दंगाइयों के पोस्टर चौराहे पर चश्मा करने को लेकर बड़ी अदालतों के कड़े सवालों से उत्तर प्रदेश की योगी सरकार के उस फार्मूले को फिलहाल झटका लगा है जिसे नागरिकता कानून विरोधी प्रदर्शन के दौरान हालात काबू में रखने के लिए हिट माना गया था । भारतीय जनता पार्टी की सरकार ऐसे हालातों में यही तरीका हर जगह इस्तेमाल करने की तैयारी में थी । गृह मंत्री अमित शाह के भी यही संकेत थे ।
वैसे उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हालात को देखते हुए योगी आदित्यनाथ सरकार का यह फार्मूला दो साल बाद होने वाले विधानसभा चुनाव को देखते हुए भाजपा नेतृत्व को मुफीद नजर आ रहा था । पार्टी नेतृत्व 2022 के पहले अयोध्या में भव्य राम मंदिर निर्माण कर इसका पहला चरण पूरा करने के साथ ही हिंदुत्व के बेहतर माहौल की प्रत्याशा में है ।
लेकिन पहले इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने मामले का स्वतः संज्ञान लेते हुए प्रदेश सरकार से तीखे सवाल किए और आदेश दिए कि 16 मार्च तक इन्हें लखनऊ की सड़कों से उतार लिया जाए। योगी सरकार ने इस फैसले के खिलाफ सुप्रीम कोर्ट में अर्जी लगाई तो कोई तात्कालिक राहत मिलने के बजाय सवाल और बड़े थे । सर्वोच्च न्यायालय द्वारा किया पूछा गया कि आखिर देश में उपलब्ध किस कानून के तहत ऐसी कार्रवाई कोई सरकार कर सकती है फिलहाल प्रकरण तीन सदस्यीय पीठ को भेज दिया गया है जो अगले हफ्ते सुनवाई करेगी । देखना दिलचस्प होगा कि अगर 16 मार्च तक बड़ी अदालत में सुनवाई या कोई फैसला नहीं होता है तो उत्तर प्रदेश सरकार को 57 आरोपियों के पोस्टर उतारने होंगे क्योंकि इलाहाबाद हाईकोर्ट के फैसले पर कोई स्टे नहीं मिला है। हालांकि प्रदेश सरकार का कहना है कि उपद्रवियों के खिलाफ सरकार की सख्ती जारी रहेगी । केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह संसद में भी कर चुके हैं की दंगा करने वालों पर कठोर कार्रवाई जरूर होगी ।
सुप्रीम कोर्ट ने योगी सरकार से पूछा है कि किस कानून के तहत आरोपियों के होर्डिंग्स सार्वजनिक स्थानों पर लगाए गए। अब तक ऐसा कोई प्रावधान नहीं, जो इसकी इजाजत देता हो ।
जस्टिस यूयू ललित और जस्टिस अनिरुद्ध बोस की वेकेशन बेंच ने कहा कि ‘यह मामला काफी अहमियत रखता है, क्या यूपी सरकार को ऐसे पोस्टर लगाने का अधिकार है। अब तक ऐसा कोई कानून नहीं है, जो सरकार की इस कार्रवाई का समर्थन करता हो।” राज्य सरकार की ओर से सॉलिसीटर जनरल तुषार मेहता का कहना था कि निजता के अधिकार के कई आयाम हैं। पोस्टर हटाने के हाईकोर्ट के फैसले में खामियांहैं। ये लोग प्रदर्शन के दौरान हिंसा में शामिल थे। सरकार के पास ऐसी कार्रवाई करने की शक्ति है।
इस पर अदालत ने सवाल किया कि हिंसा के आरोपियों के होर्डिंग्स लगाने कीशक्ति कहां मिली हुई है? हम सरकार की चिंता समझ सकते हैं। बेशक दंगाइयों के खिलाफ कार्रवाई की जानी चाहिए और उन्हें दंडित किया जाए। लेकिन कानून में ऐसी कार्रवाई करने का कोई प्रावधान नहीं है।
सरकार की दलील थी कि एक आदमी जो प्रदर्शन के दौरान हथियार लेकर पहुंचा हो और हिंसा में शामिल रहा हो। वह निजता के अधिकार का दावा नहीं कर सकता है। प्रदर्शनकारियों के पोस्टर सिर्फ यह बताने के लिए लगाए गए थे कि हिंसा में शामिल आरोपियों पर अभी जुर्माना बकाया है। विगत नौ मार्च को इलाहाबाद हाईकोर्ट ने नागरिकता कानून के विरोध में प्रदर्शन के दौरान हिंसा के आरोपियों का पोस्टर हटाने का आदेश दिया था। लखनऊ के अलग-अलग चौराहों पर वसूली के लिए 57 कथित प्रदर्शनकारियों के 100 पोस्टर लगाए गए हैं। चीफ जस्टिस गोविंद माथुर और जस्टिस रमेश सिन्हा की बेंच ने अपने आदेश में कहा था कि लखनऊ के जिलाधिकारी और पुलिस कमिश्नर 16 मार्च तक होर्डिंग्स हटवाएं। कोर्ट ने कहा कि साथ ही इसकी जानकारी रजिस्ट्रार को दें। हाईकोर्ट ने दोनों अधिकारियों को हलफनामा भी दाखिल करने का आदेश दिया है।
दरअसल नागरिकता संशोधन विधेयक के विरोध के दौरान उत्तर प्रदेश के कई हिस्सों से हिंसा की खबरें आई थीं, जिनमें निजी और सार्वजनिक संपत्तियों को काफी नुकसान पहुंचा था। पूर्व आईपीएस अधिकारी श्रवण राम दारापुरी, सामाजिक कार्यकर्ता सदफ जाफर, कलाकार दीपक कबीर, वकील मोहम्मद शोएब और ऐसे ही 57 लोगों को लखनऊ हिंसा का जिम्मेदार बताते हुए प्रशासन ने जगह-जगह पोस्टर लगाए हैं। प्रशासन ने इन लोगों से हिंसा के दौरान हुए नुकसान की भरपाई के लिए कहा है।
उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति गोविंद माथुर और न्यायमूर्ति रमेश सिन्हा की पीठ ने जिला प्रशासन के इस कदम को निहायत नाइंसाफी भरा करार देते हुए इसे व्यक्तिगत आजादी का खुला अतिक्रमण माना था।
हाईकोर्ट ने सुनवाई के दौरान कहा था कि कथित सीएए विरोधी प्रदर्शनकारियों के पोस्टर लगाने की सरकार की कार्रवाई बेहद अन्यायपूर्ण है। यह संबंधित लोगों की आजादी का हनन है।ऐसा कोई कार्य नहीं किया जाना चाहिए, जिससे किसी के दिल को ठेस पहुंचे। पोस्टर लगाना सरकार के लिए भी अपमान की बात है और नागरिक के लिए भी। किस कानून के तहत लखनऊ की सड़कों पर इस तरह के पोस्टर लगाए गए? सार्वजनिक स्थान पर संबंधित व्यक्ति की इजाजत के बिना उसका फोटो या पोस्टर लगाना गलत है। यह निजता के अधिकार का उल्लंघन है।
जिनके पोस्टर लगे और दंगों के इल्जाम में जेल हो आए उनका कहना है कि देश या राज्य तानाशाही से नहीं चलेगा ।
पूर्व आईपीएस अफसर एसआर दारापुरी के मुताबिक उच्च न्यायालय के फैसले से साफ ही हो गया कि देश में योगी सरकार की अराजकता का नहीं, कानून और संविधान का राज चलेगा। लोकतंत्र की जीत हुई, तानाशाही की हार हुई है। पोस्टर लगने के बाद हम लोगों की जान को खतरा है। अगर हमारी जान को कोई भी हानि होती है तो इसकी जिम्मेदार उत्तर प्रदेश सरकार होगी।
कांग्रेस नेता व एक्ट्रेस सदफ जफर का कहना है कि ये संविधान और कानून की जीत है। कोर्ट का साफ संदेश है कि राज्य हो देश, यह तानाशाही से नहीं चलेंगे। देश संविधान और कानून से चलेगा। यह ऐतिहासिक फैसला एक नजीर है कि किसी की आवाज को दबाया नहीं जा सकता है। होर्डिंग लगने के बाद मुझे धमकी मिल रही है। हमारी निजता का हनन किया गया।’
दीपक मिश्र कबीर कहते हैं कि सरकार ने जो किया था, वह सरासर गलत है। इसकी पुष्टि हाईकोर्ट ने भी अपने फैसले में कर दी है। कोर्ट का फैसला देश में संविधान और कानून का राज साबित करता है।
रिहाई मंच के प्रमुख मोहम्मद शोएब कहा, “सरकार ने सार्वजनिक तौर पर हमारी निजता का हनन किया है। इसके बाद अगर किसी की जानमाल को खतरा होगा, इसकी जिम्मेदारी सरकार की होगी।’ रिहाई मंच पर मुस्लिम संगठन पीएफआई से जुड़े होने का आरोप है।
यूपी सरकार ने 57 लोगों को 88 लाख की रिकवरी का नोटिस भेजा था
19 दिसंबर, 2019 को जुमे की नमाज के बाद लखनऊ के चार थाना क्षेत्रों में हिंसा फैली थी। ठाकुरगंज, हजरतगंज, कैसरबाग और हसनगंज में तोड़फोड़ करने वालों ने कई गाड़ियां भी जला दी थीं। राज्य सरकार ने नुकसान की भरपाई प्रदर्शनकारियों से कराने की बात कही थी। इसके बाद पुलिस ने फोटो-वीडियो के आधार पर 150 से ज्यादा लोगों को नोटिस भेजे। जांच के बाद प्रशासन ने 57 लोगों को सार्वजनिक संपत्ति को नुकसान पहुंचाने का दोषी माना। उनसे 88 लाख 62 हजार 537 रुपए के नुकसान की भरपाई कराने की बात कही गई। लखनऊ के डीएम अभिषेक प्रकाश ने कहा था- अगर तय वक्त पर इन लोगों ने जुर्माना नहीं भरा, तो इनकी संपत्ति कुर्क की जाएगी।
(लेखक उत्तर प्रदेश प्रेस मान्यता समिति के अध्यक्ष हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)