इनकी बातें कोड-लैंग्विज जैसी होती है। आम आदमी के पल्ले नहीं पड़ती। जीडीपी का ही उदाहरण लें। हल्ला मचा हुआ है कि इसकी अनुमानित वृद्धि दर साढ़े सात से घट कर पांच प्रतिशत के आसपास पहुंच गई है। सुनने वाले को लगता है कि एकाध प्रतिशत की ही तो बात है। क्या फर्क पड़ता है? ऊपर से ये बढ़ ही तो रही है। लेकिन जो जानकारी रखते हैं, सिर पीट रहे हैं। बोलचाल की भाषा में जीडीपी एक देश के अंदर उत्पादित चीजों और सेवाओं को मोल है। इसका बढ़ना इस बात पर निर्भर है कि इसे खरीदा जा रहा कि नहीं। खरीदने की बात रोजगार और आय की स्थिति से जुड़ी है। जब लोगों के पास पैसे हों और वे भविष्य के प्रति आश्वस्त हों तो कर्ज़ लेकर भी गैर-जरूरी चीजें तक खरीद लेते हैं। अगर असुरक्षा का भाव हो तो बुरे दिन की आशंका में पैसे जोड़कर रखते हैं। जरूरी चीजों के बगैर भी काम चलाने में ही बुद्धिमानी समझते हैं। उसी हिसाब से उद्योग-धंधे सिकुड़ने शुरू हो जाते हैं। आय और रोजगार के अवसर में कमी आने लगती है। अगर इसे ऐसे ही छोड़ दिया जाए तो हालत बिगड़ते ही जाएंगे। ऐसे में सरकार को हस्तक्षेप करना पड़ता है जिससे कि बनाने वाले बनाते रहें और खरीदने वाले खरीदते रहें।
पंद्रह-बीस साल पहले बेंको ने जोर-शोर से नो योर कस्टमर की प्रथा शुरू की थी। शिकायत थी कि बेनामी खाते खोले जा रहे हैं। उनमें काली कमाई जमा कराई जा रही है। आज कल कहाँ गए कस्टमर का कोलाहल है। मोटर बेचने वाले छाती पीट रहे हैं कि भारी-भरकम डिस्काउंट और जीएसटी में रियायत के बाद भी खरीदार उनके भड़कीले शो-रूम और चमकीले कार का रुख नहीं कर रहे। उन्हें अपना उत्पादन कम करना पड़ रहा है। वेंडरों को मना कर पड़ रहा है। कर्मचारियों की छटनी करनी पड़ रही है। सड़कों पर ठसाठस भरे कार को देखकर लगता है और के लिए जगह ही कहां है? लेकिन इसकी वजह से रोजगार खत्म हो रहे हैं, चिंता का विषय है। खासकर ऐसे समय में जब देश की औसत आयु तीस साल से नीचे की है और हर महीने चौदह-पंद्रह लाख नए लोग काम करने की उम्र के हो रहे हैं।
दुनियां के एक-तिहाई खरीदार भारत और चीन में बसते हैं। इन देशों के लुढ़कते बाजार की चिंता सारी दुनियां को है। आखिर बड़ी-बड़ी कम्पनियां अपना सामान किसको बेचेगी? अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के नए मुख्य कार्यकारी अधिकारी ने चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध को इसके लिए जिम्मेवार ठहराया है। उनके हिसाब से ब्रेक्सिट से भी बात बिगड़ी है। कहती हैं कि दुनियां के नब्बे प्रतिशत देश की अर्थव्यवस्था सुस्ती के दौर से गुजर रही है। भारत और ब्राजील पर इसका असर कुछ ज्यादा ही है।
इस आर्थिक मार के कारणों के बारे में जितनी मुंह उतनी बातें हैं। अर्थशास्त्रियों के एक वर्ग का कहना है कि भारत का जीडीपी तो पिछले पांच साल से खस्ताहाल है। पेट्रोल के कम कीमत की वजह से हर साल 75 बिलियन डॉलर की बचत हो रही थी। सरकार उसे विभिन्न योजनाओं पर खर्च कर हालत संभाले हुए थी। अब जब सऊदी अरब और ईरान भिड़े हैं, पेट्रोल की कीमत पिछले स्तर पर चली गई है। इसका असर सरकारी खर्चे पर पड़ा है। लोगों की जेब में पैसे नहीं हैं सो जीडीपी लपेटे में आ गई है। इस चक्र को तोड़ने के लिए सरकार ने फटाफट 20 बिलियन डॉलर की कारपोरेट टैक्स में कटौती की। व्यापार-प्रक्रिया को सरल करने की बात की। नए आर्थिक क्षेत्रों को विदेशी निवेशकों के लिए खोला। रिजर्व बैंक ने ऋण दरों को कम किया। सोच ये रही होगी कि इससे व्यापारी दोबारा उत्पादन शुरू करेंगे। आय और रोजगार बढ़ेगा। खरीदारी बढ़ेगी। नीचे की तरफ जाता व्यापार चक्र ऊपर की दिशा पकड़ लेगा। जीडीपी की दर एक बार फिर राजधानी की रफ्तार से दौड़ने लगेगी।
अर्थशास्त्रियों के एक दूसरे जत्थे का कहना है कि इससे बात नहीं बनने वाली। जब तक खरीदने वाले नहीं होंगे, बनाने वाले भी नहीं फटकेंगे। सरकार को सोशल सेक्टर में पैसे लगाने चाहिए। फौरन दो-चार गुना बढ़ा देना चाहिए। जब देहाती इलाकों में पैसे जाएंगे, गांवों में रहने वाले के जेब में कुछ आएगा तो खरीदारी स्वत: बढ़ेगी। उसी हिसाब से उत्पादन और आय और रोजगार के अवसर में भी वृद्धि होगी। अर्थ-व्यवस्था की सुस्ती दूर होगी। देश मंदी की मार से बच जाएगा। सरकारी लोग और अर्थशास्त्री जोड़-तोड़ में लगे हैं। लेकिन वांछित परिणाम तब निकलेगा जब बनाने और खरीदने वाले हौसला दिखाएं। मुझे लगता है कि शुरुआत खरीदने वालों को ही करनी पड़ेगी। जिनके जेब में पैसे हैं आज के दिन खरीदारी एक तरह से उनकी सामाजिक जिÞम्मेवारी है। इन्हें इसकी जरूरत हो ना हों, देश की अर्थव्यवस्था को इस बात की जरूरत है।
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