कोरोना संकट के बाद पूरी दुनिया खासी परेशान हुई थी। ऐसे में भारत को लेकर भी बहुत चिंताएं थीं किन्तु जिस तरह से भारत ने कोरोना संकट से निपटने की रणनीति बनाई और उस पर अमल किया, उसकी प्रशंसा भी चहुंओर हो रही थी। इस प्रशंसा के बीच इस देश के मजदूर व गरीब शायद मरने के लिए छोड़ दिये गए थे। भारत में आर्थिक विषमता के कारण आज भी देश के कुछ राज्यों से मजदूर भारी संख्या में दूसरे राज्यों में जाकर जीवन यापन करते हैं। दूसरे राज्यों में जाने वाले ये मजदूर कोरोना संकट के समय खासे परेशान से हो गए। एक साथ लॉकडाउन ने अपने घरों तक पहुंचने के लिए उनके रास्ते रोक दिये। कोरोना से बचने के लिए लॉकडाउन होना जरूरी था किन्तु ऐसे में राज्य सरकारों की जिम्मेदारी थी कि वे मजदूरों व गरीबों की चिंता करतीं। दुर्भाग्य की शुरूआत यहीं से हुई। जिन राज्यों में काम करते हुए ये मजदूर अभी तक उनके लिए उपयोगी थी, अचानक वे अनुपयोगी हो गए। ह्यएक भारतह्ण का स्वप्न राज्य सरकारों की अपने-अपने नागरिकों के भाव के कारण टूट सा गया। कई राज्यों की सीमा पर हजारों नागरिक जुट गए जिससे उनके लिए प्रबंधन चुनौती बन गया।
राज्यों की इस खींचतान का परिणाम मजदूरों की मौत के रूप में सामने आ रहा है। महाराष्ट्र में बड़ी संख्या में उत्तर भारतीय राज्यों से मजदूर काम करने जाते हैं। महाराष्ट्र में कामकाज न होने और पैसे भी खत्म हो जाने की स्थिति में मध्य प्रदेश स्थित अपने घर की ओर रवाना हुए ऐसे ही 16 मजदूर थक हार कर ट्रेन की पटरी पर ही सो गए और धड़धड़ाती रेलगाड़ी उन्हें कुचलते हुए निकल गयी। उनकी मौत के बाद बातें तो बड़ी-बड़ी हुईं किन्तु इन स्थितियों के लिए जिम्मेदारियों का निर्धारण कर उन्हें दंडित करने की पहल नहीं की गयी। दरअसल इस घटना के बाद हम कुछ सीख ही लेते, वह भी नहीं हुआ। आज भी मजदूर दूर-दूर से पैदल आने को विवश हैं। महाराष्ट्र से ऐसे ही उत्तर प्रदेश के तमाम मजदूर पैदल चल पड़े, जिनमें से कई मजदूरों ने रास्ते में दम तोड़ दिया। दरअसल लॉकडाउन के बावजूद देश की सड़कें अराजक बनी हुई हैं। यी कारण है कि अंबाला में पैदल जा रहे मजदूर को कार ने कुचल दिया। अब यह सवाल उठना अवश्यंभावी है कि लॉकडाउन के दौर में वह अराजक कार सड़क पर क्यों घूम रही थी। ऐसी ही तमाम घटनाएं देश भर से सामने आ चुकी हैं।
मजदूरों की मौत को लेकर समाज व सरकार, दोनों की गंभीरता कभी सामने नहीं आती। कई बार तो लगता है कि देश अमीर-गरीब में बुरी तरह विभाजित हो गया है। यहां की सारी चिंताएं बस धनाढ्य-केंद्रित हैं, जिनमें गरीबों की भूमिका महज मजदूरों जैसी है। इन गरीबों का नेतृत्व करने वाले जब सत्ता का हिस्सा बनते हैं तो वे भी उनसे दूर हो जाते हैं। मजदूरों की उपेक्षा करते समय हम भूल जाते हैं कि यही लोग हमारी नींव का पत्थर हैं। जिस तरह नींव का पत्थर भले ही सामने न दिखता हो किन्तु यदि नींव कमजोर हुई तो आकर्षक भवन भी ढह जाएगा, वैसे ही मजदूरों के प्रति हमारा दुर्भावनापूर्ण व्यवहार पूरे देश के लिए भारी पड़ेगा। कोरोना से निपटने के बाद देश के सामने सबसे बड़ी चुनौती ऐसे गरीब व मजदूर ही होंगे। अर्थव्यवस्था चौपट होने के बाद की स्थितियों में मजदूरों की चिंता करना भी एक बड़ी जिम्मेदारी होगी। दरअसल भारत में गरीबी कोरोना से बड़ी बीमारी है। कोरोना से निपटने के बाद गरीब बढ़ेंगे तो यह बीमारी भी बढ़ेगी। यह गरीब ही है, जो कभी किसान के रूप में तो कभी कारखाने के कुशल-अकुशल श्रमिक के रूप में हमारी मूलभूत जरूरतों को पूरा करता है किन्तु जब उसके परेशान होने की बारी आती है तो हम उसे कभी रेल की पटरियों पर तो कभी कार के पहियों से कुचलकर मरने के लिए छोड़ देते हैं। सामान्य स्थितियों में भी इलाज की श्रेष्ठतम सुविधाएं तो धन आधारित ही होती हैं, जिनसे गरीब वंचित ही रहते हैं। कोरोना के साथ ही हमें गरीबी से मुक्ति की राह भी खोजनी होगी। ऐसा किये बिना ह्यएक भारत, श्रेष्ठ भारतह्ण जैसे नारे महज स्वप्न बनकर रह जाएंगे, ये यथार्थ के धरातल पर नहीं उतर सकेंगे।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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