हमारे न्यूजबाक्स में मुंबई ब्यूरो से एक खबर आई कि सीसी टीवी में रोटी चोरी करने की एक घटना कैद हुई है। चोर ताला तोड़कर अंदर जाता है। वह कोई कीमती चीज नहीं उठाता बल्कि सिर्फ रोटी लेकर चला जाता है। शायद, उसके लिए रोटी से अधिक कीमती कोई चीज नहीं थी। देश भर के करीब 80 लाख मजदूर अपने घरों को पलायन कर गये हैं। इन मजदूरों में 81 भूख से मर गये। सड़कों पर पैदल चलते करीब एक हजार मजदूर मरे। कुछ घर या उसके पास पहुंचकर मर गये। मरने वाले मजदूरों के प्रति शासन सत्ता और उसके मंत्रियों ने कोई दुख व्यक्त नहीं किया। एक व्यापारी टाइप के नेता से जब हमने सवाल किया कि आप लोग सत्ता पाकर इतने असंवेदनशील हो गये हैं, तो बोले मजदूर बहुत बदमाश हैं। जब व्यवस्था की जा रही है, तो इंतजार क्यों नहीं करते। हमने ग्रेटर नोयडा के पास सड़क पर चलते एक मजदूर से यही पूछा कि आप पैदल क्यों जा रहे हैं, जब सरकार ट्रेन बस चला रही है। उसने उलट सवाल किया, किसको बस ट्रेन ले जा रही है, साहब! चार दिन एक वक्त की खिचड़ी खाकर इंतजार किया, कुछ नहीं मिला। अपने जख्मी पांव दिखाते हुए बोला, हमें आपकी तरह खाना पचाने के लिए पैदल चलने का शौक नहीं है। मजबूरी हैं। सरकार करती इत्ता और दिखाती पहाड़ जित्ता है। हकीकत आप ही देख लीजिए, सड़क पर कितने लोग चले जा रहे हैं।
गुरुवार को सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से कहा कि वह मजदूरों को उनके घरों तक पहुंचा दे। हमें हंसी आई और दुख भी हुआ। हमने खुद से सवाल किया कि क्या देश की सबसे बड़ी अदालत में बैठे न्ययमूर्ति गण इतने निकम्में हैं कि उन्हें मजदूरों का दर्द तब दिखा, जब 97 फीसदी मजदूर मरते-खपते कोरोना साथ लेकर अपने घरों तक पहुंच गये। क्या यह जज साहबान तब सो रहे थे, जब उन मजदूरों पर डंडे बरस रहे थे। उनके पांव फट रहे थे। वह भूखे प्यासे हादसों में मर रहे थे। 20 वकीलों ने तो सुप्रीम कोर्ट को चिट्ठी लिखकर इस दर्द पर तत्काल कदम उठाने का आग्रह किया था। बड़ी जिम्मेदारी के साथ हम महसूस करते हैं कि अपने 46 साल के जीवन में पहली बार इतनी निकम्मी न्यायपालिका देखी है। बहराल, न्यायपालिका को दोषी ठहराने से पहले हम उन जन प्रतिनिधियों को भी लानत देते हैं, जिन्हें चुनकर सत्ता तक इन्हीं गरीब गुरबों ने पहुंचाया है। वह सब अपने घरों में बैठे पकवान का स्वाद लेने में व्यस्त हैं। सड़कों पर वह लोग काम करते दिखे, जो संवेदनशील थे या जिनकी कुर्सी इसी जनता ने छीनी थी। प्रियंका गांधी की टीम 1200 बसों के साथ यूपी सीमा पर खड़ी थी मगर योगी सरकार उन पर लांछन लगाकर इन्हीं कांग्रेसियों को जेल भेजने में व्यस्त थी। रेलवे, भूखे मजदूरों से डेढ़ गुना किराया वसूल रही थी। रेलवे बोर्ड के अध्यक्ष वीके यादव ने कहा कि 3840 श्रमिक स्पेशल ट्रेन भेजी गईं हैं। सरकारी आंकड़ें बताते हैं कि सवा 42 लाख लाख मजदूर इन ट्रेनों से गये हैं यानी आधे मजदूर पैदल ही अपने घर पहुंचे हैं।
वीके यादव ने यह भी दावा किया कि इन श्रमिकों को 85 लाख पैकेट खाना दिया गया। उनके इस दावे को झुठलाने के लिए झारखंड से आई खबर थी, जब मजदूरों ने खाने को लेकर शिकायत की तो अधिकारी बोले ट्रेन से कूद जाओ। यह सब घट रहा था और रेल मंत्री पियूष गोयल अपनी तारीफ और कांग्रेसी नेताओं की बुराइयां करने में व्यस्त थे। भाजपा के कुछ बड़े नेता सरकारी खरीद में कमाई करने में व्यस्त थे। हिमाचल भाजपा अध्यक्ष पर सीधे पीपीई किट और दूसरे स्वास्थ उपरकरणों की खरीद में घूस लेने का आरोप लगा। कर्नाटक में भी इसी तरह खरीद में भ्रष्टाचार करने का आरोप लगा। इनको देखते हुए एक आरटीआई एक्टिविस्ट ने जब स्वास्थ मंत्रालय से कोविड-19 के लिए सुरक्षा उपकरणों की खरीद का ब्यौरा मांगा तो मंत्रालय ने साफ मना कर दिया। मजदूरों, जरूरतमंदों को खाने खिलाने के नाम पर सरकारी अधिकारियों और सत्तारूढ़ नेताओं के कॉकस ने अरबों रुपये खिला देने की बात कही है मगर जमीनी हकीकत यह है कि मजलूमों को सिविल सोसाइटी, गुरुद्वारों और संवेदनशील लोगों ने खाना खिलाया है। दिल्ली, केरल, पंजाब, राजस्थान सहित कुछ राज्यों को छोड़ दें, तो मजदूर भूख से मरते मिले हैं। कहीं स्वच्छता के नाम पर कोई सार्वजनिक धन खा गया तो कहीं कोई गरीबों का अनाज। कहीं मास्क, साबुन और सेनेटाइजर के नाम पर फर्जी बिल बन गये। मजबूर युवक रोटी चोरी करता रह गया। इन हालात पर भी समाचार माध्यम खामोश हैं। सरकार और जनप्रतिनिधि किसी खोह में गुम हुए लगते हैं।
आज हिंदी पत्रकारिता दिवस है। कानपुर से कोलकाता वकालत करने गये पंडित जुगल किशोर शुक्ल ने हिंदी का पहला अख़बार ‘उदंत मार्तंड‘ 30 मई, 1826 को प्रकाशित किया था। हमें बड़ी खुशी होती थी, कि हम उस परिवार से हैं क्योंकि वह हिंदी पत्रकारिता ही थी, जिसने देश की आजादी की लड़ाई को मजबूत आधार दिया था। अब हिंदी पत्रकारिता का जो स्वरूप देखता हूं, तो दुख होता है। हमने जब पत्रकारिता शुरू की थी, तो बताया गया था कि हम उनकी आवाज बनते हैं, जिनकी सत्ता नहीं सुनती है। अब जो देख रहा हूं, उसमें सत्ता से जनता के सवाल नहीं होते बल्कि सरकारी प्रवक्ता की भाषा होती है। मंत्री इंटरव्यू के पहले सवालों की फेहरिस्त मांगते हैं। हाल ही में हमने इसी कारण वित्त मंत्री का इंटरव्यू करने से मना कर दिया। तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेई की बात याद आती है कि अगर राजनेता पत्रकार से पहले ही सवाल मांग ले, तो समझ लीजिए कि वह मूढ़ है। जो पत्रकार ऐसा करे, वह लालची है। ल़ॉकडाउन के दौरान हमने उतर भारत में अब तक पांच हजार किमी का सफर तय किया है। इस दौरान जो देखा, वह लिखा और बोला। सत्ता उसका जवाब नहीं देती क्योंकि उसका मानना है कि वह आपकी बात सुनने या करने के लिए नहीं बैठी है। वह तो पत्रकारों और संचार माध्यमों का सिर्फ इस्तेमाल करती है, जिससे हमारी विश्वसनीयता गिरी है।
देश में इस वक्त जो हालात हैं, उन्हें देखकर कहा जा सकता है कि सारी व्यवस्थायें ध्वस्त हो गई हैं। कच्चे तेल के दाम फर्श पर हैं मगर आमजन के लिए उसकी कीमत अर्श पर है। सड़कों पर नाइंसाफी साफ झलक रही है मगर न्यायपालिका खामोश है क्योंकि सब “लॉकडाउन” है। अफसरशाही सियासी गठबंधन के साथ लूट रही है मगर उस पर वॉचडॉग की तरह नजर रखने वाले “वर्क टू होम” हैं। जनता ने जिसे अपने हितों को संरक्षित करने के लिए चुना है, वो कहते हैं कि जान है तो जहान है, हम आपके लिए नहीं निकलेंगे। एक तरफ डॉक्टर, नर्स, सफाईकर्मी, पुलिस और पत्रकार जनहानि रोकने को मर रहे हैं मगर सरकार के पास उनके लिए कुछ नहीं है। ऐसे हजारों लोगों की न सिर्फ नौकरियां जा रही हैं बल्कि सरकारी अव्यवस्था का शिकार हुआ अर्थतंत्र उन पर हमले कर रहा है। जिससे कोई आत्महत्या कर रहा तो कोई हत्या। अगर यही लोकतंत्र है, तो निश्चित रूप से कलंकित करने वाला है। हमारे जनप्रतिनिधियों और हमारे टैक्स के धन से लूटकर ऐश करने वाले अफसरों को सोचना होगा कि हिंदू-मुस्लिम, पाकिस्तान जैसे एजेंडे सेट करके वह कुछ वक्त बचे रह सकते हैं मगर एक दिन सभी को मरना है। इतिहास साक्षी है कि मरने वाला साथ सिर्फ दुआएं ही ले जाता है, धन-संपत्ति नहीं।
जयहिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)