हम न तो अदालत जाएंगे और न ही उनकी बनाई कमेटी से बात करेंगे। हमने जो सरकार चुनी है, यह उसका काम है। हम उसी से बात करेंगे और मांगें मनवाएंगे। अदालत से हमारी कोई लड़ाई नहीं है। यह लड़ाई काले कानून बनाने वालों से है। अदालत बीच में मैनेजमेंट का फंडा न अपनाये। वह न्याय करे, जहां अन्याय हो रहा है। सरकार चाहती है कि दलाल हमारी फसल बोएं, काटें और बेचें, हमें यह मंजूर नहीं। यह कहना और मानना है आंदोलनरत किसानों का। हरित क्रांति के अगुआ पंजाब, हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसान केंद्र सरकार के कथित कृषि सुधार वाले तीन कानूनों के खिलाफ पिछले 52 दिनों से संघर्ष कर रहे हैं। उनको देशभर के किसानों का समर्थन हासिल है। ये कानून किसानों के अधिकारों पर डाका डालकर देश के नागरिकों को लूटने का अधिकार कारपोरेट घरानों को देते हैं। कोविड-19 महामारी के दौरान कृषि ही एकमात्र क्षेत्र रहा, जहां विकास दर बढ़ोत्तरी पर थी जबकि बाकी सभी रसातल में। यही कारण है कि कारपोरेट पिछले दो दशक से प्रयासरत है कि वह कृषि क्षेत्र पर एकाधिकार बनाये। अटल बिहारी वाजपेई हों या डॉ मनमोहन सिंह, सभी ने कारपोरेट को फूड प्रोसेसिंग के क्षेत्र तक सीमित किया था। कृषि क्षेत्र में काबिज होने की अनुमति नहीं दी थी। जब मनमोहन सरकार में कृषि क्षेत्र में कारपोरेट को उतारने का प्रस्ताव आया, तो कांग्रेस और भाजपा दोनों के वरिष्ठ नेताओं ने विरोध किया था। नतीजतन वह सिरे नहीं चढ़ सका। आज उसके उलट, वही सब हो रहा है जिसका कभी भाजपा कड़ा विरोध करती थी। सत्य यही है कि यह कानून कारपोरेट की मदद करते हैं न कि किसान और नागरिकों की। सत्तारूढ़ नेता और अदालत यूं व्यवहार कर रहे हैं जैसे आपातकाल हो। नेताओं और संस्थाओं की बदतर दशा पर टिप्पणी करने मात्र पर मुकदमें दर्द किये जा रहे हैं। अदालतें ऐसे सियासी और मौलिक अधिकारों का हनन करने वाले मुकदमों को भी लटकाती हैं।
किसानों से वार्ता के बाद शुक्रवार को कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने यूं व्यवहार किया जैसे वह मालिक हैं और बाकी सभी उनके सेवक। उन्होंने कहा कि यह सिर्फ तीन राज्यों के कुछ किसानों का आंदोलन है। सबसे बड़े विपक्ष कांग्रेस पार्टी के नेता राहुल गांधी के सवाल पर उन्होंने राजनीतिक और नैतिक मर्यादाओं को तो लांघा ही, साथ ही व्यक्तिगत टिप्पणी करने के अलावा कोई जवाब न दे सके। कृषि मंत्री से लेकर उनके विशेषज्ञ तक यह नहीं बता पा रहे कि, एमएसपी की विधिक व्यवस्था, के बिना, अपनी मर्जी से तय किये गए दाम पर कॉरपोरेट को, किसानों से फसल खरीदने की छूट देने का मकसद क्या है? पूंजीपतियों, कॉरपोरेट क्षेत्रों और अन्य किसी भी पैन कार्ड होल्डर को, फसल खरीद कर, असीमित और अनंतकाल तक जमाखोरी को वैध बनाने का मकसद क्या है? अपनी मर्जी से जब चाहें, जैसे चाहें, कृषि उपज को बाजार में, बेचनें और समेटने की मुनाफाखोरी वाली विधिक छूट देने का मकसद क्या है? क्या यह सब कुछ पूंजीपतियों कॉकस के इशारे पर बाजार को काम करने के लिए बाध्य करने वाला नहीं है? यह व्यवस्था आम उपभोक्ता को उनके आगे हाथ फैलाने को मजबूर करने वाला नहीं है? क्या कुछ पूंजीपति मर्जी से दाम तय करके किसान से उपज खरीदें और मर्जी से ही दाम तय कर बाजार में बेचकर आम नागरिकों, किसानों-उपभोक्ताओं का विधिक शोषण नहीं करेंगे? विधिक कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में किसानों को बांधकर सिविल अदालत में जाने के मौलिक अधिकार से वंचित करके उनका हित कैसे किया जाएगा? क्या कल कॉटेक्ट फार्मिग में फंसे किसान बंधुआ मजदूर और बंधुआ खेत में तब्दील नहीं हो जाएंगे? जब इन सवालों के जवाब सरकार के पास नहीं हैं, तो फिर वह इन तीन कानूनों के जरिए किसानों का कौन सा हित साध रही है? मौलिक अधिकारों की संरक्षक और विधि की व्याख्या करने में विधिक रूप से सक्षम सुप्रीम कोर्ट इसकी अनदेखी क्यों कर रही है?
कबीरदास जी का दोहा समीचीन है “अति का भला न बोलना, अति की भली न चूप, अति का भला न बरसना, अति की भली न धूप”। इस वक्त चाहे सरकार हो या अदालतें सभी अति करने को आतुर हैं। हमारे संविधान निर्माताओं ने तीन संस्थाओं को स्वस्थ परंपरा के तहत अलग और चेक एंड बैलेंस की नीति के तहत बनाया था, न कि तीनों को मिलजुल कर काम करने के लिए। स्थिति यह हो गई है कि जो काम सरकार को करना चाहिए, वह सुप्रीम कोर्ट कर रही है। सरकार किसानों से कहती है कि वह सुप्रीम कोर्ट में चल रहे केस में पार्टी बन जायें। सरकार समर्थित संगठनों ने अदालत में मुकदमा दाखिल कर रखा है। अदालत संवैधानिक व्यवस्था पर व्याख्या देने के बजाय सरकार की मंशा के मुताबिक कमेटी बना देती है। जिसके एक सदस्य भूपेंद्र सिंह मान यह कहते हुए उसे छोड़ देते हैं कि वह किसानों के खिलाफ नहीं जा सकते। मतलब साफ है कि कमेटी को क्या रिपोर्ट देनी है! इससे एक सवाल और खड़ा हो जाता है कि या तो राजनीतिक व्यवस्था पंगु हो गई है या फिर न्यायपालिका सरकार के मातहत है। विधायिका पहले ही सरकार की अधीनता स्वीकार कर चुकी है। सुप्रीम कोर्ट ने एक बार फिर अदालत में जो कहा और जो किया, उसमें काफी अंतर है। उसने वही आदेश दिया, जिसके लिए सरकार किसानों से 10 बार सीधे बात कर चुकी है, मगर उन्हें मना नहीं सकी। अदालत में सरकार की ओर से पक्ष रखते हुए उनके वकील ने किसान आंदोलन को खालिस्तानी समर्थक तक बता दिया। अदालत के फैसले को न्यायिक मर्यादा के विपरीत मानते हुए सुप्रीम कोर्ट बार एसोसिएशन के अध्यक्ष दुष्यंत दवे ने इस्तीफा दे दिया। अदालत के फैसले में खास यह है कि याचिकाकर्ताओं ने इन कृषि कानूनों पर रोक लगाने की मांग ही नहीं की थी, इसके बावजूद अदालत ने इस पर रोक लगा दी। दूसरी तरफ पूर्व में इसी अदालत के सामने कई ऐसे मामले आए, जैसे आधार कार्ड, चुनावी बॉंड, सीएए-एनआरसी आदि जिनमें अदालत से मांग की गई थी कि इन पर रोक रोक लगे। मगर सुप्रीम कोर्ट ने ऐसा करने से मना कर दिया था। अटॉर्नी जनरल केके वेणुगोपाल ने अदालत में दलील दी कि किसी भी कानून पर उस समय तक रोक नहीं लगाई जा सकती, जब तक अदालत यह न महसूस करे कि इससे मौलिक अधिकारों या संवैधानिक व्यवस्था का हनन हो रहा है। जबकि आधार की अनिवार्यता और सीएए-एनआरसी लागू होने में मौलिक अधिकारों के हनन का ही मामला बनता था।
देश और उसके किसान शब्दों की बाजीगरी को खूब समझते हैं। प्रधानमंत्री ने स्वामी विवेकानंद की जयंती पर संसद भवन में बच्चों को राजनीतिक परिवारवाद के खतरे से अवगत कराया मगर वह अपनी ही पार्टी में पनपे परिवारवाद पर कुछ नहीं बोल सके। उन्होंने स्वामी विवेकानंद के दिये गये संदेश सर्वजन हिताय, सर्वजन सुखाय को अपनाने पर चर्चा नहीं की। न उन्होंने देश के किसानों के दर्द को समझा और न उन 80 किसानों को श्रद्धांजलि दी जो आंदोलन में अपने प्राण गंवा चुके हैं। देश के किसानों को दिल्ली आने से राज्यों की सीमाओं पर रोका जा रहा है। पंजाब-हरियाणा और पश्चिमी यूपी के किसान दिल्ली न पहुंच जायें, इसलिए सरकार ने सीमाएं और सड़कें बंद कर रखी हैं। हजारों किसानों से शुरू हुआ यह आंदोलन अब लाखों की संख्या में पहुंच चुका है। करोड़ों लोगों का उसे समर्थन भी हासिल है। यह तय है कि सरकार ने हठधर्मी नहीं छोड़ी तो देश अशांति की राह पर चला जाएगा। किसानों के सपूत ही देश और राज्यों की सशस्त्र सेवाओं में हैं। वह लंबे वक्त तक सरकार के तानाशाहीपूर्ण आदेश नहीं मानेंगे। शुक्रवार को कांग्रेस पार्टी ने राहुल गांधी और प्रियंका गांधी सहित अपने सभी बड़े नेताओं को पूरे देश में सड़क पर उतार दिया। उसने किसानों के समर्थन में धरना, प्रदर्शन और गिरफ्तारी दी। कांग्रेसियों ने लाठी भी खाई और सर्दी में वाटर कैनन से भी जूझे। यह भी सच है कि कांग्रेस लगातार इन तीनों कानूनों का संसद से लेकर सड़क तक विरोध करती रही है। जहां कांग्रेस देश के नागरिकों किसानों-मजदूरों की लड़ाई में सड़क पर उतरी है, वहीं भाजपा और उसके संगठन मंदिर के नाम पर चंदा जुटाने के लिए सड़कों पर हैं। इनके नेताओं की ख़ासियत है कि वे मंदिर, सैन्य हथियार, वैक्सीन, किसी नेता की मृत्यु या फिर लंगर, सभी को इवेंट बनाकर अपना वोट बैंक तैयार करने से कभी नहीं चूकते। महामारी और संकट के दौर में भी यही करते रहे हैं। मीडिया “पिटी सर्वेंट” की तरह उनकी वाहवाही और सरकार के विरोधियों को घेरने में लग जाती है। यह देश के लिए घातक है। वक्त रहते हम सभी को चाहिए कि सरकार को सचेत करें, क्योंकि सरकारें आती जाती रहती हैं मगर देश हमारा है और हम देश के।
जय हिंद!
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक मल्टीमीडिया हैं)