एक बार देवराज इंद्र की सभा स्वर्ग में लगी हुई थी। इसमें दुर्वासा ऋषि भी भाग ले रहे थे। जिस समय सभा में विचार-विमर्श चल रहा था उसी समय सभा के मध्य ही पुंजिकस्थली’नामक इंद्रलोक की अप्सरा बार-बार इधर से उधर आ-जा रही थी। सभा के मध्य पुंजिकस्थली का यह आचरण ऋषि दुर्वासा को अच्छा न लगा। दुर्वासा ऋषि अपने क्रोध के लिए प्रसिद्ध हैं। उन्होंने पुंजिकस्थली को कई बार टोक कर ऐसा करने से मना किया लेकिन वह अनसुना कर वैसा ही करती रही तो दुर्वासा ऋषि ने कहा, “तुझे देव-सभा की मर्यादा का भान नहीं। तू कैसी देव अप्सरा है जो वानरियों की तरह बार-बार आ-जाकर सभा में व्यवधान डाल रही है। जा, अपनी इस आदत के कारण तू वानरी हो जा।”
दुर्वासा ऋषि का शाप सुन कर पुंजिकस्थली सन्न रह गई। अपने आचरण का यह परिणाम यह सोच भी नहीं सकती थी, पर अब क्या हो सकता था भूल हो चुकी थी। उसके कारण यह शापग्रस्त भी हो गई। उसने हाथ जोड़कर अनुनय विनय कर कहा, ऋषिवर अपनी मूर्खता के कारण यह भूल में अनजाने में करती रही और आपकी वर्जना पर भी ध्यान न दिया। सभा में व्यवधान डालने का मेरा कोई उद्देश्य न था। कृपया बताइए, अब आपके इस शाप से मेरा उद्धार कैसे होगा?” अप्सरा की विनती सुन कर ऋषि दुर्वासा पसीजे और बोले, अपनी इस चंचलता के कारण अगले जन्म में तू यात जाति में राजा विरज को कल्या के रूप में जन्म लेगी। तू देव सभा की अप्सरा है, अत: तेरे गर्भ से एक महान बलशाली तथा प्रभु भक्त बालक का जन्न होगा।। पुंजिक अप्सरा को संतोष हुआ।
पुनर्जन्म में वानर राज विरज की कन्या के रूप में उसका जन्म हुआ उसका नाम अंजना रखा गया। विवाह योग्य होने पर इसका विवाह वानर राज केसरी से हुआ। अंजना केसरी के साथ सुखपूर्वक प्रभास तीर्थ में रहने लगी इस क्षेत्र में बहुत शांति थी तथा बहुत से ऋषि आश्रम बनाकर यज्ञादि करते रहते थे एक यार सा 9 कि यन में विचरने वाला शंखबल नामक जंगली हाथी प्रमत हो उठा तथा वन में उत्पात मचाने लगा उसने कई आश्रम को रौंद हाला यज्ञ नहीं करने दिया। इसके भय से भागाते हुए अनेक तपस्टो बालक आहत हो गए। कई आश्रम छोड़ गए।
कई भय के कारण भागकर चले गए। केसरी को जय शंखवल नामक हाथी के इस उत्पात का पता चला तो उसे मार गिराने के लिए तत्काल बड़ी कुशलता से घेर कर उसके दोनों दांतों को पकड़ कर उखाड़ दिया। पीड़ा से चिंघाड़ता हुआ हाथी वहीं धाराशायी हो गया और आश्रम की रक्षा के लिए उनके अचानक पहुंचने तथा हाथी को मार कर आश्रम वासियों को निर्भय कर देने वाले केसरी का ऐसा बल देख कर ऋषि-मुनि बहुत प्रसन्न हुए और केसरी के पास आकर आशीर्वाद देते हुए कहा, “वानर राज केसरी। जिस प्रकार तुमने आज हम सबकी तथा आश्रम की रक्षा की, इसी प्रकार भविष्य में तुम्हारा होने वाला पुत्र पवन जैसे वेग वाला होगा तथा रुद्र जैसा महान बलशाली होगा। तुम्हारे बल तेज के साथ-साथ उसमें पयन तथा रुद्र का तेज भी व्याप्त रहेगा।” केसरी ने कहा, “ऋषिवरो! मैंने तो बिना किसी कामना के प्रमत हाथी को, जो किसी प्रकार यश में नहीं आ रहा था, मार कर आपकी इस यज्ञ भूमि को निर्भय किया है। आपका दिया यह स्वत: आशीर्वाद मुझे शिरोधार्य है।”
केसरी ऋषियों को प्रणाम कर चले गए। समय आने पर अंजना के गर्भ से एक बालक का जन्म हुआ। उसमें अपने याल्यकाल से ही ऋषियों द्वारा दिए आशीर्वाद का तेज झलकने लगा। आश्रमों में वह पवन वेग की तरह जहां तहां पहुंच जाता। आश्रमों में विघ्न डालने वाले वन्य जीवों तथा दष्ट ट्यक्तियों को अपने अपार बल से खदेड़ देता। अपने इस पराक्रम से वह मदमत हो जाता तथा अपने साथियों के साथ वह आश्रमों में क्रीड़ा करने लगता। उसको खेलने से कोई रोकता तो वह उसको भी तंग करने लगता। बालक तो था ही। उसके बाल कौतुक से जब ऋषियों को असुविधा होने लगी तथा उनके पूजा-पाठ और यज्ञ में व्यवधान आने लगा तो उन्होंने उसके स्वभाव में शांति लेने के लिए आशीर्वाद जैसा शाप दिया कि तुम अपने बल को हमेशा भूले रहोगे जब कोई तुम्हें आवश्यक होने पर तुम्हारे बल की याद दिलाएगा तब फिर तुममें अपार बल जागृत हो जाएगा।
इससे वह बालक शांत स्वभाव का हो गया। केसरी नंदन यह बालक आगे चल कर हनुमान न हुआ। सीता जी की खोज के लिए जब कोई समुद्र पार करने का साहस नहीं कर रहा था और हनुमा च थे तो जामवंत ने हनुमान जी को उनके बल की याद दिलाई थी। तब उन्होंने समुद्र पार कर सीता की रक्षा किए।
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