Virtual education policy sharing society: समाज को बांटने वाली वर्चुअल शिक्षा नीति

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शिक्षा का संस्कार और सरोकार बदल चुका है। गुरूकुल अब रहें नहीँ, जहाँ हैं भी वहां कुछ को छोड़ सभी ने आधुनिकता को अंगीकार कर लिया है। शिक्षा, शिक्षक और विद्यार्थी सभी तकनीकी से युक्त हो चलें हैं। शिक्षा बहुआयामी हो चली है। शिक्षा व्यापार का रूप ले लिया है। शिक्षा का उदेश्य अब एक अच्छे और बेहतर समाज का निर्माण करने के बजाय अच्छा खड़ा करना हो गया है। शिक्षा असमान और असंतुलित हो गई है। आधुनिक शिक्षा पद्धति समाजिक खाई को और गहरा कर रहीं है। कोरोना काल में आजकल वर्चुअल शिक्षा का लेटेस्ट संस्करण पूरी शिक्षा को ही कटघरे में खड़ा करता है। आॅनलाइन शिक्षा सामजिक संतुलन को बढ़ाती दिखती है। समाज में अमीर और गरीब का फासला तेजी से बढ़ रहा है। ऐसी वर्चुअल शिक्षा किस काम कि जो छात्रों में खुद स्टेट सिम्बल बने। समाज को वर्गों में बांटे। एक वर्ग लैपटॉप, कम्प्युटर और स्मार्टफोन जैसी आधुनिक सुविधाओं से अपने बच्चों को शिक्षाग्रहण कर रहा है तो दूसरा समाज अपनी गाय बेंच कर स्मार्टफोन वर्चुअल क्लास के लिए उपलब्ध करा रहा है। फिर ऐसी शिक्षा की क्या जरूरत है। क्या ट्रेडिशनल शिक्षा नीति की यह भरपाई कर पाएगी। जब बच्चे स्कूल जा कर सम्यक ज्ञान अर्जित नहीँ कर पाते फिर आॅनलाइन शिक्षा से कितना कुछ हासिल होने वाला है।
उससे तो बेहतर शिक्षा खुद अविभावक दे सकते हैं। वर्चुअल शिक्षा और आम आदमी कि मजबूरियों को लेकर हिमाचल से आयीं खबर कई सवाल खड़े करती है।  पालमपुर जिले में एक पिता ने बच्चों की आॅनलाइन पढ़ाई के लिए अपनी गाय तक बेंच दिया। कोविड – 19 संक्रमण काल में आॅनलाइन क्लास शुरू हुई तो बच्चों ने पिता से स्मार्ट फोन की माँग रखी। पिता बच्चों के भविष्य के लिए हर मुमकिन कोशिश कि लेकिन उसे पैसे नहीँ मिल पाए।  बैंक से भी उसने बतौर कर्ज के रूप में मोबाइल लेने का प्रयास किया। लेकिन बैंक ने लोन नहीँ दिया।
लाचार पिता ने जब देखा कि विकल्प के सारे दरवाजे बंद हैं तो उसने आजीविका की सहारा बनी घर कि गाय को ही 6000 रुपए में बेंचकर वर्चुयल क्लास के लिए मोबाइल उपलब्ध कराया। क्योंकि शिक्षक और बच्चे उस पर मोबाइल लेने का दबाव बना रहे थे। अहम सवाल है कि जिसके पास गाय- भैंस उपलब्ध नहीँ है वह दो वक्त की रोटी के लिए मुश्किल में है फिर मोबाइल कहाँ से खरीदेगा। लॉकडाउन में रोजी – रोजगार छीन गए हैं। शहरों से लोग पलायित होकर गाँव आए हैं। लाखों कि संख्या में आबादी का एक हिस्सा बेगार हो गया है। लोगों की नौकरी खत्म हो चली है। ठेला- रेहड़ी वाले परिवारों के पास परिवार को पालना बड़ी समस्या बन गई है। उस हालात में वह बच्चों के लिए मोबाइल कहाँ से लाएगा। क्या सिर्फ़ मुफ़्त के चावल और गेहूँ बाँटने से जीवन की सारी चीजे और सुविधाएं मिल जाएंगी। इस संकट काल में लोगों की पहली प्रथमिकता जीवन को चलाना है फिर वर्चुअल शिक्षा तो पेट भरने कि बाद कि प्रथमिकता है। जिन परिवारों के पास स्मार्टफोन उपलब्ध नहीँ है शिक्षा क्या उन बच्चों का अधिकार नहीँ है। अगर है तो सरकारें समाजिक विभेद क्यों बढ़ा रहीं हैं। उन्हें यह सुविधा क्यों नहीँ दी जा रहीं है। फिर शिक्षा गारंटी का क्या मतलब रह जाता है। सरकारें अगर वर्चुअल शिक्षा को बढ़ावा दे रहीं हैं तो उन्हें समाज के हर तबके पर ध्यान देना होगा। समाज का जो तबका इस सुविधा से वंचित है उसे सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए। सरकार का यह नैतिक दायित्व है। डीडब्लू में छपी संयुक्त राष्ट्र की एक रिपोर्ट के अनुसार साल 2006 से 2016 के बीच करीब 37 करोड़ लोग गरीब रेखा के नीचे जीवन यापन करते थे।  2015-16 में 36.9 करोड़ गरीबी के ऊपर हो गए।  गरीबी मिटाने में एशिया में भारत और ने उल्लेखनीय प्रगति किया है। लॉकडाउन के बीच तमाम देशों में आॅनलाइन कक्षाओं और इंटरनेट से पढ़ाई पर जोर है। भारत भी इससे अछूता नहीं है। आॅडिट और मार्केटिंग की शीर्ष एजेंसी केपीएमजी और गूगल ने भारत में आॅनलाइन शिक्षा 2021 शीर्षक से एक रिपोर्ट में कहा है कि आॅनलाइन शिक्षा के कारोबार में आठ गुना की वृद्धि आंकी गई है। चार साल पूर्व यह कारोबार करीब 25 करोड़ डॉलर का था अनुमान है कि 2021 में यह बढ़कर करीब दो अरब डॉलर हो जाएगा। फिर सोचिए यह शिक्षा है कि व्यापार। आॅनलाइन शिक्षा को बढ़ावा देने के लिए  वीडियो-आॅडियो सामग्री,यूट्यूब तो हैं ही अब कई फीचर भी आ गए हैं।
गूगल मीट, वेबिनार, मॉक टेस्ट के अलावा कई मोबाइल ऐप उपलब्ध हैं। सम्बन्धित ऐप का निर्माण करने वाली कम्पनियाँ बड़े- बड़े अभिनेताओं से इसका प्रचार करवा रहीं हैं। जिस पर लाखों रुपए खर्च कर रहीं हैं। फिर यह करोबार नहीँ तो और क्या है। भारत में वर्चुअल शिक्षा पर कुछ सवाल भी उठते हैं। यहाँ इंटरनेट की पहुँच सिर्फ़ 31फीसदी तक है। 40 करोड़ से कुछ अधिक लोग इंटरनेट का इस्तेमाल करते हैं। अनुमान है कि 2021 तक तकरीब 73 करोड़ लोग इसका इस्तेमाल करेंगे। भारत में करीब 30 करोड़ लोग स्मार्टफोन यूजर है। 2021 तक संख्या 50 तक पहुँच जाएगी। सरकार ई-बस्ता और डिजिटल इंडिया जैसे अभियान को आगे बढ़ा रहीं है। लॉकडाउन और बच्चों की सुरक्षा को देखते हुए काफी अच्छा माना जा रहा है। लेकिन आंकड़े जितने ही अच्छे हैं उसका दुष्प्रभाव भी बुरा है। बच्चों की सेहत पर भी इसका बुरा प्रभाव पड़ रहा है। मीडिया में इस तरह कि कई खबरें भी आई हैं।
दूसरी बात गाँव और शहर में इंटरनेट और उसकी पहुँच के फासलों में बड़ा अंतर है। शहरों में डाटा स्पीड जहाँ अधिक है वहीं गाँवों में उबाऊ और अनुपलब्ध भी है। इसके साथ पर्याप्त बिजली भी एक गम्भीर समस्या है। भारत में आॅनलाइन शिक्षा सामाजिक असंतुलन पैदा कर रहीं है। जिसके पास पैसे हैं उनके लिए यह बेहतर विकल्प है, लेकिन गरीब परिवारों के लिए आॅनलाइन शिक्षा एक सपना है। इस हालात में सरकार को सख्त कदम उठाने चाहिए। जिन इलाकों में इन्टरनेट की पहुँच नहीँ है वहां यह सुविधा उपलब्ध करानी चाहिए। सरकार कि यह सामाजिक जिम्मेदारी और जवाबदेही बनती है कि वह गरीब परिवारों के बच्चों को स्मार्टफोन और दूसरी तकनीकी सुविधा उपलब्ध कराए।
(लेखक स्वतंत्र पत्रकार हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)