गुरुवार की रात आठ बजे प्रधानमंत्री के ‘राष्ट्र के नाम संबोधन’ के अगले रोज़ अपने ऑफिस से उठ कर दोपहर को मैं शहर का हालचाल लेने निकला। सब कुछ यथावत था। चाट के ठेलों पर भीड़ थी। फल और जूस वाले अपना व्यापार संभाले थे। पान की दूकानों पर लोग पान खा-खा कर इधर-उधर थूक रहे थे। छोले-भटूरों के ठेलों पर भीड़ लगी थी, और लोग वहीं खुले में खा-पी रहे थे। शराब की दूकानों पर अथाह भीड़ थी। इक्का-दुक्का लोगों के अलावा कोई मुझे माँस्क लगाए नहीं दिखा। किसी के चेहरे से नहीं लगा, कि कोरोना का भूत उन्हें साता रहा है। अब अखबारों, टीवी और मीडिया को देखिये। पहले पन्ने से आखिरी पन्ने तक कोरोना का ही रोना। सारे चैनलों पर कोरोना की ही हाय-तौबा! ऐसा क्यों है? यह लाख टके का सवाल है!
प्रधानमंत्री से लेकर विपक्ष के नेता तक देश को कोरोना का डर दिखा रहे हैं। पर हमारे देश की 90 प्रतिशत जनता इस डर को सही में डर मानने को तैयार नहीं है। मज़े की बात, कि जिस देश की जनता एक अफवाह मात्र से गणेश जी की मूर्तियों को दूध पिलाने लगती है। जो अपने पाप धोने के लिए दूर-दूर से पैदल चल कर गंगा नहा आती है। खाटू श्याम जी के मंदिर में 18 किमी पैदल चलती है। जो जनता नंगे पाँव ब्रज चौरासी कोस की परिक्रमा करती है, वह क्यों नहीं कोरोना के डर से डर नहीं रही। इसका जवाब एक है, कि उसे लगता है कि यह सरकार का डर है। जो कर कुछ नहीं रही, सिर्फ डर दिखा रही है।
इस लाख टके के सवाल का एक ही जवाब है, कि कोरोना एक सरकारी अंध विश्वास कि तरह फैलाया जा रहा है। भागो-भागो कोरोना आया! पर कौन-सा कोरोना, कैसा कोरोना! क्या किसी भी रिसर्च इंस्टीट्यूट को कहा गया, कि वह कोरोना की हक़ीक़त पता करे? क्या किसी भी अस्पताल के विशेषज्ञों, माइक्रोबायोलाजी विभाग, अथवा जीव-विज्ञानियों को इसकी शोध या इससे निजात पाने के उपायों पर गौर करने को कहा गया? जवाब है, नहीं। फिर आपके डर से क्यों डरे जनता? दरअसल भारत में आज तक किसी डर से निपटने के उपाय तलाशने पर कभी ज़ोर नहीं दिया गया। और न ही कभी सरकारों ने डर को जीतने के लिए कोई कारगर कदम उठाए। तब क्यों जनता इस फरेब में आए, कि भारत में कोरोना पैठ बना चुका है। क्यों वह ताली या घंटा बजा कर अथवा उलूक-ध्वनि निकाल कर भूत भगाने का उपक्रम करे?
भारत में 70 प्रतिशत लोग उस बिरादरी से आते हैं, जिनके ज़िंदा रहने की आवश्यक शर्त है, रोज़ कमाना तब पेट भर पाना। यह किसी उम्र विशेष की ही शर्त नहीं है, बल्कि 65 वर्ष से ऊपर के लोगों की भी अनिवार्यता है। क्या प्रधानमंत्री जी ने ऐसे सीनियर सिटीज़न या तमाम गरीब युवाओं, प्रौढ़ों और बच्चों के लिए कोरोना से बचने की किसी स्कीम का गुरुवार की रात अपने संबोधन में खुलासा किया? यदि नहीं, तो किस हक़ से वे हमें ताली पीटने का निर्देश दे रहे हैं? बेहतर होता, कि प्रधानमंत्री जी इस बिरादरी के हर घर, हर परिवार के लिए सैनीटाइजर और मास्क फ्री में बंटवाते। वे अपने तईं पहल कर सारे निजी और सरकारी अस्पतालों को निर्देश देते, कि खाँसता या छींकता पाये जाने वाले हर शख्स का इलाज करो और वह भी फ्री।
प्रधानमंत्री द्वारा सिर्फ डर जाता दिए जाने से तो और पैनिक फैला। मिडिल क्लास बाज़ारों पर टूट पड़ा। आटा, दाल, चावल लोग इकट्ठा करने लगे। पता नहीं कब तक जनता कर्फ़्यू चले। भले ही प्रधानमंत्री ने सिर्फ 22 मार्च बोला हो, लेकिन कोई नहीं मान रहा, कि यह सिर्फ एक दिन के लिए है। हर व्यक्ति मान कर चल रहा है, कि ऐसा बार-बार होगा। वरिष्ठ कांग्रेस नेता और पूर्व वित्त मंत्री पी चिदम्बरम तो यूं भी सब कुछ बंद की सलाह दे चुके हैं। अर्थात चाहे सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, सब बौराये हैं। सब बता रहे हैं, कि हम चिंतित हैं। पर ‘अंटी ढीली करने’ को कोई नहीं कह रहा। इस तरह की नसीहतों से महामारी को काबू नहीं किया जा सकता। महामारी पर काबू पाने के लिए रणनीति बनानी होगी। विज्ञान और वैज्ञानिकों का सहारा लेना होगा। युद्ध-स्तर पर कुछ करना होगा। लेकिन सबसे पहले हमें सबको ज़िंदा रखने के लिए उनके पेट पालने का इंतजाम करना होगा। आप कटौती करो, लोगों पर टैक्स लगाओ, लेकिन उन सब को ज़िंदा रहने के लिए कुछ करो, जो रोज़ कुआं खोद कर ही पानी पी पाते हैं।
यह वह भी दौर है, जब सरकार को सोचना चाहिए, कि देश में हेल्थ और एजूकेशन सरकार के अधीन हों। शिक्षा से ही विज्ञान का प्रसार होगा, चिकित्सकीय सेवाओं का विस्तार होगा। लेकिन उसके लिए जरूरी है, कि शिक्षा पर निजी हाथों का दखल बंद हो। क्योंकि जब तक शिक्षा पूँजीपतियों की चेरी बनी रहेगी, तब तक वह वही करेगी, जैसा उसके नियंता यानी पूंजीपति चाहेंगे। पूंजी की पूरी व्यवस्था ही मुनाफे पर टिकी है, इसलिए शोध, रिसर्च और खोज आदि सब कुछ मानव-कल्याण के लिए नहीं, बल्कि पूँजीपतियों का व्यापार और मुनाफा बढ़ाने के लिए होता है। इसी तरह स्वास्थ्य सेवाएँ यदि निजी हाथों में खेलेंगी, तो उनसे कोरोना तो दूर किसी छोटी-मोटी खांसी तक के निराकरण की उम्मीद करना व्यर्थ है। जिन चिकित्सकों को शपथ दिलाई जाती थी, किसी भी रोगी को वे पहले स्वस्थ करेंगे। वह भले इलाज़ का खर्च जुटा पाने में अक्षम हो। किन्तु इस वजह से वे उसे निराश नहीं लौटाएँगे। वही चिकित्सक आज इतने निर्मम हो गए हैं, कि फीस पाए बिना वे मरीज की नब्ज़ पर हाथ तक नहीं रखते। और इसकी वजह है निजी अस्पतालों की लूट।
अतः बेहतर तो यह होगा, कि कोरोना के बहाने ही सही सरकार अपनी खुद की स्वस्थ्य सेवाएँ बहाल करे। सरकारी अस्पतालों को पुनर्जीवित किया जाए। सरकार इन व्यर्थ की अफवाहों को फैलने से रोके और तत्काल प्रभाव से निजी अस्पतालों पर अंकुश लगाए। ये अस्पताल जो सामान्य फोड़े को कैंसर बता कर मरीज को आईसीयू में भेज देते हैं, उनसे कोरोना का इलाज़ कर पाने की तो उम्मीद न ही करे। यदि कोरोना सचमुच वैश्विक महामारी है, तो चिकित्सकों को अनिवार्य कर दे, कि वे सरकारी अस्पतालों में बैठें। कोई भी डाक्टर भले वह सरकारी हो या निजी क्लीनिक चलाता हो अथवा किसी प्राइवेट अस्पताल में हो, वे सब सरकारी अस्पतालों में आएँ, मरीजों को देखें। यह सरकार के लिए एक अवसर है, कि बिगड़ी हुई स्वास्थ्य व्यवस्था को सुधार ले। किन्तु ऐसी दृढ़ इच्छा-शक्ति सरकार में दिखती नहीं। तब फिर राष्ट्र के नाम संबोधन का असर भला क्या पड़ेगा! हम अगर जनता से संयम और संकल्प की बात करते हैं, तो सरकार को अपने स्तर पर भी यह संयम और संकल्प दिखाना चाहिए। तब ही पता चल पाएगा, कि सरकार भी कोरोना को लेकर सीरियस है, और विपक्ष भी।
-शंभूनाथ शुक्ल