वाल्मीकि रामायण में एक कथा आती है। सतयुग में ब्रह्मवादी गौतम मुनि हो गए। उनके शिष्य का नाम था सौदास (सोमदत्त सुदास) ब्राह्मण। एक दिन सौदास शिव आराधना में लगा हुआ था। उसी समय वहां गुरु गौतम मुनि आ पहुंचे परंतु सौदास ने अभिमान के कारण उन्हें उठकर प्रणाम तक नहीं किया। फिर भी क्षमासागर गुरु शिष्य के बर्ताव से रुष्ट नहीं हुए बल्कि उन्हें यह जानकर प्रसन्नता हुई कि मेरा शिष्य शास्त्रोक्त कर्मों का अनुष्ठान कर रहा है। किंतु भगवान शिवजी सद्गुरु के अवहेलना को सह न सके। सद्गुरु का अपमान बहुत बड़ा पाप है अतः शिवजी ने सौदास को राक्षस-योनि में जाने का शाप दे दिया।
सौदास ने हाथ जोड़कर कहा: गुरुदेव! मैंने जो अपराध किया है वह क्षमा कीजिए।
गौतम ऋषि वत्स तुम भगवान के अमृतमयी कथा को भक्तिभाव से आदरपूर्वक श्रवण करो व समस्त पापों का नाश करने वाली है, ऐसा करने से यह सब केवल 12 वर्षों तक ही रहेगा।’
शाप के प्रभाव से सौदास भयानक राक्षस होकर निर्जन वन में भटकने लगा और सदा भूख प्यास से पीड़ित तथा क्रोध के वशीभूत रहने लगा।
एक बार वह घूमता घूमता नर्मदाजी के तट पर पहुंचा। उसी समय वहां गर्ग मुनि भगवान के नामों का गान करते हुए पधारे।
मुनि को आते देख राक्षस बोल उठा: मुझे भोजन प्राप्त हो गया।’ वह मुनि की ओर बढ़ा परंतु उनके द्वारा उच्चारित होने वाले भगवान नामों को सुन के दूर ही खड़ा रहा। जब वह ब्रह्मर्षि को मारने में असमर्थ हुआ तो बोला: महाभाग!
आपके पास जो भगवान नाम रूपी कवच है वही राक्षसों के महान भय से आपकी रक्षा करता है। आपके द्वारा किए गए भगवान नाम स्मरण मात्र से मुझ जैसे राक्षस को भी परम शांति मिली।
सद्गुरु की अवहेलना के फल स्वरुप भगवान शिव जी द्वारा शाप मिलना गुरु जी दारा शाप से छूटने का उपाय बताया जाना आदि सब बातें राक्षस ने मुनि को बताईं और उनसे विनती की: मुनिश्रेष्ठ! आप मुझे भगवत कथा सुनाकर सत्संग अमृत पिला कर मेरा उद्धार कीजिए।
गर्ग मुनि उस राक्षस के प्रति दया से द्रवित हो उठे और उसे रामायण की कथा सुनाई उसके प्रभाव से उसका राक्षसत्व दूर हो गया। वह देवताओं के समान सुंदर तेजस्वी और कांतिमान हो गया तथा भगवत धाम को प्राप्त हुआ।