विवेकानंद के लिए गांधी पर टिप्पणी करना अपने जीवन में संभव नहीं था क्योंकि तब तक गांधी की कोई ख्याति नहीं बन पाई थी। हमारी सदी के हिन्दुस्तान को उन दो व्यक्तियों ने सबसे ज्यादा झकझोरा। दोनों ब्रिटेन और पश्चिम की सभ्यता के सबसे कटु आलोचक। दोनों हिन्दुस्तान के गरीबों के सबसे बड़े रहनुमा। दोनों हिन्दू-मुसलमान और ईसाई धर्मों के कट्टरपंथियों के साहसी आलोचक। आज जरूरत है इक्कीसवीं सदी की दहलीज पर गांधी और विवेकानंद के विचारों का पारस्परिकता और परिपूरकता की आग पर पड़ी राख की पपड़ी को फूंका जाये। दोनों को लेकर हमारी बुनियादी समझ के बारे में ऐसा राष्ट्रीय दृष्टिकोण विकसित किया जाये जो गाढ़े वक्त पर इक्कीसवीं सदी के काम आये। विवेकानंद कुल चालीस बरस जिये। उन्हें अपनी मृत्यु का पूवार्भास था। गांधी अस्सी बरस जिये। वे एक सौ पच्चीस बरस जीना चाहते थे। उन्हें अपनी मृत्यु का पूवार्भास नहीं था।
विवेकानंद ने गांधी से पहले घोषणा की थी कि भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस जैसी संस्था अंग्रेजों से यदि स्वतंत्रता मांगती रहेगी तो वह उसे कभी नहीं मिलेगी। जब स्वामी विवेकानंद इंग्लैंड में ऐसा कह रहे थे, तब गांधी दक्षिण अफ्रीका में मैदानी लड़ाई लड़ रहे थे। क्या वजह है कि स्वामी विवेकानंद के शताब्दी ग्रंथ ‘1963’ के किसी भी लेख में गांधी की याद नहीं की गई, जबकि विवेकानंद को समझने में लोकमान्य तिलक, स्वामी दयानंद सरस्वती, महर्षि अरविंद, जवाहर लाल नेहरू आदि का उल्लेख हुआ है। असल में विवेकानंद और गांधी भारत की खोज और समझ के प्रयास में एक दूसरे का तादात्म्य और व्याख्या हैं। इसे समझने पर ही बीसवीं सदी के हिन्दुस्तान का मर्म समझा जा सकता है। विवेकानंद को उत्तेजना और गांधी को निकम्मेपन का नेता बनाने की एक गहरी साजिश पश्चिम के बुद्धिजीवियों के इशारे पर की गई है। आज की मालिक ईसाई सभ्यता को शेर की मांद में घुसकर चुनौती देने वाले विवेकानंद को भगवाधारी संन्यासी कहकर उनकी खिल्ली उड़ाने का काम पश्चिम ने कितना नहीं किया है? दुनिया की बीसवीं सदी को लेकर विवेकानंद की भविष्यवाणियों ने आलोचनाओं का मुखौटा नोचकर फेंक दिया।
विवेकानन्द ने अपनी विनम्रता में कहा था उन्हें राजनीति में कोई दिलचस्पी नहीं है। वह उनका क्षेत्र नहीं है। आशय था वे तत्कालीन राजनीतिक आंदोलनों या गतिविधियों में प्रतिभागी के रूप में हिस्सा नहीं लेना चाहते थे। शुरूआत में विवेकानन्द ने भारतीय आजादी के लिए क्रांतिकारी होने का रास्ता चुना था। उन्होंने बंगाल के कई नवयुवकों को इसके लिए प्रेरित भी किया था। उनके निधन के बाद कई नवयुवक क्रांतिकारी के रूप में अरविन्द घोष की अगुवाई में सक्रिय भी हुए। विवेकानन्द को लेकिन छोटे बड़े राजे महराजों और पूजीपतियों से आर्थिक सहायता की उम्मीद थी। वह उन्हें नहीं मिली। इससे क्षुब्ध होकर उन्होंने परिस्थितियों के चलते साामाजिक आन्दोलन का बीड़ा उठाया। एक सवाल के जवाब में विवेकानन्द ने 1896 में लंदन में कहा था कांग्रेस को मैं बहुत अधिक नहीं जानता हूं लेकिन उसका आंदोलन महत्वपूर्ण है और उसकी सफलता की कामना करता हूं। उन्हें तत्कालीन कांग्रेस की ढुलमुल नीति पसंद नहीं थी। इन्हीं दिनों अपने कांग्रेसी भाई महेन्द्रनाथ दत्त से विवेकानन्द ने साफ कहा था कि आजादी भीख मांगने से नहीं मिलती। कांग्रेस अंगरेजी शिक्षण के कुल कुलीन लोगों का गिरोह बनकर देश के लिए कुछ नहीं कर सकती। जब तक उससे जनता नहीं जुड़ेगी वह एक कारगर संगठन के रूप में इतिहास में अपनी जगह नहीं बना पाएगी और न देश आजाद होगा। यह विवेकानन्द थे जिन्होंने कहा था कि भारत खुद को एक आजाद देश घोषित कर दे और अपनी सरकार बना ले। कांग्रेस के सबसे वरिष्ठ नेता लोकमान्य तिलक विवेकानन्द से उम्र में 7 वर्ष बड़े थे और उनके घनिष्ठ थे। 1915 में विवेकानन्द से 6 वर्ष छोटे गांधीजी 22 वर्ष के दक्षिण अफ्रीका प्रवास के बाद भारत लौटे। तब तिलक ने पहली बार ‘स्वराज्य मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है’ का नारा दिया। वर्षों बाद 1942 में ’अंगरेजों भारत छोड़ो’ का नारा गांधी की अगुवाई में दिया गया। राजनीति में दिलचस्पी नहीं रखने का दावा करने वाले विवेकानन्द के भविष्य संकेतों ने भारतीय आजादी की बुनियाद रखी जिसके कारण जनता के अंतिम घोषणापत्र के रूप में संविधान रचा गया।
कनक तिवारी
(लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं। यह उनके निजी विचार हैं।)
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