Waah! Anu Waah! वाह! अनु वाह!

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वह लड़की कोई सेलिब्रिटि नहीं है, न ही सियासत से जुड़ी है, न ही किसी रसूखदार परिवार से आती है। जी हां, वह एक साधारण लड़की है। लेकिन उसे साधारण कहना गलती होगी… वह साधारण नहीं, बल्कि बेहद ही असाधारण लड़की है। उसने पूरे देश को जतला दिया कि विद्रोह करने के लिए, अन्याय के खिलाफ लड़ने के लिए, आवाज बुलंद करने के लिए भीड़ की जरूरत नहीं है। विद्रोह अकेले भी हो सकता है बशर्ते कि अन्याय के खिलाफ लड़ने का वो माद्या हो, वह जज्बा हो और हो उर्जा से जबरेज हौसला। महात्मा गांधी की 150वीं जयंती मनायी जा रही है। लेकिन गांधी की 150 वीं जयंती के अवसर पर गांधी के मूल्यों को किसी ने यकीनन साकार किया है तो अनु दुबे ने किया कि बुराई के खिलाफ हमेशा खड़ा होना चाहिए। और हां, अगर हमारा कॉज सही है तो कारवां खुद-ब-खुद बनता जाएगा।
पिछले शनिवार को एकाएक अनु दुबे नाम की लड़की ने देश की निगाहों को अपनी ओर खींचा, मीडिया में दिनभर अनु दुबे की जद्योजहद की खबर चलती रही। हैदराबाद में एक डॉक्टर के साथ हुए गैंगरेप और उसे जलाकर मार देने की हैवानियत के खिलाफ एक लड़की इतनी हिल गई कि सुबह सात बजे अकेले ही संसद के बाहर हाथ में तख्ती लिए धरने पर बैठ गई बगैर किसी परिणाम की परवाह किए। लेकिन एक अकेली लड़की का संसद के सामने धरने पर बैठ जाना और सरकार व सिस्टम से सवाल करना पुलिस को, सिस्टम को, सरकार को नागवार गुजरा।
पुलिस वालों ने उसे वहां से जबरन उठाकर संसद मार्ग थाने ले आये और उस मासूम लड़की के साथ कथित रूप से बदतमीजी की। पुलिस वालों ने जब कहा कि यहां बैठने की इजाजत नहीं है तो उस लड़की ने जो सवाल किया, उस पर हम सभी को सोचने की जरूरत है। उस लड़की ने पुलिस वालों से सवाल किया कि यहां बैठने की इजाजत नहीं है, लेकिन हमारे साथ बलात्कार करने की इजाजत है। कितना बड़ा सवाल दागा है अनु दुबे ने और उसके सामने सिस्टम रिरियाता-घिघियाता नजर आता है। अनु ने कहा कि वह पूरी रात सो नहीं पाई। यह सिर्फ एक रात की बात नहीं है। वह सरकार से पूछने आई थी कि आखिर महिलाएं सुरक्षित क्यो नहीं हैं? यह दरिंदगी कब रुकेगी? लेकिन विडम्बना देखिए कि लड़कियों व महिलाओं पर होने वाली हैवानियत को लेकर वह जिस सिस्टम से सवाल कर रही थी, उसी सिस्टम की अंग महिला पुलिस ने उसके साथ मारपीट की, उसे नाखून चुभोए और दिल्ली महिला आयोग की अध्यक्ष ने जाकर उसे थाने से मुक्त कराया। अनु दुबे की संवेदना यहीं नहीं रुकती है। उसने कहा कि कुछ दिनों पहले मैं बाइक के साइलेंसर से जल गई थी, बहुत दर्द हुआ था। अब जब तुम्हारे बारे में सुना कि दरिंदों ने दुष्कर्म के बाद तुम्हें जलाकर मार दिया तो रुकने का मन नहीं हुआ। लेकिन महिला पुलिस कर्मियों को उस लड़की की संवेदना से क्या लेना-देना? उसे तो संवेदना को कुंद कर ड्यूटी बजानी और सलामी ठोकने को सिखाया गया है। और हां, तेलंगाना के राज्यपाल टी सुंदरराजन ने कहा है कि इस वीभत्स घटना में आरोपियों के खिलाफ रोजाना सुनवाई की जाएगी। लेकिन उन पुलिस वालों को क्यों नहीं दोषी ठहराया जाना चाहिए और क्यों नहीं उनके खिलाफ भी सुनवाई होनी चाहिए जिन्होंने बलात्कार के बाद मारी गई उस लड़की के पिता से कहा कि आपकी बेटी किसी के साथ भाग गई होगी और फिर उस लड़की के पिता और बहन को इस थाने से उस थाने टहलाया गया कि मामला इस थाने के क्षेत्र का नहीं है, उस थाने का है। किसने हक दिया है इन संवेदनहीन पुलिस वालों को किसी लड़की का चरित्र हनन करने का? आखिर किसने? लेखक लंबे दिनों टीवी पत्रकारिता से जुड़े रहने के बाद अब साहित्यिक लेखन से जुड़े हैं। ‘खामोश लम्हों का सफर’  नाम से लेखक का उपन्यास आया है जिस पर फीचर फिल्म का निर्माण हो रहा है और रात, खामोशी और तुम’ नाम से नज्मों का संग्रह आया है।

-नीलांषु रंजन