हमारे एक मित्र ने 1948 की एक घटना की याद दिलाई, जब पंडित जवाहर लाल नेहरू प्रधानमंत्री थे। उन्हें सूचना मिली कि चांदनी चौक में लोग एक दूसरे को मार काट रहे हैं। नेहरू तुरंत सभी काम छोड़ जीप लेकर मौके पर पहुंचे। जीप के बोनट पर खड़े होकर उन्होंने मारकाट करने वालों को ललकारा। वह जोर जोर से चींखने लगे, आओ, तुम सब मिलकर पहले मुझे मार डालो। जब लोगों ने नेहरू को देखा तो अपने लाठी डंडा, हथियार छिपाने लगे। नेहरू जोर जोर से चींख रहे थे कि आओ मुझे मार डालो। आओ, मुझे मार डालो। नेहरू को इस रूप में देखकर बलवाई गलियों में भागने लगे। दंगा रुक गया। नेहरू म्युजियम में पुलिस के रोजनामचा आम की प्रति रखी है, जिसमें इस घटना का जिक्र है। पिछले एक सप्ताह से दिल्ली जल रही है। चार दिनों तक कई मोहल्ले जलते रहे मगर मौके पर न कोई जन प्रतिनिधि गया और न पुलिस आयुक्त। गृह मंत्री अमित शाह ने तो सुध ही नहीं ली। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने जब चार दिन बाद ट्वीट किया, तो उन्होंने रीट्वीट कर दिया, फिर अफसरों को निर्देश दिये। राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल अपना काम छोड़ कानून-व्यवस्था का जायजा लेने पहुंचे। उसके दूसरे दिन दिल्ली शहर के उप राज्यपाल मौके पर गये। इस दंगे में पुलिसकर्मियों सहित 42 लोग मर चुके हैं और 300 से अधिक अस्पतालों में मौत से जूझ रहे हैं। अरबों रुपये की संपत्ति जलकर खाक हो गई। सैकड़ों परिवार पलायन कर गये हैं। सत्तारूढ़ दल के नेताओं को इसलिए फिक्र नहीं क्योंकि मरने वाले 96 फीसदी उस समुदाय से हैं, जिसे वह अपना वोटर नहीं मानता। प्रधानमंत्री मोदी ने भी चंद दूरी पर मौका देखना भी मुनासिब नहीं समझा।
भारतीय संस्कृति में सिर्फ शिव ही ऐसे देव हैं, जिन्हें महादेव कहते हैं। हमें उनके पूरे परिवार से प्रेम है। यह प्रेम इसलिए है क्योंकि उनका चाल-चरित्र महानता की अनुभूति कराता है। वो किसी से कुछ पाने की नहीं, सिर्फ देने की चाहत रहते हैं। मान्यता है कि कानून व्यवस्था और न्याय, शिव का विषय है। वो औघड़दानी हैं, सुर और असुर में भेद नहीं करते। न्याय करते, यह नहीं देखते कि सामने कौन है। धर्मिक सियासत से सत्ता पाये लोग शिव परिवार से भी कुछ सीखना नहीं चाहते। शायद तभी ऐसा व्यवहार करते हैं। पिछले सप्ताह जब दिल्ली के जाफराबाद में सीएए, एनआरसी के खिलाफ एक समुदाय के लोगों ने धरना प्रदर्शन किया तो भाजपा की टिकट पर चुनाव हारे पूर्व विधायक ने पुलिस के सामने धमकी देकर लोगों की भावनाओं को भड़काया। नतीजतन सांप्रदायिक संघर्ष शुरू हो गया। पूर्व विधायक के समर्थकों ने हिंसक दंगे शुरू किये। सीएए-एनआरसी से डरे सहमें समुदाय के तीन दर्जन लोग मारे गये। कुछ पूर्व विधायक समर्थक और दो पुलिस कर्मी भी हिंसा का शिकार हुए। सैकड़ों लोगों के घर जला दिये गये, संपत्ति लूट ली गई। पुलिस दो दिनों तक खामोश तमाशाई बनी रही। जब पुलिस कर्मी मरा, तब वह एक्शन में आई मगर देर हो चुकी थी। इस घटना की जब समीक्षा की जाती है तो दंगाई प्रवृत्ति के नेता और उनके समर्थक इसे हिंदू-मुस्लिम का वोटबैंक बनाने लगते हैं। हाईकोर्ट के आदेश पर भी भाजपा के नेताओं पर एफआईआर दर्ज नहीं होती मगर विरोधी दलों के कार्यकर्ताओं पर मुकदमें और जेल हो जाती है।
सोशल मीडिया पर जब लिखा जाता है कि जाफराबाद में जो घटा वह शर्मनाक है, तो इस विचारधारा और दल के समर्थक दंगे का जहर बोने वाले पूर्व विधायक को सही ठहराते हैं। हत्याओं का समर्थन करते 1984 के दंगे का उदाहरण देते हैं। ऐसे लोग इस सत्य को नहीं बताते कि 1984 के दंगों में 37 मुजरिम उन्हीं की विचारधारा-दल के थे। एक ने तो “गोली मारो सालों को” का भी समर्थन किया। यह लोग जज भी बन जाते हैं और पुलिस भी। ऐसे लोग कहते हैं कि हिंदुओं के धैर्य की सीमा टूट गई। वह इसकी निंदा नहीं करते कि इसी जहरीली सोच ने 42 लोगों और मानवता की सरेआम हत्या कर दी। ऐसे लोग 1947 में धर्म के आधार पर हुए देश के बंटवारे को ढाल बनाते हैं। वो कहते हैं कि बंटवारे के बाद मुसलमान पाकिस्तान क्यों नहीं गये? जैसे देश को आजादी उन्होंने दिलाई हो। शर्म आती है, इस सोच वालों पर। पाकिस्तान धर्म के आधार पर मुस्लिम देश बना। हमें गर्व करना चाहिए कि भारत ने धार्मिक विभाजन को स्वीकार नहीं किया और देश धर्मनिरपेक्ष बना। जिन मुसलमानों ने भारत को अपना देश माना, तमाम दिक्कतों के बाद भी यहीं रुके, उन्हें हम गद्दार कहकर क्या देश का एक और बंटवारा करने की नीव नहीं रख रहे? जिन हिंदुओं ने पाकिस्तान को अपना माना, वो वहां रह गये। हम अब पाक को अपना देश मानने वाले हिंदुओं को सम्मान देने को तैयार हैं मगर उन्हें जलील करते हैं, जिन्होंने भारत को चुना। यह कौन सी नीति है? हम तो शिव के देश में रहते हैं, जो हमें सबसे जुड़ना सिखाते हैं। खुद जहर पीकर भी दूसरों को विष से बचाते हैं। यह कौन सी विचारधारा है कि हम विभाजन के दोषी जिन्ना और सावरकर को पूजें मगर विभाजन के विरोधियों और धर्म निरपेक्षता देने वालों की हत्या करने की साजिश रचें।
हम जब शिव के कानून-व्यवस्था और न्याय के माडल पर विश्वास करते हैं, तो सुखद अनुभूति होती है। वह अपने पुत्र गणेश को सुमुख बनाकर सबका मंगल करते हैं। अत्याचारियों को बगैर किसी भेद के सजा देने के लिए पुत्र कार्तिकेय को अपने से दूर भेज देते हैं। मां पार्वती दुष्टों को सजा देने को महाकाली बनती हैं, तो कभी मातृत्व के लिए महागौरी बन प्रेम बरसाती हैं। शिव परिवार का दर्शन हमें सिखाता है कि हम अपने लिए या अपनों के लिए ही न जियें, बल्कि स्वयं को मानवता की सेवा में समर्पित करें। यही हिंदू धर्म है। हम बगैर किसी भेद के प्रकृति का संरक्षण करें और सबके साथ न्याय भी। दिल्ली के दंगों की गंभीरता देख जस्टिस मुरलीधरन ने आधी रात को भी अदालत लगा पीड़ितों को तत्काल मदद और संरक्षा दिलाई। सुबह फिर सख्ती से इंसाफ की राह दिखाई मगर उनका इंसाफ शायद, सरकार को रास नहीं आया। आधी रात में ही सिर्फ उनके तबादले की अधिसूचना जारी कर दी, जबकि 12 फरवरी को तीन जस्टिस का तबादला करने की सिफारिश की गई थी। तय है कि यह तबादला रुटीन नहीं था। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस संजय किशन कौल और जस्टिस केएम जोसेफ ने शाहीनबाग के शांतिपूर्ण प्रदर्शन पर सुनवाई करते कहा कि दिल्ली में जो हुआ वह ‘दुर्भाग्यपूर्ण है। उन्होंने कहा कि, ‘पुलिस की निष्क्रियता को लेकर मैं कुछ कहना नहीं चाहता मगर ऐसा नहीं करता हूं, तो ये मेरे कर्तव्य के साथ न्याय नहीं होगा। इस देश के प्रति, इस संस्थान के प्रति मेरी निष्ठा है’। इस टिप्पणी पर भी सबका साथ, सबका विकास और सबका विश्वास की बात करने वाले शर्मसार नहीं हैं।
कुछ सालों से उच्च न्यायपालिका पर दाग लग रहे हैं। कारण, व्यक्ति, संस्था और सरकार को देखकर होता न्याय है। हाल ही में सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस अरुण मिश्र दरबारी बन गये। उन्होंने न्यायिक गरिमा के विपरीत सत्ता का चारण करने वाला संबोधन दिया। बार काउंसिल आफ इंडिया ने उनके चाटुकारिता वाले बयान पर निंदा प्रस्ताव पास किया, कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और कानून मंत्री रवि शंकर प्रसाद की तारीफ में कसीदे पढ़कर जज ने सुप्रीम कोर्ट के पारंपरिक शिष्टाचार की शर्तों को नष्ट किया है। अध्यक्ष ललित भसीन ने कहा कि न्यायाधीश का यह संबोधन न्यायिक निष्पक्षता और स्वतंत्रता को संदिग्ध बनाता है। जहां जस्टिस अरूण मिश्र चाटुकारिता में व्यस्त हैं, वहीं कुछ दूसरे न्याय को बचाने में। इसी का फायदा उठा सत्ता अपने माफिक सबकुछ ढाल रही है। ढाई महीने पहले सांप्रदाय आधार पर नागरिकता अधिनियम में संशोधन किया गया। उसके पहले जम्मू-कश्मीर को संविधान में प्रदत्त विशेषाधिकार खत्म किये गये। इस पर एक समुदाय के मन में भय और आशंका है। सरकार और जन प्रतिनिधियों का दायित्व था कि वे इस भय और आशंका को खत्म करे मगर ऐसा नहीं हुआ। इसके खिलाफ आंदोलन शुरू हुए तो हिंदुस्तान-पाकिस्तान बोलकर जहर उगला जाने लगा। सरकार की अदूरंदेशी के चलते छात्र-छात्राओं को पीटा गया, उन्हें गोलियों से भूना गया। इन हिंसक हालातों पर अमेरिकी सांसदों ने कड़ी प्रतिक्रिया दी। भारत समर्थक सांसद प्रोमिला जयपाल ने कहा “भारत में धार्मिक असहिष्णुता में वृद्धि भयावह है। लोकतांत्रिक देशों को विभाजन और भेदभाव बर्दाशत नहीं करना चाहिए, ऐसे कानून को भी बढ़ावा नहीं देना चाहिए जो धार्मिक स्वतंत्रता को कमजोर करता हो। दुनिया सब देख रही है”। हमारे लिए यह आत्म चिंतन का विषय होना चाहिए कि जो अमेरिकी समूह हमारा समर्थक था, वही निंदा कर रहा है।
कश्मीर में हालात सुधरने का दावा किया जाता है मगर कश्मीर को भारत का अंग बनवाने वाले परिवार को जेल में डाल दिया जाता है। लोकतांत्रिक गणराज्य होने का हम दम भरते हैं मगर अपने ही लोगों को सहमति न होने पर देशद्रोही साबित करते हैं। इसका नतीजा यह है कि नफरत के बीज खत्म होने के बजाय पेड़ बन रहे हैं। पुलवामा हमले के आरोपी को जमानत मिल जाती है क्योंकि एक साल बाद भी चार्जशीट दाखिल नहीं होती। हालात देख लगता है कि अदालतें भी पीपीपी मोड में आ गई हैं। सरकार के लिए पोस्टपोन, सरकार के लिए पूर्व निर्धारित और सरकार के समक्ष प्रार्थना की नीति पर न्याय हो रहा है। सोचिये, हम कहां जा रहे हैं?
-जयहिंद
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(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)