चैतन्य महाप्रभु का जन्म संवत 1542 विक्रमी की फाल्गुनी पूर्णिमा, होली के दिन बंगाल के नवद्वीप नगर में हुआ था। उनके पिता का नाम पंडित जगन्नाथ मिश्र और माता का नाम शचीदेवी था। पिता सिलहट के रहनेवाले थे। नवद्वीप में पढ़ने के लिए आये थे। बाद में वहीं बस गये। वहीं पर शचीदेवी से विवाह हुआ। एक के बाद एक करके उनके आठ कन्याएं पैदा हुईं और मरती गईं। फिर एक लड़का पैदा हुआ। भगवान की दया से वह बड़ा होने लगा। उसका नाम उन्होंने विश्वरूप रखा। विश्व रूप जब दस बरस का हुआ तब उसके एक भाई और हुआ। माता-पिता की खुशी का ठिकाना न रहा। बुढ़ापे में एक और बालक को पाकर वे फूले नहीं समाये। कहते हैं, यह बालक तेरह महीने माता के पेट में रहा। उसकी कुंडली बनाते ही ज्योतिषी ने कह दिया था कि वह महापुरूष होगा। यही बालक आगे चलकर चैतन्य महाप्रभु हुआ। बालक का नाम विश्वंभर रखा गया। प्यार से माता-पिता उसे ‘निभाई’ कहते। जिनके घर बच्चे मर जाते हैं, वे इसी तरह के बेसिर-पैर के नाम अपने बच्चों के रख देते हैं। एक दिन की बात है। बालक के स्वभाव की जांच करने के लिए पिता ने उसके सामने खिलौने, रुपये और भगवतगीता रख दी। बोले, “बेटा, इनमें से कोई-सी एक चीज उठा लो।” बालक ने भगवतगीता उठा ली। पिता समझ गये कि आगे चलकर यह बालक भगवन का बड़ा भक्त होगा।
एक बार निमाई काले नाग से खेलते हुए पाये गए। उनके चारों ओर सांप-कुंडली मार कर बैठा हुआ था ओर वह बड़े प्यार से उसके शरीर पर हाथ फेर रहे थे। लोगों को पक्का विश्वास हो गया कि हो-न-हो, इस बालक के शरीर में कोई महान आत्मा रहती है। बचपन में निमाई का पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। शैतान लड़कों के वह नेता थे। उन दिनों देश में छूआछूत ओर ऊंच-नीच का भेदबहुत था। वैष्णव और ब्राह्मण अपने या अपने घरवाले के ही हाथ का पका हुआ खाना खाते थे।
एक दिन एक ब्राह्मण निमाई के यहां आया। जगन्नाथ मिश्र ने उसकी बड़ी आवभगत की। शचीदेवी ने उन्हें सीदा दिया। ब्राह्मण ने चौका लीप-पोत कर तैयार किया और खाना बनाया। खाने से पहले वह आंखें बन्द करके विष्णु भगवान को भोग लगाने लगा। तभी निमाई ने आकर उसकी
थाली में से खाना खाना शुरू कर दिया। यह देखकर ब्राह्मण चिल्लाने लगा। उनकी आवाज सुनते ही मिश्रजी और शचीदेवी दौड़े आये। मिश्रजी ने निमाई को पकड़ लिया और उन्हें पीटना ही चाहते थे कि ब्राह्मण ने छुड़ा दिया। मिश्रजी और शचीदेवी के आग्रह पर ब्राह्मण ने दूसरी बार भोजन तैयार किया। निमाई को अलग जाकर रस्सी से बांध दिया, पर भगवान को भोग लगाते समय फिर वही घटना घटी। निमाई रस्सी खोलकर आ गये। और थाली में से चावल खाने लगे। अब की बार मिश्रजी के गुस्से का ठिकाना न रहा। वह मारने को लपके, पर ब्राह्मण ने उन्हें रोक दिया। उसी समय पाठशाला से पढ़कर विश्वरूप आ गये। सबने मिलकर ब्राह्मण से फिर खाना बनाने का आग्रह किया। ब्राह्मण मान गया। विश्वरूप और माता ने निमाई के रस्सी से बांधकर अपने पास बिठा लिया। कहते हैं, जब ब्राह्मण ने भोजन बनाकर भगवान विष्णु को भोग लगाया तो भगवान चतुर्भुज रूप में उसके सामने आ खड़े हुए और बोले, “तुम्हारे बुलाने पर मैं बालक के रूप में दो बार तुम्हारे पास आया, पर तुम पहचान नहीं पाये। अब जो इच्छा हो, मांगो।” ब्राह्मण गदगद् हो गया। बस, मुझे यही वर दीजिए कि आपकी मूर्ति सदा मेरे हृदय में बसी रहे।” विष्णु भगवान ने कहा, “ऐसा ही होगा।” ब्राह्मण ने बड़ी खुशी से भोजन किया। फिर वह निमाई को देखने गया। वह सो रहे थे।
ब्राह्मण ने मन-ही-मन उन्हें प्रणाम किया और अपने घर लौट गया। जिसके घर से जो कुछ मिलता, निमाई वही खा लेते। पड़ोसिन प्यार से उन्हें खिलातीं। कोई-कोई कहतीं, “निमाई ब्राह्मण होकर हर किसी का छुआ खा लेता है।” निमाई हंसकर कहते, “हम तो बालगोपाल हैं। हमारे लिए ऊंच-नीच क्या! तू खिला, हम तेरा खा लेंगे।” निमाई जितने शरारती थे, बड़े भाई उतने ही गम्भीर और अपने विचारों की दुनिया में मस्त रहने वाले आदमी थे। विश्वरूप की उम्र इस समय 16-17 साल की थी। माता-पिता विश्वरूप के विवाह की बात सोचने लगे, किन्तु उनकी लगन दूसरी ही ओर थी। मां-बाप ने जोर दिया तो मौका पाकर एक दिन वह रात को घर से निकल गये और संन्यासों हो गये। बहुत ढूंढ़ने पर भी उनका पता न चला। मिश्रजी और शचोदेवी के दु:ख की सीमा न रही। निमाई पर भी इस घटना क बहुत असर पड़ा। वह भी अब गम्भीर रहने लगे। निमाई का मन अब पढ़ने की ओर झुका, पर मिश्रजी को उसमें रस न था। वह सोचते थे कि एक लड़का तो खो ही गया, कहीं दूसरा भी हाथ से न चला जाय। वह निमाई को पढ़ते देखते तो बहुत नाराज होते। पर निमाई जब पढ़ने पर ही तुल थे, तो उन्हें कौन रोक सकता था! वह पिता से छिपकर पढ़ते। इस समय उनकी अवस्था ग्यारह वर्ष की थी। इस छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने बहुत-कुछ पढ़ डाला। पिता अपने पुत्र की चतुराई की बातें सुन-सुनकर बहुत खुश होते। पर भाग्य के आगे किसका बस चलता है! एक दिन अचानक मिश्रजी को जोर का बुखार चढ़ा और कुछ ही दिनों में वह चल बसे। घर पर दु:ख का पहाड़ टूट पड़ा। पर निमाई ने हिम्मत से काम लिया। अपने-आपको तो सम्भाला ही, मां को भी को भी धीरज बंधाया। दुखी मां का अब निमाई ही सहारा थे। पढ़ने से जो समय बचता, उसमें वह माता की खूब सेवा करते। व्याकरण के साथ-साथ अब वह और चीजें भी पढ़ने लगे। धीरे-धीरे उनके ज्ञान की चर्चा चारों ओर होने लगी। उनकी उम्र सोलह साल की हो चुकी थी। लोग उन्हें ‘निमाई पंडित’ कहने लगे। निमाई के एक मित्र थे पं० रघुनाथ। वह उन दिनों एक पुस्तक लिख रहे थे। उनका विचार था कि इस पुस्तक को लिख लेने पर उस विषय का उनसे बड़ा विद्वान कोई नहीं होगा। तभी उन्हें पता लगा कि निमाई पंडित भी उसी विषय पर पुस्तक लिख रहे हैं। वह जानते थे कि निमाई इस विषय के पंडित हैं। वह उनके घर पहुंचे। रघुनाथ ने कहा, “सुना है, तुम न्याय पर कोई पुस्तक लिख रहे हो!” हंसते हुए निमाई ने कहा, “अजी, छोड़ो। तुम्हें किसी ने बहका दिया होगा। कहां मैं और कहां न्याय जैसा कठिन विषय! मन-बहलाव के लिए वैसे ही कुछ लिख रहा हूं।” “फिर भी मैं उसे सुनना चाहता हूं।” रघुनाथ ने जोर देकर कहा। “जैसी तुम्हारी इच्छा! चलो, गंगाजी पर नाव में सैर करेंगे और पुस्तक भी सुनायेंगे।” दोनों गंगा-घाट पर पहुंचे और नाव में बैठकर घूमने लगे। निमाई ने अपनी पुस्तक पढ़नी शुरू की। सुनकर रघुनाथजी रोने लग गये। “निमाई ने हैरानी से पूछा, “क्यों, क्या हुआ? रो क्यों रहे हो?” “निमाई, मेरी बरसों की मेहनत बेकार गई। तुम्हारी इस पुस्तक के सामने मेरी पुस्तक पर कौन ध्यान देगा? अपनी जिस पुस्तक पर मुझे इतना गुमान था, वह तो इसके सामने कुछ भी नहीं है।” रघुनाथ ने ठंडी सांस भरते हुए कहा। निमाई हंसने लगे। बोले, “बस इतनी-सी बात के लिए परेशान हो!” यह कहकर उन्होंने झट अपनी पुस्तक गंगाजी में फेंक दी। बोले, “यह तो एक पुस्तक है। मित्र के लिए मैं अपने प्राण भी दे सकता हूं।” उस दिन के बाद से फिर निमाई पाठशाला में पढ़ने नहीं गये।
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