वैराग्य क्या है?

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anandmurty guruma
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आनंदमूर्ति गुरु मां
प्राय: वैराग्य का अर्थ लिया जाता है कि घर बार छोड़ कर उदास हो कर गंगा किनारे बैठ जाना। इसीलिए कुछ लोग कहते हैं कि हम तो गृहस्थ वाले हैं अत: हम वैराग्य कैसे करें? कुछ लोगों का कहना है कि घर-बार, समाज, सोसायटी सब कुछ छोड़ कर जंगलों में या शहर से दूर निकल जाओ। जो घर में रहता है, उसके बारे में कहते हैं कि यह राग वाला है, संसारी है, गृहस्थी है। वैराग्य का यह अर्थ नहीं है। घर-बार छोड़ कर हरिद्वार जाकर बैठ जाने का नाम वैराग्य नहीं है। तो वैराग्य क्या है?

संसार को असार जानना, देह को मिट्टी समझना- वैराग्य है। उसके लिए यह जरूरी नहीं है कि तुम शहर या गाँव में रहो या हिमालय की किसी गुफा में रहो। अगर आपको यह बात समझ लग गई कि तुम्हारा यह देह मिट्टी है और जिस संसार को तुम देख रहे हो, यह सदा नहीं रहेगा, इस बात का निश्चय हो जाए, यही वैराग्य है। इस वैराग्य को पक्का करो। फिर बड़े मजे से घर में रहो। व्यापार भी करो, नौकरी भी करो, बच्चे भी पालो, दीन-दुनिया, रीति-रिवाज जो भी करना चाहो, सो करो।

संसार में रहने से वैराग्य खत्म नहीं होता। संसार छोड़ देने से भी मन राग से छूट जाएगा- यह बात झूठ है। क्योंकि जिस मन को पकड़ने की आदत हो, राग करने की आदत हो, पहले तो बीवी-बच्चे, घर, रिश्तेदार, धन, प्रतिष्ठा को पकड़ते थे और मान लो ये सब छोड़ कर कहीं चला जाए, वैसे तो कोई जाता नहीं, है किसी का दीवाला निकल जाए, कर्ज़दार सिर पर खड़े हैं, पैसा है नहीं, घबराहट के मारे भाग सकता है, किसी की बीवी मर गई या मियाँ-बीवी में लड़ाई हो, तो भी भाग जाते हैं, तो ऐसा आदमी फिर चाहे कहीं भी चला जाए, वह वहाँ भी अपने मन की पकड़ को बना लेगा। जिसके मन में आसक्ति है, वह अगर घर छोड़ कर किसी आश्रम में, गुफा में हरिद्वार, ऋषिकेश चला जाए तो वहाँ जाकर राग बना लेगा कि ये मेरा कमरा है। तुम जान कर हैरान होवोगे कि भिक्षा लेने के लिए साधु लाइन में लगे होते हैं तो उसमें भी कभी-कभी झगड़ा हो जाता है कि सबसे आगे कौन खड़ा होगा?

जो साधु सबसे श्रेष्ठ है, वही खड़ा होगा। तो जो सबसे पीछे खड़ा है, वह भी सोचता है कि मैं कब सबसे अगली लाइन में पहुँचू। यह क्या वैराग्य है? ऐसे तो भगवा पहन लिया, पर मन ही मन सोचता है कि गुरुजी कब मरें और मैं गद्दी पर बैठूं। यह बात व्यंग की नहीं है, बिल्कुल सच है। वृंदावन में एक बहुत ही विरक्त महात्मा थे झ्र उडिया बाबाजी महाराज। उनकी विरक्ति का ऐसा आकर्षण था कि दूर-दूर से लोग आने लगे, सेठ-साहूकार आकर धन चढ़ाने लगे। वह बहुत कहें कि मुझे धन की जरूरत नहीं है, इसे पीछे हटाओ। पर लोग मानते ही नहीं थे। फिर धीरे-धीरे उनके आसपास छोटी सी कुटिया बन गई। धीरे-धीरे साधु लोग मंत्र सीखने के लिए उनके पास बैठने लगे।

धीरे-धीरे गद्दी तैयार हो गई। फिर एक दिन उन्होंने निर्णय लिया कि अपना उत्तराधिकारी स्वामी अखंडानन्द सरस्वती जी को बनाएँगे। वे बहुत ही वीतराग, विद्वान संत थे। पर उनके एक अन्य चेले को बहुत तकलीफ हुई कि गद्दी पर तो मैंने बैठना था तो यह क्यों? एक दिन उसने कुल्हाड़ी से उडिया बाबा को मार दिया। यह चेला साधु वेश में है, भगवे कपड़ों में है। दुनिया के लिए वह वैरागी है। पर क्या यह वैराग्य था कि गुरु की ही हत्या कर दी। किसके लिए? गद्दी के लिए? इसको तो वैराग्य नहीं कहते।

सब कुछ छोड़ कर गुफा में बैठ गए परन्तु फिर यह कहना कि यह मेरी है, इसमें कोई नहीं बैठ सकता, यह तो वैराग्य नहीं है। पिछले दिनों मुझे एक महात्मा मिले। कहने लगे झ्र गुरु माँ! मेरी बहुत इच्छा है कि मैं जिस गुफा में रहा, वहाँ आपको लेकर चलूं, जो कि हिमालय में ऊपर तपोवन में है। मैंने कहा कि हमारी बहुत इच्छा है वहाँ जाने की। उन्होंने कहा कि मैं वहाँ लगभग 22 साल रहा हूँ। अब पता नहीं वहाँ कौन रह रहा है। अगर वह खाली हुई तो आप अगर चाहें तो रात्रि को वहीं विश्राम कर लें।मैंने कहा कि आप 22 साल वहाँ रहे तो उसके बाद खाली छोड़कर आ गए? कहने लगे कि खाली मिली थी, खाली छोड़ आए। गुफा किसी की सम्पत्ति नहीं है।

वैराग्य का अर्थ सिर्फ़ इतना है कि आप इस बात को निश्चयपूर्वक जानो कि यह संसार सदा न था न सदा रहेगा। इसलिए सदा इसके साथ मैत्री करना अपने आपको तकलीफ में डालना है। मन में यह चिंतन चलता रहे, वह वैराग्य है। अब ऐसे वैराग्यवान चित्त के व्यक्ति ने पेंट-कमीज पहनी है या उसने धोती पहनी है या तिलक लगाया है, गले में माला पहनी है या कुछ न पहना हो, तो भी क्या फर्क पड़ता है? तुम स्वयं एक परम संत हो सकते हो, अगर तुम अपने वैराग्य को गहरा कर लो। वैराग्य के बिना तुम संत नहीं हो सकते। साधु भी नहीं हो सकते। यहाँ तक कि साधक भी नहीं हो सकते। और वैराग्य करने के लिए सब कुछ छोड़ कर कहीं जाने की भी आवशयक्ता हैं है। देखिए! घर छोड़ देना कोई बड़ी बात नहीं है। एक स्वामीजी ने एक दोहा सुनाया था कि

मूंड़ मुंडाए लाभ तीन हैं,
सिर से मिट गई खाज।
पकी पकाई रोटी मिले,
लोग कहें महाराज।

सिर में तेल का, साबुन का, शैम्पू का खर्च नहीं। एक बार उस्तरा फेरा सिर साफ। पहले तो जुओं से छुटकारा मिल गया। दूसरा झ्र आपकी मुंडित खोपड़ी देखकर लोग महाराज जी बोलेंगे और बैठे-बैठाए कोई रोटी खिलाएगा, कोई दूध पिलाएगा। क्योंकि भारत में आज भी संत-वेश का सम्मान है और होना भी चाहिए। पर वह बात अलग है कि संत की व्याख्या क्या है संत कौन है – इसको हम समझते हों।
अगर कोई सच्चे मन से साधना को अपने जीवन में लाया हो, जिसने सत्य का अनुसंधान कर लिया हो, संत-महात्मा वही है। घर त्याग कर वैराग्य नहीं होता। घर में रहते हुए वैराग्य होता है। चुनौती वही है, पत्नी पास में है, पैसा हाथ में है, चाहे खर्च जैसे भी करो, चाहे शराब पी लो, जो मर्ज़ी व्यसन कर लो। कौन मना कर रहा है? धन है, फिर भी आपका मन किसी व्यसन को न चाहे। एक तो स्थिति यह कि धन नहीं है तो व्यसन कैसे करें? तो मन को मारकर कहता है कि अंगूर खट्टे हैं। एक ऐसा कि अंगूर तक पहुंच है, पर फिर भी खाना नहीं चाहता। शराब की दुकान के सामने से निकलता है, पर मन में इच्छा नहीं आती कि शराब पी लूं। धन हो तुम्हारे पास, पर फिर भी तुम्हारा मन संयमित हो, वही वैराग्य है। आत्म संयम से अपना जीवन जीयें-यही वैराग्य है।