Why Congress Lost Haryana | अजीत मेंदोला | नई दिल्ली । कांग्रेस के सर्वोच्च नेता राहुल गांधी अगर हरियाणा की हार की असल वजह जानना चाहते हैं तो उन्हें चुनाव हारने वाले नेताओं से एक एक कर मिल सच्चाई पूछनी चाहिए। सभी नेताओं से न मिल पा रहे हों तो अपनी पार्टी के चुनिंदा 10 से 12 हारने वाले प्रमुख नेताओं से जरूर मिलें।
ऐसा हरियाणा की हार से दुखी कई नेताओं का कहना है। वर्ना जैसे और राज्यों की हार की वजह का आज तक पता नहीं चला उसी तरह हरियाणा की हार के कारण कभी पता नहीं चल पाएगा। पिछले साल राजस्थान जैसे महत्वपूर्ण राज्य की हार के कारणों का पता लगाया जाता तो हरियाणा बच जाता।
राजस्थान में भी गैरों से ज्यादा अपनों ने ही हराने की कोशिश की। वह चाहते नहीं थे अशोक गहलोत सरकार रिपीट हो। नतीजा पार्टी चुनाव हार गई। राजस्थान कांग्रेस के लिहाज से बड़ा महत्वपूर्ण राज्य था। अगर कांग्रेस अकेले राजस्थान जीत जाती तो देश की राजनीति अलग तरह की हो जाती।
संयोग देखिए राजस्थान की हार के समय भी वहीं टीम दिल्ली में सक्रिय थी जो अभी हरियाणा के समय सक्रिय थी। संगठन महासचिव के सी वेणुगोपाल, अजय माकन, जयराम रमेश आदि। कांग्रेस में आज तक एक भी हार की जिम्मेदारी किसी पर तय नहीं की। राजस्थान के बाद हरियाणा दूसरा ऐसा राज्य था जो जीतने पर कांग्रेस को उसका रुतबा पूरी तरह से वापस लौटा देता।
क्योंकि लोकसभा में 99 सीटें जीतने से कांग्रेसी उत्साहित थे। लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेता और पार्टी जिन पर सबसे ज्यादा भरोसा कर रही थी पूर्व सीएम भूपेंद्र सिंह हुड्डा खुद ही सवालों के घेरे में आ गए। अपने तो कह रहे थे किसान नेता प्रधान गुरनाम सिंह चढूनी ने पूरी पोल खोल कर रख दी।
उनके बयान से यह तो साबित हो गया कि किसान आंदोलन किसके इशारे पर हुआ था। दूसरा चढूनी ने हुड्डा पर जिस तरह के गंभीर आरोप लगाए उससे भी यही संकेत मिले हैं हुड्डा ने ही गड़बड़ी कराई। पार्टी ईवीएम में गड़बड़ी की जो भी बात कर ले, लेकिन धीरे धीरे कारण कुछ और निकल रहे हैं।
पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा विरोधियों के सीधे निशाने पर आ गए हैं। हार के लिए पूरी तरह से हुड्डा और उनके परिवार को जिम्मेदार ठहराया जा रहा है। कई सीटों पर हुई हार के पीछे गैर नहीं अपने ही जिम्मेदार माने जा रहे है। पार्टी सांसद सैलजा, रणदीप सिंह सुरजेवाला से तो भय था ही साथ ही इनके करीबी कुछ नेताओं को भी टारगेट कर हरवाने की रिपोर्ट आ रही है। उचाना और गन्नौर सीट उदाहरण मात्र हैं। उचाना से महज 32 वोटों से हारे बृजेंद्र सिंह ने ईवीएम पर सवाल उठाने के बजाए हार की वजह पर्दे के पीछे की साजिश बताया।
रणनीति यह थी कि विरोधियों को किसी भी तरह हराया जाए। कई सीटों पर एक जाति समुदाय के वोट काटने के लिए दो-दो निर्दलीय लड़वाए गए। गन्नौर से वरिष्ठ नेता कुलदीप शर्मा की हार के पीछे भी साजिश ही बताई जा रही। साजिश गैरों ने नहीं अपनों ने की। दरअसल हुड्डा और उनके समर्थकों को लगा कि प्रदेश की बीजेपी सरकार के खिलाफ जबरदस्त एंटी इनकंबेसी है।
उनके नाम की आंधी चल रही है। आलाकमान को भी समझा दिया कि आंधी चल रही है। चिंता की कोई बात नहीं है हमारे हिसाब से टिकट बांटे जाएं। आलाकमान के करीबी नेताओं को भरोसे में ले 72 से ज्यादा टिकट ले लिए। इसके बाद जब नामांकन की प्रक्रिया शुरू हुई तो दिल्ली के कुछ नेताओं को लग गया था गड़बड़ी हो गई।
नाम वापस लेने के बाद प्रभारी दीपक बाबरिया को कुछ नेताओं ने बता भी दिया था कि 45 से कम सीट लाने का मामला दिख रहा है। मतलब जबरन निर्दलीय लड़वाए जा रहे हैं। एक कारण यह भी है कि कांग्रेस ने दलित और जाटों के वोटों की खातिर अगड़ी जाति की पूरी तरह से अनदेखी कर दी। जिसका खामियाजा उसे भुगतना पड़ा।
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