गाँधीवाद देश में नए विमर्श के रुप में उभरा है। शाहीनबाग में सरकार के खिलाफ़ चल रहे सत्याग्रह को सफल विपक्ष अपनी कामयाबी समझने की भूल कर रहा है। देश भर में शाहीबाग सरीखे कई बाग उग आए हैं। सत्ता और प्रतिपक्ष दोनों एक सुनियोजित रास्ते अख्तियार किए हैं। सरकार सीएए के खिलाफ़ शाहीनबाग में चल रहे महिलाओं के शांतिपूर्ण सत्याग्रह पर कोई दखल नहीं देना चाहती है। केंद्र की भाजपा सरकार जानती है कि सामने दिल्ली का आम चुनाव है। अभी हमें उधर नहीं उलझाना है। महिलाओं को अगर बल प्रयोग कर हटाया गया तो प्रतिपक्ष इस पर मोर्चा सम्भाल लेगा। मीडिया में नई बहस शुरु हो जाएगी। जिसका नुकसान उसे उठाना पड़ सकता है। उस स्थिति में वह जोखिम नहीं उठाना चाहती है। सरकार को लगता है कि यह दिल्ली चुनाव में मुद्दा बन सकता है। जिसकी वजह से केंद्र सरकार चाहती है कि शाहीनबाग का सत्याग्रह चलता रहे और दिल्ली के आम चुनाव में हिंदूमतों का ध्रुवीकरण हो पाए। शाहीनबाग में सत्ता और विपक्ष खोखले गाँधीवाद की लड़ाई लड़ रहे हैं। शाहीनबाग भी एक छद्म गाँधीवाद के सिवाय कुछ नहीं है।
अपना देश गाँधी और शाहीनबाग में उलझा है जबकि मूल समस्याओं पर किसी का ध्यान नहीं है। सरकार और सत्ता भी भावनात्मक मसले उभार कर जमीनी मसले नहीं छूना चाहती हैं। क्योंकि ऐसा करना आग से खेलना है। जब सत्ता और विपक्ष सीएए, एनआरसी और शाहीबाग के साथ गाँधी- गोड्से की आग जला खैरात में सत्ता मिलती है तो फ़िर जमीनी मसले क्यों उठाएं जाएं। देश की सबसे बड़ी सार्वजनिक क्षेत्र का निगम एलआईसी, आईडीवीआई बैंक, एमटीएनएल, वीएसएनएल, एयर इंडिया और रेल का निजीकरण किया जा रहा है। तेजस जैसी निजी क्षेत्र की रेल चलाई जा रहीं है। रिज़र्व बैंक की आपातकाल के लिए रखी गई राशि भी मांग ली गई। फ़िर सरकार कर क्या रहीं है। सरकारी क्षेत्र के उद्यम क्यों बेचें जा रहे हैं। आखिर सरकार सत्ता में क्यों आती है। लोकतंत्र बदलाव क्यों चाहता है। सरकारें जब नौकरियां नहीं सृजित कर सकतीं, लोगों को रोजगार नहीं दे सकतीं। लगातार खस्ता होतीं आर्थिक बदहाली नहीं रोक सकतीं तो कर भी क्या सकतीं हैं। फ़िर उन्हें सत्ता में बने रहने का हक क्या है। सवाल लाज़मी है कि देश के आर्थिक हालात बेहद बुरे हैं। भाजपा , जिस कांग्रेस को गाली देकर सत्ता में आई थी वह उसी का अनुसरण कर रहीं है। लेकिन सार्वजनिक उपक्रमों को बेचने का उसका जो फैसला है उसे कांग्रेस ने अपने चालीस साल के शासन में कभी नहीं किया। फ़िर सपने बेचना बंद कर देना चाहिए। जबकि विपक्ष शाहीनबाग से देश को कब तक चलाएगा।
महात्मा गाँधी की आत्मा कुढ़ रहीं होंगी। उन्हें दुःख होगा कि कुछ लोग उनके सत्याग्रह और आजादी मार्च का पेटेंट करना चाहते हैं। हमारे यहाँ एक कहावत है ‘महाजनों गतेन ते संपथा’ यानी हमारे महापुरुष जिस रास्ते का अनुसरण करें, उसी मार्ग पर हमें भी चलना चाहिए। तभी तो हम आजादी के सत्तर दशक बाद भी गाँधी और गोड्से के अनुगामी हैं। क्योंकि हम लोकतंत्र में विश्वास रखते हैं। हमारा संविधान समता- समानता की वकालत करता है। आजकल संविधान की प्रस्तावना पर अधिक जोर है। इसलिए हम गाँधी और गोड्से में कोई फ़र्क नहीं रखते। जमीनी सच्चाई है कि यह लड़ाई किसी गाँधीवाद और सत्याग्रह की नहीं है। यह लड़ाई तो खुद के वजूद को बचाने और डर की है। दरसल कांग्रेस की सेक्यूलरवाद ने अपने चालीस साल के शासनकाल में अल्पसंख्यकवाद को खूब खाद- पानी दिया। उसे लगा की वह तुष्टीकरण की नीति अपनाकर मुस्लिममतों के ध्रुवीकरण के भरोसे आजीवन सत्ता का स्वाद चखती रहेगी। गाँधी- नेहरू परिवार को मुस्लिमों को हिमायती मना जाने लगा। लेकिन इंदिरा गाँधी की हत्या के बाद स्थिति बदल गई। बीच में वीपी सिंह सरकार में आरक्षण नीति लागू होने के बाद एक अलग महौल बना। फ़िर राजीव गाँधी सरकार में शाहबानो प्रकरण ने कांग्रेस की मुस्लिम छबि पर मुहर लगा दिया। फ़िर उनकी हत्या के बाद कांग्रेस सरकार में ही अयोध्या में विवादित स्थल का ताला खुलवाया गया और उसी सरकार में बाबरी को ढाँचे को हिंदू संगठनों ने गिरा दिया। जिसकी वजह से मुस्लिमों में काँग्रेस कि विश्वसनीयता घट गई और उसे हासिए पर जाना पड़ा। राममंदिर आंदोलन के बाद भाजपा जनसंघ से भाजपा के अवतार में आई। इसके बाद सवर्ण जातियां कांग्रेस से विलग हो कर भाजपा का रुख कर लिया जबकि दलित वोट पर वीएसपी का कब्जा हो गया। कांग्रेस को हिंदू – विरोधी छबि की वजह से काफी नुकसान उठाना पड़ा। जिसकी सजा वह आज़ भी भुगत रहीं है।
देश आज़ भी गाँधी का ऋणी है। लेकिन गाँधी दर्शन के
साथ में गोड्से को भी खाद- पानी दिया जा रहा है। कुछ गाँधी नामधारियों ने तो बाकायदा ‘गोड्से’ का नामकरण भी कर दिया। जामिया नगर के सत्याग्रह में एक नया गोड्से अवतरित हुआ है। किसी समाजवादी ने सच कहा था कि जब विचार मर जाते हैं तो इंसान जिंदा लाश बन जाता है। शायद इसीलिए हमने गाँधी और गोड्से को मरने नहीं दिया। गीता में भगवान कृष्ण ने युद्धभूमि में अर्जुन को उपदेश देते हुए स्वयं कहा है। आत्मा अजर अमर है। इसका कभी विनाश नहीं होता। वह केवल शरीर त्यागती है। यानी गाँधी और गोड्से ने केवल शरीर का त्याग किया है। उनकी आत्मा तो हमारे बीच है। तभी तो गाँधी के बताए मार्ग पर चलते हुए हम आजादी- आजादी की रट लगाए हुए हैं। अमीरबाग, ख़ुशरोबाग के बाद हमने ‘शाहीनबाग’ भी तैयार कर लिया है। गाँधीवाद इतना पॉपुलर हो चुका है कि इसकी तर्ज़ पर पूरे मुलुक को ‘शाहीनबाग’ का क्लोन बनाने की तैयारी चल रहीं है।गाँधी और गोड्सेेवाद में बड़ा घालमेल हो गया है। गाँधीवादी और गोड्सेवादी पूरी तरह अपने को साबित करने में नाकाम दिख रहे हैं। दोनों मध्यमार्ग अपनाते दिखते हैं। लेकिन आजकल ‘आजादी मार्च’ में दोनों का प्रतिबिंब खूब दिख और बिक रहा है। शायद ! इस विवाद को ख़त्म करने के लिए गाँधी और गोड्से को पुनः पुनर्जन्म लेना पड़े।उन्हें एक दूसरे से माफी मांगनी पड़ेगी कि भाई, आप लोग यह लड़ाई ख़त्म कीजिए। हम दोनों ने मिलकर यह झगड़ा निपटा लिया है। देश को और कितनी आजादी चाहिए और कितने टुकड़े चाहिए यह कहना मुश्किल है। लेकिन जमीनी सच्चाई यह है कि 2014 इस बदलाव का बड़ा कारण बना है। भाजपा के सत्ता में आने के बाद देश में दक्षिणपंथ मज़बूत हुआ है। जिसकी वजह से गैर भाजपाई दलों को यह लगने लगा है कि उनका अस्तित्व ही ख़त्म होने वाला है। वामपंथ और सेकुलरवाद हासिए पर है। यह सच्चाई भी है कि प्रतिपक्ष को यह लगता होगा कि शाहीबाग जैसे सत्याग्रह से सरकार को घेरने में वह सफल हुआ है। लेकिन भाजपा शाहीबाग को आगे कर हिंदुत्व का ध्रुवीकरण करने में कामयाब हुई है। शाहीबाग एजेंडे को केवल मुस्लिम महिलाएं ही नहीं चला रहीं हैं उसके पीछे पूरा विपक्ष जुटा है। तिरंगे झंडे के साथ लंगर चलाया जा रहा है। इस सत्याग्रह के पीछे कम्युनल भय भी है। तीन तलाक, धारा- 370 के बाद सीएए आने से मुस्लिम समुदाय को लगता है कि भाजपा हिंदुस्तान में उन्हें ख़त्म करने की कानूनी साजिश रच रहीं है। जिसकी वजह से शाहीबाग जैसे सत्याग्रह को हवा दी जा रहीं है। हालांकि वैश्विक मंच पर धार्मिक भेदभाव को लेकर देश की छवि को नुकसान भी पहुँचा है। लेकिन शाहीबाग का सत्याग्रह हिंदुत्व को और अधिक मज़बूत करने में कामयाब हुआ है। सरकार भी चाहती है कि शाहीबाग का सत्याग्रह चलता रहे और उसकी नीति कामयाब हो।
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प्रभुनाथ शुक्ल