जम्मू-कश्मीर के पूर्व मुख्यमंत्री और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला सात महीने बाद रिहाई हो गई है। ऐसे में सवाल यह किया जा रहा है कि अब जम्मू-कश्मीर की सियासत में क्या बदलाव आएगा? दरअसल, फारूक अब्दुला का नाम जम्मू-कश्मीर ही नहीं बल्कि देश के बड़े नेताओं में शूमार है। शायद यही वजह है कि उनके रिहा होने के बाद कांग्रेस के आला नेता गुलाम नबी आजाद समेत अनेक सियासतदां उनसे मिलने पहुंचे। ऐसे में यह सवाल भी लाजिमी है कि फारूक की आखिर अचानक रिहाई का मतलब क्या है? खैर, केंद्र सरकार ने बीते दिनों उन पर लगा पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) हटा दिया था और उन्हें छोड़ने का एलान किया था। 82 साल के फारूक अब्दुल्ला को उसी दिन यानी पांच अगस्त को हिरासत में ले लिया गया था जब जम्मू कश्मीर का विशेष दर्ज़ा खत्म करने की घोषणा की गई थी। अनुच्छेद 370 में बदलाव करने के साथ ही राज्य को केंद्र शासित प्रदेश बना दिया गया था और अनुच्छेद 35 ए भी खत्म कर दिया गया था। फारूक अब्दुल्ला पर बाद में 15 सितंबर को पीएसए लगा दी गई थी, जिसका मतलब है कि बिना मुकदमा चलाए उन्हें दो साल तक कैद में रखा जा सकता था। इसी के तहत पहले दिसंबर में और फिर हाल ही में 11 मार्च को पीएसए के तहत उनकी कैद को बढ़ा दिया गया था। मगर अब अचानक सरकार को क्या हुआ कि उसने पीएसए हटाकर अब्दुल्ला को आजाद करने का फैसला ले लिया? क्या उसकी कोई मजबूरी थी या इसे उसकी ओर से एक नई पहल के तौर पर देखा जाए।
जानकार मानते हैं कि पहली नजर में तो फारूक अब्दुला की रिहाई सरकार की मजबूरी का परिणाम ही दिखता है। प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से यह सूचनाएं मिलती रहती थी कि केंद्र सरकार पर जबर्दस्त अंतरराष्ट्रीय दबाव है कि वह कश्मीर के हालात सुधारे। सरकार ने पिछले सात महीनों से कश्मीर में जो हालात पैदा किए हैं, वह किसी से छिपा नहीं है। जम्मू-कश्मीर में कथित रूप से ताबाही का आलम है। हर तरफ अफरातफरी सी स्थिति बनी हुई है। विश्लेषक मुकेश कुमार का मानना है कि कश्मीर घाटी की 70 लाख आबादी को मूलभूत अधिकारों से सरकार ने वंचित कर रखा है। इन हालातों को अंतरराष्ट्रीय बिरादरी यह सब देख रही है और समय-समय पर प्रतिक्रिया भी दे रही है। कहने का मतलब यह कि सरकार के लिए यह जरूरी हो गया है कि वह कुछ ऐसा करे कि अंतरराष्ट्रीय जगत को लगे कि सरकार कश्मीर पर शिकंजा ढीला कर रही है और एक स्वस्थ लोकतंत्र की बहाली के लिए कदम उठा रही है। शायद यही संदेश देने के लिए उसने कुछ दिनों पहले ही अल्ताफ बुखारी की रहनुमाई में अपनी पार्टी बनवाई थी। इस पार्टी के जरिए वह कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया शुरू करने की जुगत में है। लेकिन सबको पता है कि इस पार्टी का कोई जनाधार नहीं है और जब तक सूबे की तीनों प्रमुख पार्टियों को इसके लिए तैयार नहीं किया जाता तब तक बात आगे नहीं बढ़ेगी। खैर, गृह मंत्रालय ने पिछले महीने संसद में एक लिखित जवाब में माना कि 5 अगस्त 2019 के बाद से 5000 से ज्यादा लोगों को गिरफ़्तार किया गया। सरकार के मुताबिक उनमें से अधिकतर लोगों को रिहा कर दिया गया है। आधिकारिक सूत्रों का कहना है कि अभी भी लगभग 1000 लोग पब्लिक सेफ्टी एक्ट (पीएसए) के तहत बंद हैं। ये वही एक्ट है जिसके तहत फारूक और दूसरे नेताओं को बंद किया गया था। फारूक अब्दुल्ला की रिहाई से भारत सरकार की अंतरराष्ट्रीय छवि को दुरुस्त करने में मदद मिलेगी जिसे पिछले महीनों में काफी धक्का लगा है।
एक रिपोर्ट में यह सवाल किया गया है कि क्या फारूक केंद्र सरकार का खेल खेलेंगे? यह तो तय है कि केंद्र सरकार अगर उन्हें रिहा कर रही है तो यह सशर्त होगा। यानी मुमकिन है कि फारूक ने केंद्र सरकार के साथ हाथ मिला लिया हो और अब वह बीच का रास्ता लेकर चलें। यह बीच का रास्ता यही हो सकता है कि वह अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जे की बहाली की मांग न करें। इसके बजाय वह सूबे को राज्य का दर्जा वापस देने और अनुच्छेद 35ए को लागू करके मूल निवासियों के अधिकारों को बहाल करने पर जोर दें। इसके अलावा वह उन लोगों की रिहाई की मांग भी कर सकते हैं जिन्हें बेवजह गिरफ्तार कर हिरासत में रखा गया है। अल्ताफ बुखारी की अपनी पार्टी को भी सरकार ने यही एजेंडा दिया है। उसने भी अपने गठन के बाद यही मांगें रखी हैं और जब उनसे अनुच्छेद 370 के बारे में सवाल पूछा गया तो वह टाल गए। अगर केंद्र सरकार इसी रणनीति पर काम कर रही है तो तय है कि जल्द ही अन्य नेताओं की रिहाई भी हो जाए। खास तौर पर उमर अब्दुल्ला और नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेताओं को तो छोड़ा ही जा सकता है। पीडीपी के भी उन नेताओं को आजादी मिल सकती है, जो केंद्र की इस रणनीति के तहत काम करने के लिए तैयार हो जाएं। वैसे कश्मीर घाटी ने पिछले छह-सात महीनों में बड़ी ताबाही देखी है। स्कूल-कालेज बंद। कारोबार-धंधे बंद। इंटरनेट-मोबाईल बंद। इन हालातों ने वहां के लोगों को दोजख की जिंदगी जीने को विवश कर दिया है।
लेकिन केंद्र का खेल खेलना इतना भी आसान नहीं होगा, क्योंकि वादी के आवाम का मूड क्या है इस पर काफी कुछ निर्भर करेगा। वादी के लोगों ने पिछले छह-सात महीनों में जो भुगता है उसके बाद वे या तो इस तरह के केंद्र के पिट्ठुओं को सिरे से खारिज कर देंगे या फिर वे हारकर हथियार डाल देंगे। कुल मिलाकर हालात जो हों, पर यह तो तय है कि फारूक की रिहाई के बाद जम्मू-कश्मीर की सियासत करवट लेने वाली है। इसकी शुरूआत शनिवार से ही हो गई है। अन्य दलों के नेताओं ने जिस तरह गर्मजोशी फारूक अब्दुला से मुलाकात की है, उससे तो यही संकेत मिल रहे हैं। यह तो रही सियासत की बात। इससे भी अहम यह है कि जम्मू-कश्मीर में शांति की बहाली होनी चाहिए। वहां चलने वाली आतंकी गतिविधियां रुकनी चाहिए। खासकर पाकपरस्त आतंकियों पर लगाम लगनी चाहिए। यदि सरकार यह करने में कामयाब नहीं हो पाती है तो उसका सब किया-कराया बेकार हो जाएगा। बहरहाल, फिलहाल चर्चा फारूक अब्दुला की रिहाई की है। बेशक, फारूक की पहचान एक सुलझे हुए बेहतर नेता की रही है। शायद यही वजह है कि उनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर होती है। वैसे, उम्मीद है कि फारूक अब्दुला कश्मीर घाटी में शांति स्थापित कराने के लिए भी प्रयत्न करेंगे तथा स्थानीय लोगों की बर्बाद होती जिंदगी को भी दुरूस्त कराने के लिए कदम उठाएंगे। खैर, देखना यह है कि होता क्या है?