“हम भारत के लोग, भारत को एक सम्पूर्ण प्रभुत्व सम्पन्न, समाजवादी, पंथनिरपेक्ष, लोकतंत्रात्मक गणराज्य बनाने के लिए तथा उसके समस्त नागरिकों को, न्याय, सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक, विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्मऔर उपासना की स्वतंत्रता, प्रतिष्ठा और अवसर की समता प्राप्त करने के लिए तथा, उन सबमें व्यक्ति की गरिमा और राष्ट्र की एकता और अखण्डता सुनिश्चित करनेवाली बंधुता बढाने के लिए, दृढ संकल्प होकर अपनी इस संविधान सभा में आज तारीख 26 नवंबर, 1949 ई0 को एतद द्वारा इस संविधान को अंगीकृत, अधिनियमित और आत्मार्पित करते हैं।” य़ह शब्द भारतीय संविधान की उद्देशिका में अंकित हैं। आज के हालात देखकर यह शब्द कोरे कागजी प्रतीत होते हैं। शुक्रवार सुबह हमारी नींद लुटियंस जोन के एक घर में खुली तो मोबाइल फोन पर अलर्ट पड़ा था, खोला तो कुछ देर स्तब्ध रह गया। अचानक आंखें नम हो गईं और चेहरा गुस्से से तमतमा उठा। मुंह से सिर्फ एक ही शब्द निकला, ईश्वर तुम इतने निष्ठुर तो नहीं हो सकते! निरीह बेवश 16 मजदूरों की पैदल अपने घर जाते वक्त रेल पटरी पर मौत हो गई थी। जिन्होंने इन “हत्याओं” के कारण उत्पन्न किये हैं, उनको यथोचित दंड जरूर मिलना चाहिए। जो इन निरीह लोगों के श्रम और कर से सत्ता सुख भोगते हैं, उन्हें कभी माफ नहीं किया जा सकता।
हमें याद है जब 24 मार्च को प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी ने देशभर में 21 दिन के लॉकडाउन की घोषणा की थी। उन्होंने अपने भाषण में स्पष्ट कहा था कि आप जहां हैं, वहीं ठहर जाइये। अपने घरों में रहिये, जान है तो जहान है। हर देशवासी के जीवन को बचाना मेरी और मेरी सरकार की जिम्मेदारी है। देश के बड़ों से लेकर बच्चों तक सभी ने इसका पूर्ण पालन किया। जहां जरूरत हुई सरकार के साथ कदम से कदम मिलाकर काम भी किया। तमाम दिक्कतों को भी लोगों ने लुत्फ की तरह लिया। शायद सरकार के पास लॉकडाउन से निपटने की कोई तैयारी नहीं थी। जब 19 मार्च को मोदी ने जनता को संबोधित किया था, तब भी कोई तैयारी नहीं की गई। नतीजतन देश संकट के जाल में फंस गया। मजदूरों और दिहाड़ीदारों के खाने-पीने, रहने और दवाओं के लिए कोई इंतजाम नहीं था। उनको उनके ठिकानों पर ले जाने के लिए भी कोई व्यवस्था नहीं थी मगर दूसरी तरफ विशेष विमानों की व्यवस्था करके धनाड्य और प्रभावशाली लोगों के परिजनों को भारत लाया गया। सभी को यह पता है कि कोरोना वायरस कोई मजदूर भारत लेकर नहीं आया था, बल्कि वह लोग लेकर आये जो समृद्ध थे। बावजूद इसके कोरोना लॉकडाउन का सबसे अधिक खामियाजा मजदूरों और दिहाड़ीदारों ने भुगता। इनके जीवन को बचाने के लिए संजीदा लोग और संस्थायें सामने आईं। तमाम दावों के बाद भी सरकार नगण्य नजर आई। सरकारी तैयारियों के अभाव में कोरोना संक्रमित बढ़ते गये साथ ही, लॉकडाउन भी बढ़ता गया।
कहावत है, भूखे पेट भजन न होय गोपाला। सरकारी मदद के अभाव में लॉकडाउन 2 के दौरान मजदूरों-दिहाड़ीदारों का सब्र टूटने लगा। राज्य सरकारें वित्तीय संकट में फंसी केंद्र सरकार से मदद मांगती रह गईं। परेशान मजदूर अपने साधनों, पैदल, साइकिल से ही अपनी गठरी और बच्चे लादे घरों को निकलनें लगे। भूख, जिल्लत और पुलिस की लाठियां खाकर भी वो घर पहुंचने को छिपते छिपाते चल रहे थे। कुछ ने रास्तों में दम तोड़ दिया तो कुछ को तेज रफ्तार वाहनों ने कुचल दिया। शुक्रवार को औरंगाबाद में छिपकर रेल पटरियों के रास्ते अपने घर मध्यप्रदेश जाते वक्त 16 मजदूर ट्रेन से कुचलकर मर गये। शनिवार को मजदूरों को लेकर लखनऊ पहुंची ट्रेन में एक युवा मजदूर की मौत हो गई क्योंकि वह कई दिनों कमजोर हो चुका था। लखनऊ में ही साइकिल से छत्तीसगढ़ जा रहे एक मजदूर दंपत्ति को ट्रक ने कुचल दिया। अब तक जो आंकड़े मिले हैं, उससे पता चलता है कि लॉकडाउन के दौरान अपने घरों को निकले 375 मजदूर काल के गाल में समा चुके हैं। दुख के साथ कहना पड़ता है कि लोककल्याणकारी राज्य होने का दम भरने वाली सरकार ने कुछ नहीं किया। केंद्र सरकार ने लॉकडाउन 3 लागू करने के दौरान मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचाने की बात की मगर तब नहीं की, जब पहली बार राष्ट्रबंदी की गई थी। मजदूरों को उनके घरों तक बेकाम खड़ीं रेलगाड़ियां देने के बदले रेलवे ने उनसे किराया वसूलने का फैसला किया। रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष ने कहा किराया इसलिए क्योंकि कोई बगैर जरूरत न जाये। सरकारी आंकड़ों की मानें तो देशभर के मजदूरों को उनके घर जनरल क्लास से पहुंचाने का खर्च 100 करोड़ रुपये से कम है जबकि रेलवे ने पीएम केयर फंड में 155 करोड़ रुपये दिये हैं। रेलवे के मुलाजिम घर बैठे सेलरी ले रहे हैं। संसाधन खड़े-खड़े खर्च करा रहे हैं मगर दबे कुचले मजदूरों के लिए रुपये नहीं हैं।
हमें यह भी याद है कि देशभर के अस्पतालों पर सेना के हेलीकाप्टर से फूल बरसाये गये और इस पर करोड़ों रुपये खर्च हो गये। शुक्रवार को ही एक और खबर आई कि यूपी सरकार ने श्रमिकों को विधिक सुरक्षा देने वाले तमाम कानूनों को तीन साल के लिए निलंबित कर दिया है। कई भाजपा सरकारों ने मजदूरों के काम के घंटे 12 कर दिये हैं। आपको ज्ञात होगा कि 1947 में देश में चंद उपक्रम ही थे। तमाम जरूरी चीजें विदेश से आयात होती थीं। प्रथम प्रधानमंत्री पंडित जवाहर लाल नेहरू ने अपनी पहली कैबिनेट में ही यह प्रस्ताव पास किया था कि आयात होने वाले सभी सामान वैकल्पिक रूप से हम बनाने की क्षमता विकसित करें। 1948 में बनी पहली औद्योगिक नीति में यही उद्देश्य रखा गया। देश में सबकुछ बनने लगा। औद्योगिककरण के दौर में श्रमिकों का चिंतन भी उतनी ही गंभीरता से किया गया। नतीजा, श्रमिकों के हितों का संरक्षण अनिवार्य था। यह नीति 1991 तक चली मगर उदारीकरण के दौर में जब श्रमिक हित सोचने का दौर खत्म होना शुरू हुआ तो अब उनका कोई न आका रहा और न कोई संगठन। सार्वजनिक उद्योग भी खत्म हो रहे हैं और श्रमिकों के हित भी। इसी तरह लघु और मध्यम उद्योगों की भी दशा है, जो सबसे ज्यादा श्रम प्रदान करते हैं। एमएसएमई सेक्टर को कारपोरेट के आगे इतना कमजोर कर दिया गया है कि वह भी भिखारी की तरह खड़ा हैं। उनकी सुनने वाला कोई नहीं है।
मोदी सरकार के राहत पैकेज से उनको मदद मिल रही है, जो समृद्ध हैं। उसके पास न तो मजदूरों के लिए कुछ है और न मजदूरों को रोजगार देने वालों के लिए। सरकार समृद्ध परिवारों के लोगों को विदेश से विशेष विमानों से ला रही है मगर स्टेशनों पर खड़ी गाड़ियां चलाकर मजदूरों को लाने को तैयार नहीं। सरकार की इस नीति पर सकारात्मक हमला करते हुए कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी ने अपने मुख्यमंत्रियों और स्थानीय नेताओं से मजदूरों की मदद करने को कहा, जिससे पंजाब, राजस्थान, छत्तीसगढ़, केरल आदि में सरकारों ने अथवा कांग्रेस के कार्यकर्ताओं ने मजदूरों के खाने-खर्चे का भार उठाया है। दूसरी तरफ, यूपी के सीएम योगी आदित्यनाथ ने कहा कि पुलिस सुनिश्चित करें कि कोई मजदूर पैदल भी राज्य में प्रवेश न कर पाये, इसके बाद तो मजदूरों पर पुलिसिया कहर बरपने लगा है। सरकार की यह नीति निश्चित रूप से संविधान की उद्देशिका का मखौल उड़ाने वाली है। पीड़ित को सरकार से मदद की दरकार होती है। निर्बल को संबल की। जब यह दोनों नहीं होते तो इसे जनविरोधी नीति कहते हैं। न खाना, न संरक्षण और न मदद। सरकार से यह उम्मीद तो नहीं होती। वह तो सहारा होती है। ऐसे वक्त में पीड़ित का हितैषी बनकर वह सब करना चाहिए, जिसकी उसे जरूरत है।
जयहिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)