मैं जब भी विनोद जोशी को इस तरह से एक सार्वजनिक पार्क की साफ़-सफ़ाई करते देखता हूँ, अभिभूत हो जाता हूँ। विनोद का यह निजी पार्क नहीं है, न वे कोई निठल्ले व्यक्ति हैं। भारत सरकार में पदस्थ अधिकारी हैं, किंतु जब भी वे घर पर रहते हैं, इस सार्वजनिक पार्क की सफ़ाई में लगे रहते हैं। पार्क सबके लिए है, जो चाहे यहाँ आए, घूमे, कसरत करे अथवा बैडमिंटन खेले, किसी को ऐतराज नहीं। पर इस जंगल को इतनी खूबसूरत वाटिका में बदलने का श्रेय विनोद और उनकी टीम को है। उनकी इस टीम ने दिखा दिया है, कि लोग अपने बूते भी अपने आस-पास के इलाक़े को हरा-भरा बना सकते हैं।
यह राजधानी दिल्ली से सटा उत्तरप्रदेश के ग़ाज़ियाबाद ज़िले का वसुंधरा इलाक़ा है। जब कभी सरकारें लोक कल्याण पर ज़ोर देती थीं और यह पूरी ज़मीन कृषि की थी। तब यहाँ से एक नहर गुजरती थी और आसपास की खेती की ज़मीन को सिंचित करती हुई यमुना नदी में जाकर मिल जाती थी। नहर हिंडन बैराज से निकल कर चिल्ला रेगुलेटर के पास यमुना में मिलती थी। किंतु दिल्ली विकास प्राधिकरण, ग़ाज़ियाबाद विकास प्राधिकरण और उत्तर प्रदेश आवास विकास ने इसके दोनों तरफ़ के हिस्सों की ज़मीन अधिग्रहीत कर ली। और रिहायशी कॉलोनियाँ बना दीं। तब नहर नाले में तब्दील हो गई और नहर के दोनों तरफ़ के जंगल में मंदिर, गुरुद्वारे, चर्च का क़ब्ज़ा हो गया। कहीं राम मंदिर तो कही शिवालय, कहीं हनुमान जी विराजे हैं तो कही राधा-कृष्ण। नवबौद्धों ने भी क़ब्ज़ा किया तथा गुरुद्वारे भी खुले। गिरिजा घर और साईं मंदिर भी। नहीं बना तो कोई हरा-भरा पार्क। इसी जंगल में से इस टीम ने एक पार्क की व्यवस्था कर ली।
सच बात तो यह है, कि इस देश में सरकार ही सबसे बड़ी भू-माफिया है। आज़ादी के बाद से लगातार विकास के नाम पर सरकारों ने जंगल कटवाए, ज़मीन पर क़ब्ज़ा किया और पानी पर टैक्स बांधा। हो सकता है, कुछ दिनों में हवा पर भी कर भुगतान करना पड़ा। हर साल सितंबर की शुरुआत से दिल्ली और उसके आसपास के शहरों का आसमान धुँधुआने लगता है। प्रदूषण के कारण साँस लेना मुश्किल हो जाता है। इससे निपटने के लिए सरकार ने नेशनल ग्रीन ट्रिब्यूनल (एनज़ीटी) बनाया और उसने निष्कर्ष दिया, कि पूरे एनसीआर में दस साल पुरानी डीज़ल गाड़ियाँ और 15 साल पुरानी पेट्रोल गाड़ी पर प्रतिबंध लगा दो, प्रदूषण दूर हो जाएगा। इतना सब करने के बाद भी प्रदूषण का स्तर नहीं घटा। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने आड-इवेन का फ़ार्मूला निकाला, यानी सड़कों पर एक दिन सिर्फ़ आड (विषम) नम्बरों की गाड़ियाँ चलेंगी और एक दिन इवेन (सम) नंबरों की गाड़ियाँ चलेंगी। किंतु यह फ़ार्मूला भी नौटंकी ही साबित हुआ। प्रदूषण नहीं घटा उल्टे और बढ़ा, क्योंकि लोग दो-दो गाड़ियाँ रखने लगे। एक आड नंबर की और दूसरी इवेन नंबर की। इसके अलावा कार निर्माताओं की चांदी हुई। लोग जल्दी-जल्दी कार ख़रीदने लगे। तब फिर इस क़वायद का लाभ क्या हुआ, यह प्रश्न आज तक अनुत्तरित है।
दरअसल विकास के नाम पर देश की प्राकृतिक संपदा का इतना अधिक दोहन हुआ है, कि हम प्रकृति को ही भूल गए। प्रकृति की उपयोगिता और जीवन में उसकी अनिवार्यता दोनों को ही विस्मृत कर बैठे। नतीजा यह है, कि कहीं प्रदूषण है तो कहीं बाढ़ अथवा सूखा। हमने स्मार्ट सिटी बनाने के ख़्वाब तो दिखाए, किंतु सिर्फ़ काग़ज़ों पर। कुछ गिने-चुने शहरों में आबादी का दबाव बढ़ता गया। लोग गाँवों से भाग-भाग कर इन्हीं शहरों में आने लगे, नतीजा यह हुआ कि हम हरियाली को भूल गए। बहुमंज़िले अपार्टमेंट्स में कबूतर के दड़बों मानिंद घरों में हरियाली आए भी तो कहाँ से! ऐसे में इस तरह के लोग ही कुछ कर सकते हैं। प्रकृति अपने साथ बायो डायवर्सिटी लेकर चलती है, यानी जैव विविधता। जहां भी यह जैव विविधता नहीं होती, वहाँ-वहाँ जीवधारी नहीं रह पाते। रेगिस्तान और बर्फ़ से आच्छादित हिमस्थान इसके नमूने हैं। जीव वहीं रह सकता है, जहां विविधता हो। यह विविधता ही जीवों को निरोग बनाती है। क्योंकि हर वनस्पति और प्रकृति में पनपी हर वस्तु अपने साथ अपनी उपयोगिता भी लिए रहती है। यह उपयोगिता साड़ियों के अभ्यास से पता चलती है। मनुष्य जब जंगल वासी था, तब उसने प्रकृति की हर वस्तु की यह उपयोगिता समझी थी। यही कारण है, कि प्रकृति के साथ रहने वाला मनुष्य अपना जीवन प्रकृति के अनुरूप ढाल लेता है।
जो लोग पहाड़ी प्रांतों में रहते हैं, उन्हें वहाँ के पौधों की उपयोगिता और औषधीय गुण पता होते हैं। क्योंकि वे उन पर ही निर्भर हैं। आधुनिक चिकित्सा पद्धतियाँ वहाँ आसानी से उपलब्ध नहीं हैं। इसके अतिरिक्त मैदानी इलाक़ों की तरह वहाँ हर तरह का आनाज नहीं पैदा होता। इसलिए उनके खान-पान में पहाड़ी फल और सहज उत्पन्न हो सकने वाले आनाज की प्रचुरता होती है। इसी तरह समुद्र तटवर्ती इलाक़ों में मछली सहज उपलब्ध है और इसके अलावा चावल। चावल में कार्बोहाईड्रेट्स बहुत ज़्यादा है, तो मछली में प्रोटीन। इन दोनों को खाने से शरीर की ज़रूरतें पूरी हो जाती हैं। इसके विपरीत मैदानी पर गर्म इलाक़ों में मछली के स्थान पर अरहर की दाल आ जाती है। पंजाब में बाजरा और मक्का तथा सरसों का साग। मक्के की तासीर ठंडी होती है तथा सरसों की गर्म। रेगिस्तानी इलाक़ों में बाजरा व उड़द की दाल तथा पर्याप्त मात्रा में घी। यानी जिस क्षेत्र की जैसी प्रकृति वैसी ही वहाँ की खान-पान पद्धति। खान-पान की यह शैली ही आपको स्वस्थ रखती है। लाखों वर्ष के अनुभव से मनुष्य ने यह नैसर्गिक प्रतिभा प्राप्त की है। यूँ प्रकृति में मनुष्य ही ऐसा प्राणी है, जो मांसाहारी और शाकाहारी दोनों है। उसके दांत, उसकी आँत दोनों ही क़िस्म के आहार को पचाने में सक्षम हैं। किंतु फिर भी भौगोलिक व जलवायु के अनुरूप भोजन ही मनुष्य को स्वस्थ रखता है। घाव, चोट और बीमारी को दूर करने में भी उस क्षेत्र विशेष की प्रकृति सहायक होती