसे योजनाबद्ध ढंग से विकसित किया गया, जिसके कारण इसके लगभग हर सेक्टर में रोजमर्रा की आवश्यक सुविधाएं उपलब्ध हैं और यह एक छोटा-सा किंतु साफ और सुविधाजनक शहर है। इस कारण इसे भारत भर में जाना जाता है। परंतु दूसरा कारण ज्य़ादा बड़ा है जिसके कारण चंडीगढ़ को विश्वव्यापी प्रसिद्धि मिली और वह कारण है चंडीगढ़ में पद्मश्री नेकचंद की अनूठी और अनमोल कृति रॉक गार्डन।
रॉक गार्डन के कारण दुनिया भर से पर्यटक चंडीगढ़ आते हैं। विश्व भर के पर्यटक रॉक गार्डन से अभिभूत होते हैं, इसकी प्रशंसा के कसीदे पढ़ते हैं और रॉक गार्डन अपने उद्घाटन से लेकर आज तक चंडीगढ़ प्रशासन के लिए आय का भी स्रोत रहा है। बहुत सी जगहों पर रॉक गार्डन की प्रतिकृतियां बनाने के प्रस्ताव आये पर अपने देश में उनमें से कोई भी प्रस्ताव सिरे नहीं चढ़ा। यही नहीं, नब्बे के दशक में एक ऐसा समय भी आया जब कुछ आईएएस अधिकारियों ने रॉक गार्डन के बीच से सड़क निकाल कर इसकी छवि नष्ट करने का जी-तोड़ प्रयास किया।
उस दौरान मीडिया की सावधानी के कारण वह दुष्चक्र सफल नहीं हो सका पर श्री नेक चंद को उससे पहले और उसके बाद भी प्रताड़ित करने के कई प्रयत्न हुए। उन्हें रॉक गार्डन का निदेशक तो शुरू में ही बनाया गया पर उनके प्रयासों की सराहना में सरकार की ओर से उन्हें अन्य पुरस्कार बहुत बाद में दिये गए। यह विवरण देने का आशय सिर्फ इतना है कि हमारे देश में बहुत बार अच्छा काम करने वाले को भी अक्सर समय पर सरकारी प्रोत्साहन नहीं मिलता और कई बार तो कुछ एनजीओ या समाज के कुछ निहित स्वार्थी तत्व ही अच्छे और अभिनव कामों का विरोध करने लगते हैं।
केरल के शहर तिरुअनंतपुरम में भी एक ऐसा अभिनव काम हुआ है जिससे रॉक गार्डन की शुरूआती परिस्थितियों की याद हो आती है। तिरुअनंतपुरम में कूड़ा-कर्कट प्रबंधन की समस्या विकराल थी और इसके निपटान के लिए पास के एक गांव में वेस्ट ट्रीटमेंट प्लांट लगाया जाने लगा तो गांव वाले आंदोलन पर उतर आये। आंदोलन अंतत: हिंसक हो गया तो सरकार को अपनी योजना अधर में ही छोड़नी पड़ी। इसके बाद केरल के एक एनजीओ सुचित्व मिशन ने इस समस्या के हल का बीड़ा उठाया और तिरुअनंतपुरम का ठोस कूड़ा लेकर उसे जमीन की भरती के रूप में प्रयोग करने की योजना बनाई। इस योजना के फलस्वरूप आज तिरुअनंतपुरम में एक 40 मीटर लंबा रेलवे प्लेटफार्म अस्तित्व में आया है जहां जमीन की भरती के रूप में कूड़े का प्रयोग किया गया है।
इससे एक तो भरती की समस्या का हल हुआ दूसरे भारी मात्रा में कूड़े का स्थाई निपटान भी संभव हो सका। चूंकि कूड़े के ऊपर सुंदर टाइलें लग गई हैं अत: उन टाइलों के नीचे कूड़ा होने से न गंदगी फैलती है, न बदबू आती है और न ही यह ख्याल आता है कि इन सुंदर टाइलों के नीचे कूड़े की भरती की गई हो सकती है। इस दक्षिणी शहर का यह सुंदर प्लेटफार्म 40 मीटर लंबा और 6 मीटर चौड़ा है। देश भर में यह अपने तरह का पहला और अकेला रेलवे प्लेटफार्म है। इस योजना के कार्यान्वयन के लिए राज्य और रेलवे में एक समझौता हुआ। इस करार के तहत तिरुअनंतपुरम नगर निगम ने कूड़ा और लाल मिट्टी उलब्ध करवाई।
मुरुकुमपुझा स्थित इस रेलवे प्लेटफार्म के निर्माण के लिए 600 टन कूड़ा प्रयोग में लाया गया। मूल योजना के मुताबिक यह प्लेटफार्म 540 मीटर लंबा बनना था पर स्थानीय लोगों के विरोध के कारण यह सिर्फ 40 मीटर की लंबाई तक ही बनाया जा सका। उल्लेखनीय है कि भरती के रूप में कूड़े का प्रयोग कूड़े के निपटान का सर्वाधिक सुरक्षित तरीका माना जाता है। अमरीका का लगभग 55 प्रतिशत कूड़ा और इंग्लैंड का लगभग 90 प्रतिशत कूड़ा इसी विधि से निपटाया जाता है और इन दोनां देशों में यह परंपरा लंबे समय से चली आ रही है। इस निर्माण प्रक्रिया में निर्माण स्थल पर प्लास्टिक की मोटी शीट बिछाई जाती है और इस पर 30 सेंटीमीटर ऊंचाई के ठोस कूड़े की परत बिछाई जाती है।
इसके बाद फिर प्लास्टिक की शीट और उसके ऊपर कूड़े का बिछान तब तक जारी रहता है जब तक कि वह स्थान वांछित ऊंचाई तक न आ जाए। उसके बाद ऊपर लाल मिट्टी बिछाने के बाद सौंदर्यीकरण के लिए पत्थर या टाइलें लगा दी जाती हैं। इस तरह से इस परियोजना में रेलवे को 10 लाख से अधिक रुपयों की बचत हुई और उत्साहित रेलवे अधिकारी अब पास के एक और रेलवे स्टेशन कोचुवेली में भी कूड़े की भरती से बने प्लेटफार्म के निर्माण की तैयारी कर रहे हैं। इसके साथ ही वे मुरुकुमपुझा के प्लेटफार्म का शेष 500 मीटर का हिस्सा भी बनाना चाहते हैं।
इसी तरह से तमिलनाडु सीमा के साथ सटे एक और रेलवे स्टेशन पारसल्ला का प्लेटफार्म भी बनाना चाहते हैं। परंतु यह खेद की बात है कि ऐसे हर काम में कभी वरिष्ठ प्रशासनिक अधिकारी ऐसी योजनाओं की उपयोगिता नहीं समझ पाते और कभी कोई निहित स्वार्थों वाली संस्था लोगों में भ्रम फैला देती है और काम अटक जाते हैं, विकास रुक जाता है। सुचित्व मिशन के अधिकारियों का कहना है कि यह विधि पर्यावरण रक्षा के लिए उपयोगी और सटीक है तथा इसे बड़े स्तर पर अपनाया जाना चाहिए।
हमारे देश में अव्वल तो प्रशासनिक अधिकारी ही इतनी अड़चनें डालते हैं कि कोई काम करना मुश्किल हो जाता है और यदि किसी तरह से प्रशासनिक मंजूरी मिल जाए तो कई दूसरी सामाजिक अथवा स्वयंसेवी संस्थाएं काम के गुण दोष का सही विश्लेषण किये बिना ऐतराज करने लगती हैं। कई बार तो यह विश्लेषण जानबूझकर इस तरह से पेश किया जाता है जो तथ्यों के विपरीत होता है उसके बावजूद समाज का एक तबका उनके साथ आ जाता है और इस प्रकार विकास बाधित होता है जिसका नुकसान अंतत: स्थानीय जनता को ही होता है। यह एक ऐसा दुष्चक्र है जिससे हम निकल नहीं पाये हैं। इस दुष्चक्र से निकलने के लिए अभी हमारे देश में इसके लिए कोई सुव्यवस्थित सिस्टम नहीं है और हम इसी का खामियाजा भुगत रहे हैं। अशिक्षा, अज्ञान, अहंकार और निहित स्वार्थों के साथ-साथ प्रशासनिक लापरवाही भी विकास को बाधित करती है।
(लेखक मोटिवेशनल एक्सपर्ट हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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