What Does Ravana’s Ten Heads Represent ?| डॉ. महेंद्र ठाकुर | आदि शक्ति माँ जगदम्बा की आराधना का शारदीय नवरात्रि पर्व चल रहा है। दशहरा उत्सव आने वाला है। लोक मान्यताओं के अनुसार दशहरे के दिन दशानन रावण का पुतला जलाया जाता है। वैसे आश्विन मास की दशमी को ‘विजयादशमी’ भी कहा जाता है। इस दिन शस्त्र पूजन करने का विधान है।
नवरात्रि के नौ दिन आदि शक्ति माँ जगदम्बा के नौ स्वरूपों की आराधना करने बाद दशमी तिथि को सदैव विजय प्राप्त करने की कामना के लिए विधिवत पूजन अनुष्ठान किया जाता है, इसी कारण इसे विजयादशमी कहा जाता है। त्रेतायुग में हुए भगवान श्रीराम ने भी आश्विन मास की दशमी तिथि को विजयापूजन किया था।
आदि शक्ति की विधिवत आराधना के बाद ही उन्होंने राक्षसराज रावण का वध करके लंका विजय की थी। जिसे विद्वानों ने अधर्म पर धर्म की विजय, असत्य पर सत्य की विजय और बुराई पर अच्छाई की विजय कहा है। दशहरे के इर्द-गिर्द प्रचलित मान्यताओं और लोककथाओं के बारे में हम जानते ही हैं।
जिनमें से एक परंपरा है इस दिन ‘दशानन रावण’ का कुम्भकर्ण और मेघनाथ के साथ पुतला जलाना। जब हम ‘दशानन’ कहते हैं तो रावण की एक विशिष्ट विशेषता का पता चलता है। वह विशेषता है उसके ‘दस शीश’ होना, शीश का अर्थ होता है आनन, इसलिए दशानन का अर्थ हुआ दस सिरों वाला।
रावण के दस सिरों को लेकर भी अनेक कथा कहानियां प्रचलन में है। ऐसे में रामायण के रचियता महर्षि वाल्मीकि ने रावण के बारे में क्या लिखा है, यह जानना प्रासंगिक हो जाता है। यहाँ एक बात लिखना आवश्यक है कि महर्षि वाल्मीकि की रामायण को लेकर विद्वानों में ‘प्रमाणिक और प्रक्षिप्त’ को लेकर बहस चलती रहती है, हम उस बहस में नहीं पड़ रहे हैं और जो आज उपलब्ध वाल्मीकि रामायण है उसके आधार पर ही सब लिखा जा रहा है।
इस हेतु हम गीता प्रेस की वाल्मीकि रामायण का उपयोग कर रहे हैं। महर्षि वाल्मीकि की रामायण के उत्तरकांड में ऋषि विश्रवा और केकसी के पुत्र रावण के जन्म की कथा है। उत्तरकांड के नवम सर्ग की श्लोक संख्या 28-29 में रावण के जन्म के बारे में वाल्मीकि लिखते हैं:
एवमुक्ता तु सा कन्या राम कालेन केनचित् ।
जनयामास बीभत्सं रक्षोरूपं सुदारुणम् ॥ २८ ॥
दशग्रीवं महादंष्ट्रं नीलाञ्जनचयोपमम् ।
ताम्म्रोष्ठं विंशतिभुजं महास्यं दीप्तमूर्धजम् ।। २९ ।।
अर्थात्मुनिके ऐसा कहनेपर कैकसीने कुछ कालके अनन्तर अत्यन्त भयानक और क्रूर स्वभाववाले एक राक्षसको जन्म दिया, जिसके दस मस्तक, बड़ी-बड़ी दाडें, ताँबे-जैसे ओठ, बीस भुजाएँ, विशाल मुख और चमकीले केश थे। उसके शरीरका रंग कोयले के पहाड़-जैसा काला था।
इस श्लोक से एक बात तो सिद्ध हो गई कि रावण के दस सिर अथवा मस्तक जन्म के समय से ही थे और 20 भुजाएं थीं। दस सिर वाले इस बालक का नाम उसके पिता ऋषि विश्रवा ने किया था। नवम सर्ग की श्लोक संख्या 33 में वाल्मीकि लिखते हैं:
अथ नामाकरोत् तस्य पितामहसमः पिता ।
दशग्रीवः प्रसूतोऽयं दशग्रीवो भविष्यति ।। ३३ ।।
अर्थात्उस समय ब्रह्माजीके समान तेजस्वी पिता विश्ववा मुनिने पुत्रका नामकरण किया- “यह दस ग्रीवाएँ लेकर उत्पन्न हुआ है, इसलिये ‘दशग्रीव’नामसे प्रसिद्ध होगा”।
इस श्लोक से एक बात और पता चली कि रावण का ‘रावण नाम’ भी पहला नाम नहीं है अर्थात् उसे रावण नाम बाद में मिला है। उसका प्रथम नाम ‘दशग्रीव’ था।
इसी सर्ग में दशग्रीव के शक्तिशाली बनने और ‘रावण’ नाम प्राप्त करने की कथा भी है।सर्ग 16 की श्लोक संख्या 36-37 में भगवान महादेव शंकर कहते हैं:
प्रीतोऽस्मि तव वीरस्य शौटीर्याच्च दशानन ।
शैलाक्रान्तेन यो मुक्तस्त्वया रावः सुदारुणः ।। ३६ ।।
यस्माल्लोकत्रयं चैतद् रावितं भयमागतम् ।
तस्मात् त्वं रावणो नाम नाम्ना राजन् भविष्यसि ।। ३७ ।।
अर्थात्: दशानन । तुम वीर हो। तुम्हारे पराक्रमसे मैं प्रसन्न हूँ। तुमने पर्वतसे दब जानेके कारण जो अत्यन्त भयानक राव (आर्तनाद) किया था, उससे भयभीत होकर तीनों लोकोंके प्राणी रो उठे थे, इसलिये राक्षसराज ! अब तुम रावणके नामसे प्रसिद्ध होओगे।
मतलब ये हुआ कि दशग्रीव को ‘रावण’ नाम भगवान शंकर ने दिया था। वाल्मीकि रामायण के दशानन रावण की कथा त्रेता युग की है और आज कलियुग चल रहा है। वैसे तो रावण के दश सिरों को लेकर वाल्मीकि रामायण में व्याख्या जैसा कुछ नहीं है और न ही यह बताया गया है कि उसके दस सिर किन चीजों या बुराईयों या अच्छाईयों के प्रतीक हैं।
लेकिन, यह बात सत्य है कि समय के साथ ज्ञान का विस्तार होता है और ज्ञान के विस्तार की इसी परंपरा का पालन करते हुए विद्वानों ने दशग्रीव रावण के दस सिरों को बुराईयों के प्रतीक बताया है। इसके पीछे का कारण रावण का दूषित, भ्रष्ट और बुरा व्यक्तित्व और आचरण था।
रावण के व्यक्तितव और आचरण का यदि समग्रता से विश्लेषण किया जाये तो भगवान शिव की पूजा करने के अलावा वह विशुद्ध रूप से दुराचारी, भ्रष्टाचारी, व्यभिचारी और दुष्ट था। आज के समय के अनुसार वह हर बुराई का प्रतीक था। ज्ञान के विस्तार परपरा का पालन करते हुए विद्वानों ने रावण के दस सिरों को निम्नलिखित बुराईयों का प्रतीक बताया है:
- काम (वासना)
- क्रोध
- लोभ
- मोह
- मद (मिथ्या अहंकार, घमंड, दर्प)
- मत्सर (द्वेष, घृणा, ईर्ष्या)
- भय (असुरक्षा, अधीरता)
- भ्रष्टाचार ( दुराचार, व्यभिचार, उपद्रव, निर्लज्जता, चोरी, लूट)
- पारुष्यम (निष्ठुरता, निर्दयता, करुणा का आभाव)
- झूठ और कटु वचन बोलना
रावण के दश सिर उपरोक्त बुराईयों के प्रतीक माने जा सकते हैं, क्योंकि व्यापक रूप से हर बुराई इन लक्षणों में आ जाती है। मनुस्मृति में धर्म के 10 लक्षण बताये गये हैं जिनकी पुष्टि सनातन धर्म के अन्य शास्त्रों में भी होती है। रावण विधर्मी था, उसने सदैव धर्म विरुद्ध कृत्य किये थे।
धर्म विरुद्ध कृत्यों का मतलब ही धर्म के 10 लक्षणों के विरुद्ध काम करना होता है। प्रति वर्ष आश्विन मास की दशमी तिथि को रावण सहित कुम्भकर्ण और मेघनाथ के पुतले जलाने का मतलब ही होता है बुराइयों अथवा दुष्ट वृत्तियों का दमन करना।अब प्रश्न उठता है कि कलियुग में मनुष्य पर इन बुराईयों का प्रभाव न पड़े इसके लिए व्यक्ति को क्या करना चाहिए? या यदि किसी व्यक्ति ये ये सारी बुराईयाँ हैं या इनमें से कुछ हैं, तो इनसे छुटकारा कैसे पाया जाए?
वैसे तो सनातन धर्म के सभी धर्मशास्त्रों में बुरी वृतियों के निदान के उपाय बताये गये हैं, लेकिन महाभारत के अनुशासन पर्व के अंतर्गत आने वाले दानधर्म पर्व में अध्याय 104 में बड़े विस्तार से बताया गया है। इसी अध्याय के श्लोक संख्या 6-9 में कहा गया है:
आचाराल्लभते ह्यायुराचाराल्लभते श्रियम् ।
आचारात् कीर्तिमाप्नोति पुरुषः प्रेत्य चेह च ।। ६ ।।
अर्थात्सदाचारसे ही मनुष्यको आयुकी प्राप्ति होती है, सदाचारसे ही वह सम्पत्ति पाता है तथा सदाचारसे ही उसे इहलोक और परलोकमें भी कीर्तिकी प्राप्ति होती है।
दुराचारो हि पुरुषो नेहायुर्विन्दते महत् ।
त्रसन्ति यस्माद् भूतानि तथा परिभवन्ति च ।। ७ ।।
दुराचारी पुरुष, जिससे समस्त प्राणी डरते और तिरस्कृत होते हैं, इस संसार में बड़ी आयु नहीं पाता।
तस्मात् कुर्यादिहाचारं यदीच्छेद् भूतिमात्मनः ।
अपि पापशरीरस्य आचारो हन्त्यलक्षणम् ।। ८ ।।
अर्थातयदि मनुष्य अपना कल्याण करना चाहता हो तो उसे इस जगत में‘सदाचार’का पालन करना चाहिये। जिसका सारा शरीर ही पापमय है, वह भी यदि सदाचारका पालन करे तो वह उसके शरीर और मनके बुरे लक्षणोंको दबा देता है।
आचारलक्षणो धर्मः संतश्चारित्रलक्षणाः ।
साधूनां च यथावृत्तमेतदाचारलक्षणम् ।। ९ ।।
अर्थात्सदाचार ही धर्मका लक्षण है। सच्चरित्रता ही श्रेष्ठ पुरुषोंकी पहचान है। श्रेष्ठ पुरुष जैसा बर्ताव करते हैं; वही सदाचारका स्वरूप अथवा लक्षण है। उपरोक्त श्लोकों के अर्थ से स्पष्ट होता है जिन धर्म के लक्षणों की बात मनुस्मृति में की गई है यदि उन्हें एक शब्द से परिभाषित करना हो तो वह शब्द है ‘सदाचार’।
रावण दुराचारी था।उस दुराचारी से मानवता को मुक्ति श्रीराम ने दिलवाई थी और प्रभु राम धर्म के विग्रह कहलाते हैं अर्थात् सदाचार की प्रतिमूर्ति थे।उनके साथ हनुमान, जामवान और यहाँ तक कि विभीषण जैसे जितने भी लोग थे, वे सब सदाचारी थे। सरल शब्दों में कहा जाए तो जिन बुराईयों का प्रतीक रावण के दस सिर हैं उन बुराईयों से बचने के लिए शास्त्रसम्मत उपाय है सदाचार का पालन करना।
सदाचार के बारे में विस्तार पूर्वक जानने के लिए महाभारत के अनुशासन पर्व के अंतर्गत आने वाले दान धर्म पर्व का अध्याय 104 पढ़ा जा सकता है। श्रीमदभगवत गीता के 16 वें अध्याय के अध्ययन से भी बहुत लाभ होगा।
नारायणायेती समर्पयामि….
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