स्थायी खुशी प्रभु की ऐसी देन है जिसे पंचतत्व मिलकर भी नष्ट नहीं कर सकते। हम अपने जन्म के समय से ही दु:ख नहीं चाहते। हम हमेशा खुशी और संतोश को पाने की चाहत रखते हैं। उसके लिए हम अपने परिवार, दोस्तों और प्रियजनों से प्यार करते हैं और उनसे भाई-चारे का व्यवहार करते हुए उसी में अपनी खुशी तलाशते हैं। हम दुनिया की धन-संपत्ति और रिष्ते-नातों में भी खुशियाँ ढूंढने का प्रयास करते हैं।
यदि हम इनका विष्लेशण करें तो हम पाएंगे कि इन सबसे हमें सदा-सदा की खुशी नहीं मिलती। हमें इनसे कुछ समय के लिए तो खुशी मिलती है परंतु ठीक इसके विपरित धन-संपत्ति के नुकसान या रिष्तों को खोने से हमें अत्यंत पीड़ा और दु:ख की भी अनुभूति होती है। उदाहरण के तौर पर अगर हमारा घर आग में जल जाए तो हमें लगता है जैसे हमने सब कुछ खो दिया। अगर हम करोड़पति हैं और अचानक दिवालिया हो जाते हैं तो हम निराश हो जाते हैं, और यदि हमारे किसी प्रियजन की मृत्यु हो जाती है तो हम शोक में डूब जाते हैं। पैसा, चीजें और अपने प्रियजनों के नजदीक होने से जो खुशी हमें मिलती है, वो उनके दूर जाने से दु:ख में बदल जाती है। जीवन के किसी न किसी मोड़ पर हमें यह अहसास जरूर होता है कि इस बाहरी दुनिया की सभी खुशियाँ अस्थायी हैं।
जब तक हम इस दुनिया में खुशियां ढूंढते रहेंगे, तब तक हमें निराशा ही हासिल होगी क्योंकि इस दुनिया में सब कुछ नष्वर है। अंत में हमें भी अपने भौतिक अंत का सामना करना होगा और अपना सब कुछ यही छोड़कर जाना होगा। यही दुनिया का दस्तूर है। जिंदगी की वास्तविकताओं को देखकर हम यह सोचने लगते हैं कि क्या इस दुनिया में सच्ची खुशी पाने की कोई उम्मीद है? हम इस दुनिया में स्थायी खुशी कैसे और कहाँ से पा सकते हैं? सदियों से महान संत-महापुरुश हमें यह बताते आ रहे हैं कि सच्ची खुशी बाहर की किसी चीज में नहीं बल्कि अपने भीतर ही पाई जा सकती है। स्थायी खुशी प्रभु की एक ऐसी देन है जिसे वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी नष्ट नहीं कर सकते। उस खुशी को हमसे कोई छीन नहीं सकता। स्थायी खुशी का एकमात्र साधन परमात्मा है। सभी संतों-महापुरुशों ने परमात्मा को सत-चित्त-आनंद के रूप में संबोधित किया है। इन महापुरुशों ने अपने भीतर परमात्मा का अनुभव किया और इसका संदेश सभी इंसानों को दिया। उन्होंने हमें सिखाया कि परमात्मा प्रेम, ज्योति और चेतनता के महासागर हैं। हम सभी आत्माएं परमात्मा की अंश हैं।
जब हम अपने वास्तविक रूप को पहचान लेते हैं, तब हम आनंद के स्त्रोत के साथ जुड़ जाते हैं। आनंद के इस स्त्रोत से जुड़ना आसान है। यह केवल हमारे ध्यान का विशय है। हम जहाँ चाहे वहाँ अपना ध्यान लगा सकते हैं। आध्यात्मिक गुरु हमें ध्यान एकाग्रचित्त करने की कला सिखाते हैं, जिसमें हमें अपने ध्यान को अपनी दोनों भौहों के बीच (शिवनेत्र) पर टिकाना होता है, इसी को ध्यान-अभ्यास कहा जाता है। अगर हम बाहरी दुनिया से कुछ समय के लिए ध्यान हटाकर शिवनेत्र पर एकाग्र करें तो हम खुशी और आनंद के स्त्रोत के साथ जुड़ जाएंगे, जो हमारे भीतर हमारी प्रतीक्षा कर रहा है।प्रतिदिन दो घंटे इस तरह ध्यान टिकाने से हम शरीर से ऊपर उठना सीख जाएंगे। आमतौर पर सुरत की धारा के जरिये ही हमारे शरीर को दुनिया की बाहरी चीज महसूस होती है। जैसे देखना, सुनना, चखना, सूंघना और स्पर्श करना। इन इंद्रियों के जरिये ही हम सुंदर दृष्य देख सकते हैं, मधुर आवाजें सुन सकते हैं, सुगंध का आनंद ले सकते हैं, लजीज खाना खा सकते हैं और स्पर्श की इंद्री के जरिये सुखद अनुभूति कर सकते हैं। यदि हम अपनी सुरत की धारा को बाहर की दुनिया से हटाकर, शिवनेत्र पर एकाग्र करें तो दिव्य ज्योति और श्रुति की एक अनोखी दुनिया हमारे लिए खुल जाएगी।
तब हम अपने अंदर प्रभु की उस ज्योति और श्रुति का अनुभव करेंगे, जो सृष्टि की रचना के वक्त परमात्मा से ही निकली थी। जब हमारी आत्मा प्रभु की इस धारा के संपर्क में आती है तो यह अपने स्त्रोत (परमात्मा) के पास वापिस जा सकती है। स्थायी खुशी की यात्रा की शुरूआत आत्मा ध्यान-अभ्यास के जरिये करती है। हमारी आत्मा हमेशा चेतन और आनंदमयी अवस्था में रहती है। जब हम इस अद्भुत खुशी का अनुभव करते हैं तो हमारी दुनिया की इच्छाएं कम होने लगती हैं।जो लोग ध्यान-अभ्यास करते हैं, वे अपना ध्यान दु:खों के समय में भी खुशी के स्त्रोत पर लगा सकते हैं। यह सच है कि ऐसे समय में भी वे जीवन के बाहरी दु:ख-दर्द में से गुजरते तो हैं लेकिन उनसे प्रभावित नहीं होते बल्कि अपने जीवन में आने वाली हर समस्या को आसानी से हल करने में सक्षम हो जाते हैं। जब हम ध्यान-अभ्यास करते हैं और अपने भीतर प्रभु-प्रेम और खुशी के संपर्क में आते हैं, तब हम इसे औरों में भी बांटना शुरू कर देते हैं जिससे कि हमारा दृष्टिकोण बदल जाता है और हम सही मायनों में सच्चे इंसान बन जाते हैं।