लंबी कानूनी लड़ाई के बाद सर्वोच्च फैसले से जहां भगवान जन्मे वहां भव्य राम मंदिर का निर्माण कार्य प्रारंभ हो चुका है. मंदिर भव्यतम बने, इसके लिए घर घर से धन संग्रह अभियान चालू है.
एक मंदिर बन रहा है, इसका मतलब यह मत समझिए कि उत्तर प्रदेश और भारत से मंदिर -मस्जिद की अदालती लड़ाई थम गई है. थमने के बजाय यह धीरे धीरे नई रफ्तार पकड़ रही है.
भगवान भोले की नगरी काशी और श्री कृष्ण की नगरी मथुरा में मंदिर-मस्जिद को लेकर कानूनी विवाद एक बार फिर जेरे बहस है. दोनों जिलों की अदालतों में विवाद को लेकर तारीखों की रफ्तार बढ़ गई है और हर बार नए आरोप प्रत्यारोप सामने आ रहे हैं.
मतलब, अयोध्या विवाद से सबक लें तो आने वाले दशकों तक फिर मन्दिर-मस्जिद और अदालत !
ताजा मामले के तहत उत्तर प्रदेश के वाराणसी में काशी विश्वनाथ की शक्ति पराम्बा श्रृंगार गौरी और आदि विश्वेश्वर की ओर से एक मुकदमा सिविल कोर्ट में दायर किया गया है. यहां देवी श्रृंगार गौरी की ओर से वकील रंजना अग्निहोत्री, जम्मू कश्मीर के अंकुर शर्मा, जितेंद्र सिंह सहित कई वादी हैं. याचिका में धर्म स्थल अधिनियम 1991 को चुनौती देते हुए इसे संविधान के अनुच्छेद 25 में दिए गए धार्मिक स्वतंत्रता के अधिकार के खिलाफ बताया है.
इस मामले में याचिकाकर्ताओं के वकील हरिशंकर जैन के मुताबिक याचिका में भारत और उत्तर प्रदेश की सरकार के साथ वाराणसी के जिलाधिकारी, पुलिस अधीक्षक, यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, अंजुमन इंतजामिया मस्जिद कमेटी और ट्रस्ट ऑफ काशी विश्वनाथ मंदिर को भी पक्षकार बनाया गया है.
अधिवक्ता जैन कहते हैं कि याचिका में पुराणों और अन्य शोध ग्रंथों के हवाले से मुख्य दलील दी गई है कि काशी विश्वनाथ मंदिर के चारों ओर पांच कोस के दायरे में काशी अविमुक्त क्षेत्र है, जहां की अधिष्ठात्री देवी श्रृंगार गौरी स्वयंभू हैं. याचिका में पांच कोस के दायरे को धार्मिक और सांस्कृतिक क्षेत्र की अवधारणा और स्थापना के साथ पवित्रता के इस दावे की प्राचीनता को सिद्ध करने के लिए स्कन्द पुराण और शिव महापुराण के श्लोकों का हवाला भी दिया गया है.
ये भी कहा गया है कि आदि विश्वेश्वर मन्दिर के मूल अहाते में देवी श्रृंगार गौरी की पूजा निरंतर होने के भी प्रमाण पुराण बताते हैं. 1669 में तब के मुगल शासक औरंगजेब ने श्रृंगार गौरी के भव्य मंदिर के एक बड़े हिस्से को ध्वस्त करा दिया था.
याचिका में कहा गया है कि प्राचीन पौराणिक देवता पूरे भूभाग के कानून स्वामी हैं. उस भूभाग के एक हिस्से पर जबरन किए गए निर्माण को मस्जिद नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये निर्माण अधिकार से नहीं बल्कि अतिक्रमण से किया गया है. याचिका में पूजा स्थल अधिनियम 1991 के लागू होने की सामान्य अवधारणा के विपरीत यह कहा गया है कि उक्त अधिनियम वर्तमान मंदिर पर लागू नहीं है.
याचिका में यह भी कहा गया है कि 1936 के सिविल वाद संख्या 62 का फैसला भी उच्च न्यायालय ने 1942 में ही किया था. उस मामले में भी तत्कालीन भारत सरकार ने विवादित प्रश्नगत संपत्ति पर मुस्लिमों के अधिकार को नकारते हुए लिखित बयान दिया था. उस मामले में 12 गवाहों ने अदालत के सामने उक्त धार्मिक स्थल पर लगातार पूजा पाठ होने की बात स्वीकारी थी, यानी 15अगस्त 1947 तक भी उक्त श्रृंगार गौरी मंदिर और आसपास के क्षेत्र की स्थिति और चरित्र सनातन धर्मिक ही था. याचिका में मांग की गई है कि भगवान आदि विश्वेश्वर और देवी श्रृंगार गौरी की अनवरत सेवा पूजा का अधिकार फिर से बहाल किया जाए.
मथुरा विवाद :
उधर भगवान श्रीकृष्ण की जन्मभूमि मथुरा में भी मुकदमा जारी है. जिले की सिविल कोर्ट में भगवान श्रीकृष्ण विराजमान की याचिका पर चल रही सुनवाई के दौरान श्रीकृष्ण विराजमान द्वारा पक्षकार बनाए गए, सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, शाही ईदगाह मस्जिद मथुरा, श्री कृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट और श्री कृष्ण जन्मभूमि सेवा संस्थान के अधिवक्ताओं द्वारा अपना पक्ष रखा जा रहा है .
जिला जज की अदालत में हुई सुनवाई के दौरान पक्षकार शाही ईदगाह मस्जिद मथुरा द्वारा श्रीकृष्ण विराजमान की याचिका को गलत बताते हुए अपना ऑब्जेक्शन दाखिल किया है. उन्होंने कोर्ट में शाही ईदगाह मस्जिद मथुरा द्वारा श्रीकृष्ण विराजमान की याचिका को नॉन मेंटेनेबल बताया है. इस पर श्रीकृष्ण विराजमान पक्ष द्वारा याचिका के स्वीकार करने की बात कहते हुए ईदगाह पक्ष के नॉन मेंटनेबल के दावे को गलत बताया है.
श्रीकृष्ण विराजमान द्वारा अदालत से 1967 के सिविल दावे के माध्यम से किए उस डिक्री (न्यायिक निर्णय) को खारिज करने के लिए कहा है, जिसमें 13.37 एकड़ भूमि पर निर्णय लिया गया. इस मामले में वादियों ने यूपी सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड के चेयरमैन, कमेटी ऑफ मैनेजमेंट ट्रस्ट शाही ईदगाह मस्जिद सचिव, श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट मैनेजिंग ट्रस्टी और श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान सचिव को प्रतिवादी बनाया था.
दरअसल, 25 सितंबर 2020 को लखनऊ निवासी रंजना अग्निहोत्री सहित आधा दर्जन कृष्ण भक्तों ने मथुरा की अदालत में भगवान श्रीकृष्ण की ओर से याचिका दाखिल कर मांग की थी कि श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान और शाही ईदगाह प्रबंधन समिति के मध्य 1968 में किया गया समझौता पूरी तरह से अविधिपूर्ण है, इसलिए उसे निरस्त कर ईदगाह की भूमि श्रीकृष्ण जन्मस्थान ट्रस्ट को वापस कर दी जाए. उन्होंने इस मामले में उत्तर प्रदेश सुन्नी सेंट्रल वक्फ बोर्ड, शाही ईदगाह प्रबंधन समिति, श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट एवं श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान को प्रतिवादी बनाया.
आजादी के 4 साल बाद 1951 में श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट बनाकर यह तय किया गया कि वहां दोबारा भव्य मंदिर का निर्माण होगा. इसके बाद 1958 में श्रीकृष्ण जन्म स्थान सेवा संघ नाम की एक संस्था बनाई गई. इस संस्था ने 1964 में पूरी जमीन पर नियंत्रण के लिए एक सिविल केस दायर किया, लेकिन 1968 में खुद ही मुस्लिम पक्ष के साथ समझौता कर लिया. इसके तहत मुस्लिम पक्ष ने मंदिर के लिए अपने कब्जे की कुछ जगह छोड़ी और उन्हें उसके बदले पास की जगह दे दी गई.
हिंदू पक्ष के तरफ से दायर याचिका में ‘प्लेसेस ऑफ वर्शिप एक्ट 1991’ को भी चुनौती दी गई है. एक्ट में देश में मौजूद धार्मिक स्थलों का स्वरूप 15 अगस्त 1947 के समय जैसा ही बनाए रखने का प्रावधान किया गया. इस एक्ट में सिर्फ अयोध्या मंदिर को ही छूट दी गई थी. यह कानून मथुरा में हिंदुओं को मालिकाना हक के लिए कानूनी लड़ाई में सबसे बड़ा रोड़ा साबित हो रहा है.
(लेखक उत्तर प्रदेश प्रेस मान्यता समिति के अघ्यक्ष हैं। यह लेखक के निजी विचार हैं।)