आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि विजयादशमी के नाम से प्रसिद्ध है। शारदीय नवरात्रि के नौ दिन दुर्गा पूजा के उपरांत दसवें दिन मनाई जाने वाली विजयादशमी अभिमान, अत्याचार एवं बुराई पर सत्य,धर्म और अच्छाई की विजय का प्रतीक है। इस दिन भगवान श्री राम ने रावण और देवी दुर्गा ने महिषासुर का वध करके धर्म और सत्य की रक्षा की थी। इस दिन भगवान श्री राम, देवी भगवती, लक्ष्मी, सरस्वती, गणेश और हनुमान जी की आराधना करके सभी के लिए मंगल की कामना की जाती है। समस्त मनोकामनाओं की पूर्ति के लिए विजयादशमी पर श्री राम रक्षा स्त्रोत,सुंदरकांड आदि का पाठ भी किया जाता है। विजयादशमी पर पान खाने, खिलाने तथा हनुमानजी पर पान अर्पित करके उनका आशीर्वाद लेने का महत्त्व है। विजयादशमी सर्वसिद्धिदायक है इसलिए इस दिन सभी प्रकार के मांगलिक कार्य किए जा सकते हैं। मान्यता है कि इस दिन जो कार्य शुरू किया जाता है उसमें सफलता अवश्य मिलती है। यही वजह है कि प्राचीन काल में राजा इसी दिन विजय की कामना से रण यात्रा के लिए प्रस्थान करते थे। इस दिन बच्चों का अक्षर लेखन, दुकान या घर का निर्माण, गृह प्रवेश, मुंडन, अन्न प्राशन, नामकरण, कारण छेदन, यज्ञोपवीत संस्कार आदि शुभ कार्य किए जा सकते हैं। परन्तु विजयादशमी के दिन विवाह संस्कार निषेध माना गया है। क्षत्रिय अस्त्र-शास्त्र का पूजन भी विजयादशमी के दिन ही करते हैं।
शमी पूजन से पूरी होगी मनोकामनाएं
भारतीय परंपरा में विजयादशमी पर शमी पूजन का पौराणिक महत्व रहा है। जन मानस में विजयादशमी ‘दशहरा’ के नाम से भी प्रचलित है। विजयादशमी या दशहरे के दिन अपराह्न को शमी वृक्ष के पूजन की परंपरा विशेष कर क्षत्रिय व राजाओं में रही है। मान्यता है कि यह भगवान श्री राम का प्रिय वृक्ष था और लंका पर आक्रमण से पहले उन्होंने शमी वृक्ष की पूजा करके उससे विजयी होने का आशीर्वाद प्राप्त किया था। आज भी कई स्थानों पर ‘रावण दहन’ के बाद घर लौटते समय शमी के पत्ते स्वर्ण के प्रतीक के रूप में एक दूसरे को बांटने की प्रथा हैं, इसके साथ ही कार्यों में सफलता मिलने कि कामना की जाती है।
रामचरित्र मानस में महत्व
प्रतिवर्ष मनाया जाने वाला विजयादशमी का पर्व महज राम-रावण का युद्ध ही नहीं माना जाना चाहिए। बुराई पर अच्छाई की जीत के प्रतीक इस पर्व में छिपे हुए संदेश समाज को दिशा दे सकते हैं। स्वयं महापंडित दशानन इस बात को भलिभांति जानता था कि उसके जीवन का उद्धार राम के हाथों ही होना है। दूसरी ओर मर्यादा पुरूषोत्तम राम ने भी रावण की विद्वता को नमन किया है। रामचरित्र मानस में जहां राम के चरित्र का सुंदर वर्णन किया गया है वहीं रावण के जीने के तरीके और विद्वता पर किए जाने वाले गर्व की छाया भी हमें दिखाई पड़ती है। हम प्रतिवर्ष अंहकार के पुतले का दहन कर उत्सव मनाते हैं, किन्तु स्वयं का अंहकार त्यागने तत्पर दिखाई नहीं पड़ रहे, यह कैसा विजयादशमी पर्व है। हमारे अंदर छिपी चेतना का जागरण और विषयों का त्याग ही विजयादशमी पर्व का मुख्य संदेश है। आज हम विषयों के जाल में इस तरह उलझे हुए हैं कि स्वयं अपने अंदर चेतना और ऊर्जा को सही दिशा नहीं दे पा रहे हैं।
अपने हृदय और आत्मा की बुराई को दूर करें
रावण से परेशान जनता को खुशहाल जीवन प्रदान करने के लिए ही भगवान राम का अवतरण हुआ। हम आप सब इस बात को जानते हैं कि राम ने क्षत्रिय कुल में जन्म लिया था। इसके विपरित रावण ब्राह्मण था और वेदों-पुराणों के ज्ञाता तथा मुनि श्रेष्ठ विश्रवा का पुत्र था। रावण के दादा ऋषि पुलत्स्य भी देव तुल्य माने जाते थे। राम-रावण युद्ध के दौरान कहीं न कहीं राम के हृदय में रावण के प्रति दया जरूर थी। मर्यादा पुरूषोत्तम जानते थे कि एक ब्राह्मण का वध करना महापाप कर्म हैं यही कारण है कि उन्होंने रावण वध के बाद ब्राह्मण की हत्या के लिए प्रायश्चित किया और प्रार्थना की कि उनके इस पाप को जन-सामान्य की सुरक्षा के लिए आवश्यक मानते हुए उन्हें ईश्वर इस पाप से मुक्त करें। आज के युग में यह भी जानने योग्य प्रसंग है कि रावण वध के पश्चात स्वयं भगवान राम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को रावण के पास ज्ञान लेने भेजा, किन्तु अंतिम सांसें ले रहे रावण ने लक्ष्मण की ओर देखा तक नहीं। बाद में स्वयं मयार्दा पुरूषोत्तम ने रावण के चरणों पर हाथ जोड़ते हुए ज्ञान प्रदान करने का निवेदन किया और रावण ने अपने अहंकार को त्यागते हुए गूढ़ ज्ञान प्रदान किया। दशहरा अथवा विजयादशमी पर्व दस प्रकार के महापापों से बचने का संदेश है। यह विजय पर्व हमें काम, क्रोध, लोभ, मोह, मद, मत्सर, अहंकार, आलस्य, हिंसा और चोरी से बचने और इन बुरी आदतों से दूर रहने प्रेरणा देता है। हम उत्साह पूर्वक रावण के पुतले का दहन करते समय इन दस पापों को अग्नि के हवाले कर दे तो हमारा विजय पर्व सार्थक हो सकता है। महज उछलकूद, नृत्य, गान, आतिशबाजी सांस्कृतिक आयोजन ही विजयादशमी पर्व के प्रतीक न माने जाएं। पर्व की गहरायी में समाए संदेश लोगों तक पहुंचें और घर-घर अमन चैन और खुशियां बरसें यही इस पर्व का संदेश है। अपने हृदय और आत्मा में व्याप्त बुराई को तिलांजलि देकर सद्व्यवाहर को अपनाना ही विजयादशमी कहा जा सकता है।
पर्व का शुभ मुहूर्त
आश्विन मास के शुक्ल पक्ष की दशमी तिथि को विजयादशमी मनाई जाती है, जिसमें अपराह्नकाल की प्रधानता होती है। इस वर्ष 08 अक्टूबर दिन मंगलवार को विजयादशमी मनाई जाएगी। आदिशक्ति मां दुर्गा ने 9 रात्रि और 10 दिन के भीषण युद्ध में महिषासुर का वध कर दिया था, वहीं श्रीराम ने लंका के राजा रावण का इस तिथि को वध किया था, इसलिए विजयादशमी बुराई पर अच्छाई के विजय के रूप में मनाते हैं।
विजय मुहूर्त : दोपहर में 02 बजकर 21 मिनट से 03 बजकर 08 मिनट तक। विजय मुहूर्त में किया गया कार्य कभी निष्फल नहीं होता है।
अपराह्न पूजा मुहूर्त : दोपहर में 01 बजकर 33 मिनट से 03 बजकर 55 मिनट तक।
ुइस दिन करें अपराजिता देवी का पूजन
विजयादशमी के दिन अपराजिता देवी, शमी और शस्त्रों का विशेष पूजन किया जाता है। अपराजिता के पूजन के लिए अक्षत, पुष्प, दीपक आदि के साथ अष्टदल पर अपराजिता देवी की मूर्ति की स्थापना की जाती है। ओम अपराजितायै नम: मंत्र से अपराजिता का, उसके दाएं भाग में जया का ‘ऊं क्रियाशक्त्यै नम:’ मंत्र से तथा उसके बाएं भाग में विजया का ओम उमायै नम: मंत्र से स्थापना करें। इसके बाद आवाहन पूजा करें। इस मंत्र का उच्चारण करें।
चारुणा मुख पद्मेन विचित्रकनकोज्वला।
जया देवि भवे भक्ता सर्व कामान् ददातु मे।।
काञ्चनेन विचित्रेण केयूरेण विभूषिता।
जयप्रदा महामाया शिवाभावितमानसा।।
विजया च महाभागा ददातु विजयं मम।
हारेण सुविचित्रेण भास्वत्कनकमेखला।
अपराजिता रुद्ररता करोतु विजयं मम।।
इस मंत्र से अपराजिता, जया और विजया की प्रार्थना करें। इसके पश्चात हरिद्रा से सूती वस्त्र को रंग दें और उसमें दूब और सरसों रखकर डोरा बनाएं।
सदापराजिते यस्मात्त्वं लतासूत्तमा स्मृता।
सर्वकामार्थसिद्धयर्थं तस्मात्त्वां धारयाम्यहम्।।
इसके बाद उस डोरे को मंत्र से अभिमंत्रित करें। फिर नीचे दिए गए मंत्र से उस डोरे को दाहिने हाथ में बांध लें।
जयदे वरदे देवि दशम्यामपराजिते।
धारयामि भुजे दक्षे जयलाभाभिवृद्धये।।
देवी अपराजिता के पूजन के बाद आप शमी और शस्त्रों का पूजन विधि विधान से करें।
शस्त्र पूजन का है खास महत्व
हमारे देश में विजयादशमी के शुभ अवसर पर देवी पूजा के साथ-साथ शस्त्र पूजा की परंपरा भी कायम हैं। यह शस्त्र पूजा दशहरा के दिन ही क्यों की जाती है, इस संबंध में अनेक कथाएं प्रचलित हैं। एक कथा के अनुसार राम ने रावण पर विजय प्राप्त करने हेतु नवरात्र व्रत किया था, ताकि उनमें शक्ति की देवी दुर्गा जैसी शक्ति आ जाए अथवा दुर्गा उनकी विजय में सहायक बनें। चूंकि दुर्गा शक्ति की देवी हैं और शक्ति प्राप्त करने हेतु शस्त्र भी आवश्यक है, अत: राम ने दुर्गा सहित शस्त्र पूजा कर शक्ति संपन्न होकर दशहरे के दिन ही रावण पर विजय प्राप्त की थी। तभी से नवरात्र में शक्ति एवं शस्त्र पूजा की परंपरा कायम हो गई। शस्त्र पूजा के कारण ही दशहरे को मुख्य रूप से क्षत्रियों का पर्व माना गया है, क्यों कि राम भी क्षत्रिय थे और खास तौर पर प्राचीन भारतीय व्यवस्था में सुरक्षा एवं युद्ध का कार्य क्षत्रिय करते थे। ऐसी मान्यता है कि इंद्र भगवान ने दशहरे के दिन ही असुरों पर विजय प्राप्त की थी। महाभारत का युद्ध भी इसी दिन प्रारंभ हुआ था तथा पांडव अपने अज्ञातवास के पश्चात इसी दिन पांचाल आए थे, वहां पर अर्जुन ने धनुर्विद्या की निपुणता के आधार पर, द्रौपदी को स्वयंवर में जीता था। ये सभी घटनाएं शस्त्र पूजा की परंपरा से जुड़ी हैं। शस्त्र पूजा की यह परंपरा भारत की रियासतों में बड़ी धूमधाम से मनाई जाती रही हैं। रियासतों में शस्त्रों के साथ जुलूस निकाला जाता था। शस्त्र पूजा की परंपरा के अंतर्गत ही हैदराबाद, मैसूर, मध्य प्रदेश की रियासतें भी दशहरे के अवसर पर विशाल जुलूस निकालती थीं। चूंकि वर्तमान समय में रियासती व्यवस्था समाप्त हो गई है। अत: शस्त्र पूजा की यह परंपरा अब उस रूप में नहीं मनाई जाती है, किंदु इसका स्थान हमारी सेनाओं ने ले लिया है। भारतीय सेना ने सभी रेजीमेंटों में शस्त्र पूजा अत्यंत ही धूमधाम से की जाती है। विशेष तौर पर जाट, राजपूत, मराठा, कुमाऊं एवं गोरखा रेजीमेंट तो शस्त्र पूजा अत्यंत उल्लास एवं धूमधाम से करते हैं। नवरात्र से प्रारंभ कर दशहरे के दिन अर्थात 10 दिन तक सभी शस्त्रों की पूजा-अर्चना की जाती है। इस प्रकार आज भले ही रियासतों के रूप में शस्त्र पूजा की परंपरा कायम न हो, किंतु हमारी सेना के जवानों द्वारा की जानेवाली शस्त्र पूजा रियासतों के समय मनाई जाने वाली शस्त्र पूजा से कम नहीं हैं। इस दिन हमारे सैनिकों में एक नई शक्ति जागृत होती है, जो किसी भी शत्रु को कुचल देने में सक्षम हैं।
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