अस्सी के दशक की बात है, मैं कानपुर में एक मित्र के पास गया हुआ था। मेरे उन मित्र का छोटा भाई पीडब्ल्यूडी-बीएंडआर में ठेकेदारी करता था। मेरे मित्र के उस भाई को उसी दिन एक टेंडर एलाट हुआ था जिस दिन मैं उनके यहां पहुंचा तो चर्चा भी उसी परियोजना की हो रही थी। मेरे मित्र का भाई बता रहा था कि उन्हें जो टेंडर एलाट हुआ है वह एक पुलिया बनाने का ठेका है।
बहुत बड़ा काम नहीं था वो, पर उसमें जो हेर-फेर हुआ था मैं उसकी चर्चा करना चाहूंगा। सरकार की ओर से एक परियोजना को स्वीकृति मिली थी कि आसपास के गांवों की पहुंच सड़क पर 9 छोटे- छोटे पुल, जिन्हें आम भाषा में पुलिया और अंग्रेजी में कलवर्ट कहा जाता है, बनाए जाएं और उसके लिए एक निश्चित धनराशि तय की गई थी।
जब ठेकेदारों से उसके लिए कोटेशन ली गई तो अधिकारियों की आंखें खुलीं। दरअसल सभी कोटेशन ऐसे थे कि केवल एक ही पुलिया बनाने का खर्च उस धनराशि से थोड़ा ही कम था जितनी राशि नौ पुलियाएं बनाने के लिए स्वीकृत थी। सरकार, सरकार होती है और अधिकारी, अधिकारी। अधिकारियों ने अपना खेल खेला और फाइल पर यह नोटिंग लिख दी इस टेंडर में हम पैसा बचा रहे हैं। स्वीकृत धनराशि के 90 प्रतिशत खर्च में काम कर रहे हैं, और यह बात गोल कर गये कि 9 पुलियाओं की जगह सिर्फ एक पुलिया बनाई जा रही है। अधिकारियों का कहना था कि परियोजनाओं के लिए धनराशि स्वीकृत करने का आधार वह खर्च है जो आजादी से भी पहले आता था। अब महंगाई बढ़ गई है, मजदूरी की दर बदल गई है लेकिन परियोजनाओं के लिए धनराशि स्वीकृत करने के आधार में परिवर्तन नहीं हुआ है। तो यह सिस्टम की बात है। सिस्टम अगर गलत हो, आधार ही गलत हो, तो भ्रष्टाचार को बढ़ावा मिलेगा ही क्योंकि सीधे तौर पर काम करना संभव ही नहीं रह जाता।
किसी भी एक कारण से अगर भ्रष्ट अथवा अनैतिक तरीके से काम करने की शुरूआत हो गई तो फिर भ्रष्ट अथवा अनैतिक आचरण एक रुटीन बन जाता है और जीवन में उतर आता है। भ्रष्ट व्यक्ति हर काम को भ्रष्ट तरीके से करेगा। हमारे सिस्टम ने हमें भ्रष्ट बनने पर विवश किया है। यह सिस्टम की भी कमी है। मुझे एक और उदाहरण याद आता है। शायद 1995 की बात है। मनोहर जोशी महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री थे और मेरी उनसे मुलाकात तय थी। उनसे मुलाकात के बाद मेरे पास सारा दिन खाली था और मैं अपने जिस मित्र के पास ठहरा हुआ था वे मुंबई उच्च न्यायालय में वकालत करते थे।
दिन बिताने की नीयत से मैं अपने वकील मित्र के पास उच्च न्यायालय परिसर में चला गया। वहां अदालत की मुख्य सीढ़ियों के पहले पायदान पर ही एक तरफ बड़े से पट्ट पर इमारत के निर्माण के विवरण दर्ज हैं। ‘कार्य आरंभ होने की तिथि – 1 अप्रैल 1871, कार्य पूर्ण होने की तिथि – नवंबर 1878, व्यय का स्वीकृत पूवार्नुमान – 16,47,196 रुपये, व्यय जो वास्तव में हुआ-16,44,528 रुपये।’ इस सूचना के अलावा भी उस पट्ट पर उन लोगों के नाम भी हैं जिन्होंने परियोजना को मंजूरी दी और इसका काम पूरा किया।
इस सूचना के दो पहलू हमें तत्काल प्रभावित करते हैं। पारदर्शिता और जवाबदेही। ट्रांसपेरेंसी एंड एकाउंटेबिलिटी। इस परियोजना को मिला धन, समय और इसके लिए उत्तरदायी लोगों के बारे में जनता को बता दिया गया है। इसे पूरा करने के लिए कितना वक्त दिया गया था, यह तो नहीं बताया गया है, लेकिन जब वास्तविक खर्च पूवार्नुमान से कम है तो साफ है कि काम सख्त देरखरेख में पूरा हुआ और परियोजना वक्त पर ही पूरी हुई। तब तक 117 वर्ष से ज्यादा वक्त गुजर चुका था, पर यह इमारत तब भी मजबूती के साथ खड़ी थी। मैंने जब अपने मित्र से इसकी चर्चा की तो उन्होंने मुझे ऐसी ही एक और बुलंद देन के दर्शन करवाये। वे मुझे मुंबई नगरपालिका के कार्यालय ले गये। मुझे यह देखकर हैरानी हुई कि वहां भी ऐसी ही सूचना प्रमुखता से लगी थी। आज जब मैं यह लेख लिख रहा हूं तो महाराष्ट्र कोरोना की चपेट में है।
सरकारी कामकाज ठप हैं और मेरे वह वकील मित्र कोरोना से जंग हार कर परमात्मा के श्री चरणों में जा विराजे हैं। मेरे पास इस समय कोई साधन नहीं है कि मैं यह जांच सकूं कि मुंबई उच्च न्यायालय में और मुंबई नगरपालिका कार्यालय में अब भी वह पट्ट मौजूद है या नहीं, और मुझे अफसोस होता है कि तब तक भारतवर्ष में कैमरे वाले मोबाइल फोन तो क्या, मोबाइल फोन ही नहीं आये थे, वरना मैं उन दोनों जगहों की फोटो ले चुका होता। हालांकि उम्मीद यही है कि किसी सरकार का उस पट्ट की ओर शायद ध्यान नहीं गया होगा, वरना अपनी शर्म छुपाने के लिए कोई सरकार ही उस पट्ट को हटवा देती।
(लेखक मोटिवेशनल एक्सपर्ट हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)
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