ह रेक मनुष्य में आस्तिक्य बुद्धि होती ही है, परन्तु कोई उसे समझते हैं और कोई उसके ज्ञान से विमुख रहते हैं। जो चेतन एक शरीर में है, वही सब संसार में है। उस चेतन की उत्पत्ति या नाश नहीं होता। एक शरीर में जो चेतन है, वह जीवात्मा और जो सर्वव्यापक है, वह परमात्मा है, दोनों अच्युत हैं।
ऋषियों की महानता
हिन्दू धर्म की उत्पति वेदों से हुई है और वेद अनादि, अनन्त तथा अपौरुषेय है। किसी पुस्तक का आरम्भ और अंत नहीं, यह सुनकर आप लोगों को आश्चर्य होगा, पर इसमें आश्चर्य करने की कोई बात नहीं है। वेद कोई पुस्तक नहीं, किन्तु उन सिद्धांतों का संग्रह है, जो अटूट या अकाट्य है। जिन जोगों ने ऐसे सिद्धांत ढूंढ निकाजे, उन्हें ऋषि कहते हैं। ऋषियों को हम पूर्ण ईश्वर स्वरूप समझते हैं। यहां पर इस बात का उल्लेख कर देना अनुचित न होगा कि उस तत्व-विवेचकों में कुछ स्त्रियां भी थीं। भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के परस्पर संबंध या व्यष्टि (एक पुरुष) का समष्टि (विश्व) से संबंध जिन सिद्धांतों से निश्चित हुआ, वे ही सिद्धांत त्रिकालातीत हैं। उनका पता लगाने के पहले भी वे वर्तमान थे आगे चलकर हम उन्हें भूल जाएंगे, तो भी उनका अस्तित्व नष्ट होगा। न्यूटन के आविष्कार के पहले भी गुरुत्वाकर्षण का नियम रूका हुआ नहीं था। वेदों ने काल-शार्दूल के पंजे से छूटने का उपाय बताया है। भगवान श्रीकृष्ण ने, जिन्हें हम हिन्दू परमात्मा का पूर्णावतार मानते हैं, भवसागर से तरने की रीति बताई है। सृष्टि के सब नियम जिसके अनुरोध से चलते हैं, जो जड़ और चेतन में भरा हुआ है, जिसकी आज्ञा से वायु बहती है, आग जलती है, मेघ जल बरसाते हैं और मृत्यु हरण करती है, उस परमात्मा की पूजा करो। उसी की ऋषि लोग प्रार्थना करते हैं- ‘हे सर्वव्यापी दयामय! तू हमारा पिता, तू ही हमारा माता, तू ही बंधु, मित्र और संसार की सब शक्तियों का अधिष्ठाता है। तू सब विश्व का भार सहता है, हम तेरे पास इस जीवन का भार सहने की शक्ति के लिए याचना करते हैं।’ इस जन्म तथा अन्य जन्म में उससे बढ़कर और किसी पर प्रेम न हो, यह भावना मन में दृढ़ कर लेना ही उसकी पूजा करना है। मनुष्य को संसार में कमल-पत्र के समान अलिप्त रहना चाहिए। कमल-पत्र जल में रहकर भी नहीं भींगता, इसी तरह कर्म करते हुए भी उससे उत्पन्न होने वाले सुख-दु:ख से यदि मनुष्य अलग रहे, तो उसे निराशा से सामना नहीं करना होगा। सब काम निष्काम होकर करो, तुम्हें कभी दु:ख न होगा।
ईश्वर बहुत दूर नहीं
आत्मा पूर्ण ईश्वर रूप है। जड़ शरीर से उसके बद्ध होने के आभास होता है सही, पर इस आभास को मिटा देने से वह मुक्त अवस्था में दीख पड़ेगा। वेद कहते हैं कि जीवन-मरण, सुख-दु:ख, अपूर्णता आदि के बंधनों से छूटना ही मुक्ति है। उक्त बंधन बिना ईश्वर की कृपा के नहीं छूटते और ईश्वर की कृपा अत्यंत पवित्र हृदय बिना हुए नहीं होती। जब अन्त:करण सर्वथा शुद्ध और निर्मल अर्थात पवित्र हो जाता है, तब जिस मृत्पिण्ड देह को जड़ या त्याज्य समझते हो, उसी में परमात्मा का प्रत्यक्ष रूप से उदय होता है और तभी मनुष्य जन्म-मरण के चक्र से छूट जाता है। केवल कल्पना चित्र देखकर या शब्दाडम्बर पर मुग्धा होकर हिन्दू समाधान का अनुभव नहीं करते। दस इंद्रियों द्वारा जो न जानी जाती हो, ऐसी किसी वस्तु पर हिन्दुओं का विश्वास बिना अनुभव किए न होगा। जड़ सृष्टि से अतीत जो चेतन तत्व है, हिन्दू उससे बिना किसी बिचवई के (प्रत्यक्ष) मिलेंगे। किसी हिन्दू साधु से पूछिए- ‘बाबाजी क्या परमेश्वर सत्य है?’ वह आपको उत्तर देगा,- नि:संदेह सत्य है, क्योंकि उसे मैंने देखा है। आत्मविश्वास ही पूर्णता का बोधक है। हिन्दू धर्म किसी मत को सत्य का किसी सिद्धांत को मिथ्या कहकर अंधाश्रद्ध बनने को नहीं कहता। हमारे ऋषियों का कथन है कि जो कुछ हम कहते हैं, उसका अनुभव करो, उसका साक्षात्कार करो। मनुष्य को परिश्रम करके पूर्ण पवित्र तथा ईश्वररूप बनाना चाहिए। ईसाई धर्म में आसमानी पिता की कल्पना की गई है। हिन्दू धर्म कहता है- ‘उसे अपने में प्राप्त करो, ईश्वर बहुत दूर नहीं है।’
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