इंदौर से कोलकाता होती हुई एक हिंसक बुलेट ट्रेन विचारों की पटरी पर पिछले तीन चार दिनों से दौड़ती रही है। भारतीय जनता पार्टी के शक्तिशीली (देह से भी) महामंत्री कैलाश विजयवर्गीय के विधायक पुत्र आकाश ने इंदौर में नगर निगम के एक कर्मचारी को क्रिकेट के बैट से सार्वजनिक स्थल पर पीट दिया। आकाश के चेहरे पर सत्ता पर काबिज ‘विजयवर्गीय’ होने का ठसका अपनी मूछें मरोड़ रहा था।
हालांकि आकाश के चेहरे पर पिता की तरह मूंछें नहीं हैं। दौड़ा-दौड़ाकर कर्मचारी को मारने का दृश्य सोशल मीडिया के कारण देश विदेश में देखा गया। पिटने वाला लोकसेवक है। निगम के सालभर पुराने दिए गए किसी गैर चुनौतीपूर्ण आदेश को अमल में लाने का कर्तव्य कर रहा था। लोकसेवक को उसके कार्य में बाधा पहुंचाने के कारण भारतीय दंड संहिता की धारा 353 के अपराध सहित अभद्रता, धमकी वगैरह की अन्य अपराधिक धाराएं लगाकर आक्रामक को आकाश से जेल की धरती पर लाया गया। तीन दिन के अंदर ही स्वाभाविक ही उसे सक्षम न्यायालय द्वारा जमानत दे दी गई। मामला केवल इतना नहीं है। बलशाली भाजपा नेता कैलाश विजयवर्गीय ने एक टीवी चैनल के एंकर को जिस तरह अपनी जबान से लतियाया।
वह ज्यादा बड़े चिंताजनक सवाल पैदा करता है। टीवी एंकर ने बार-बार पूछा कि एक राजनीतिक नेता होने के भी कारण क्या पिता को अपने बेटे के कुकृत्य पर कोई र्शमिंदगी है या नहीं। हिंसा की आग में शराफत का घी डालने से वह और भड़कती है। महाभारतकालीन पात्रों की चेहरे की मुद्रा बनाते कैलाश विजयवर्गीय ने चीखते हुए पूछा तुम टीवी के एंकर कोई जज हो। जो उनके बेटे के कथित गुंडई नस्ल के कृत्य पर फैसला दे रहे हो। एंकर का अगला प्रश्न वर्ल्ड कप क्रिकेट के दिनों में आकाश के बैट के सामने फेंकी गई किसी गलत टप्पा खाने वाली गेंद की तरह समझकर कैलाश विजयवर्गीय ने फिर चौके छक्के लगाए। फिर सीधे-सीधे सत्ताधारी पार्टी के तिलचट्टे की मूंछ को सहलाते हुए धमकाया, तुम्हारी हैसियत क्या है? सोशल मीडिया पर यह एक अद्भुत एंटी सोशल नजारा था। भारतीय लोकतंत्र को सत्तामूलक गरिमा, गर्व और गर्हित दशा में ले जाने का अद्भुत राजनीतिक क्षण उग आया है। बात यहीं खत्म नहीं होती। एक दूसरे चैनल के अर्णव गोस्वामी बहुत दिनों से लोकतांत्रिक समझ के लोगों की आंखों की किरकिरी बने हुए हैं। वे भाजपा विचारधारा के गोदपुत्र की तरह सबको लगते है। उनकी शक्ल सूरत भी ईश्वर ने सौंदर्य के अनुकूल बनाई है। बहुत चतुर होकर भी उन्होंने भी इस सवाल को न जाने किस वजह से छेड़ा। कैलाश विजयवर्गीय का तमतमाना उतना ही वाजिब था। गोस्वामी को उन्होंने गुस्से में बुरी तरह लताड़ा। उन्हें भी उनकी हैसियत बताई। कहा तुम जैसे पत्रकारों से किसी को पांच वोट का फर्क तक नहीं पड़ता। दोनों ही पत्रकारों ने हिंसक भाषा का मुकाबला अपनी पिट चुकी मासूमियत चेहरों के लक्षणों को छिपाते हुए दिया।
इससे भी एक राष्ट्रीय सवाल पैदा हुआ। कैलाश विजयवर्गीय ने एक अच्छा काम किया। उन्होंने सत्ताप्रतिष्ठान के सिर पर लाद ली गई (गोदी?) मीडिया को उसकी औकात बताते हुए उसके पतन के क्षण का उद्घाटन सम्पन्न कर दिया। लोकसेवक के अधिकारों का विवरण दंड संहिता की धारा 353 में अंग्रेज ने 1860 में दर्ज किया था। तब संविधान नहीं था। अब संविधान ने अनुच्छेद 19 में हर व्यक्ति को अपनी मर्जी की वृत्ति या आजीविका या व्यवसाय करने का मूल अधिकार दिया गया है। निगम कर्मचारी का यह शासकीय कर्तव्य मूल अधिकार भी है। संविधान प्रदत्त किसी मूल अधिकार से किसी को विरत करने या उस पर हमला करने के लिए ऐसा कोई कानून नहीं है जो भारतीय दंड संहिता से अलहदा हो। उस कर्मचारी के संवैधानिक अधिकारों पर भी क्रिकेट का बल्ला चलाया गया है। एक सवाल और खड़ा होता है। देश की किसी भी राजनीतिक पार्टी में अनुशासन संहिता का एक ही अर्थ है कि अदना कार्यकर्ता अपने से वरिष्ठ पदाधिकारी की हुकुम उदूली नहीं करे। किसी राजनीतिक पार्टी ने अपनी अनुशासन संहिता में यह नहीं लिखा होगा कि उसका कोई भी कार्यकर्ता देश की नागरिक आजादी पर यदि हमला करेगा।
तो उसको संविधान विरोधी होने के कारण कान पकड़कर पार्टी से निकाल दिया जाएगा। कैलाश विजयवर्गीय ने बल्ला प्रहारक पुत्र की पीठ ठोंकी। पार्टी कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने उस महान वीर के समर्थन में पोस्टर लगाए। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अभी नेहरू के चरित्र चित्रण में व्यस्त होने के कारण विश्व कप में भारत की संभावित विजय के संदर्भ में आकाश द्वारा बल्ला चलाने का हुनर सीखने की वजह से आत्ममुग्ध भी होंगे। बिहार में 200 से ज्यादा बच्चे सरकारी बदहालात के चलते अस्पताल में मर गए। मर भी रहे होंगे। तब वहां के स्वास्थ्य मंत्री को भारतीय बैट्समैन रोहित शर्मा की जाबांज पारी को देखने में जो सुख मिला होगा। उससे बच्चों की मौत का गम गलत भी तो हो गया होगा। यक्ष प्रश्न है भारतीय प्रेस काउंसिल अधिनियम में लचर प्रावधान हैं। उनका क्या होगा। प्रेस कांउसिल ने कई बार सरकार से मांग की है उसे अधिक अधिकार दिए जाएं।
प्रेस काउंसिल को इस बात के भी अधिकार मिलने चाहिए कि यदि प्रेस अपने संवैधानिक अधिकारों का इस्तेमाल करते लोक आचरण कर रहा है। तो उसके हमलावरों को भी सजा दिलाने में उसकी कोई भूमिका होनी चाहिए। जब सुप्रीम कोर्ट तक यह तय कर चुका है कि स्टिंग आॅपरेशन असवैधानिक कृत्य नहीं है। तब अपने ही राजनीतिक आका से मीडिया के किरदार जनचौपाल में बैठकर यदि मिली जुली कुश्ती की शैली में सवाल पूछने का साहस करते हैं। तो क्या मालिक का यह फर्ज नहीं था कि सवाल पूछने की छोटी-मोटी गलती के लिए वह उन्हें सरेबाजार बेइज्जत न करें। भाषा तो कहती है उन्हें लतियाया गया। उसके बाद उनकी चेहरे पर उगी मासूमियत भारतीय (गोदी?) प्रेस के त्रासद भविष्य का खुला हलफनामा है।
(यह लेखक के निजी विचार हैं। लेखक छत्तीसगढ़ हाईकोर्ट में वरिष्ठ अधिवक्ता हैं।)