पवित्र रमजान माह की शुरुआत हो चुकी है। कुरान पाक कहती है कि यह दुआ का समय है। अपने दुश्मन के लिए भी बद-दुआ नहीं करनी चाहिए। सब्र और रोजा सिखाता है कि हम भोग विलासी नहीं, जुबान, व्यवहार और विचारों से पवित्र बनें। हम खुद को ऐसे तपाएं कि मन से संकीर्ण सोच और व्यवहार खत्म हो जाये। पैगंबर मोहम्मद साहब ने कहा है कि सिर्फ इंसान ही नहीं, सभी जीव-जंतु भी अल्लाह के परिजन हैं। हिंदू धर्म में भी वसुधैव कुटुंबकम का पाठ पढ़ाया गया है। निश्चित रूप से हमें भी अपने आचरण और विचारों में यही सोच लानी चाहिए। दुनिया तभी खूबसूरत दिखेगी जब हम सब एक-दूसरे के सुख-दुख में साथ होंगे और मोहब्बत करेंगे। हमारे मजहब, हमारी सोच अलग हो सकती है, मगर हमारे खून का रंग एक है। इस दुनिया को चलाने वाला एक है, भले ही हम उसे अलग-अलग नाम से पुकारते हों। जब परमपिता किसी का बुरा नहीं चाहते, तो हम भी सबके हित की दुआ करें। इस संकट की घड़ी में हम प्रेम, एकता और सबका हित सोचते हुए काम करें, न कि घृणा पैदा करने वाली हरकतें। अलगाव-भेदभाव की नीति हम सबको ले डूबेगी। अगर हम घृणित और स्वार्थी विचारों को तरजीह देंगे, तो सबका नुकशान तय है। दुख होता है, जब खुद को जिम्मेदार बताने वाले घृणित हरकतें करके श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते हैं।
महाराष्ट्र के पालघर में दो साधुओं के साथ मॊब लिंचिंग हुई। कट्टर धार्मिक सियासी लोगों ने घटना का पूरा सच जाने बिना ही छातियां पीटनी शुरू कर दीं। कथित संत समाज के लोग बगैर समीक्षा आंदोलन की धमकी देने लगे। नफरत के एजेंडे पर काम करने वाले संक्रीर्ण मानसिकता के पत्रकारों ने झूठ-सच का मिक्चर बनाकर अपनी टीआरपी का खेल शुरू कर दिया। तथ्यों को जाने बगैर ऐसे लोगों ने इसे सांप्रदायिक रूप दे दिया। जहरीले लोगों ने अपना जहर दूसरों के मन में बोना शुरू कर दिया और मूर्खों की जमात शुरू हो गई। सोशल मीडिया के दौर में गैर जिम्मेदार लोगों के चेहरे स्पष्ट हो चुके हैं। किसी भी तरह की लिंचिंग या मॊब लिंचिंग को सही नहीं ठहराया जा सकता है। लिंचिंग किसी के भी साथ हो, यह मानवता की हत्या करने वाला कृत्य है। हम सभ्य और कानून शासित समाज के वासी हैं, हमें उसके अनुकूल व्यवहार करना चाहिए। सच यह था कि यह साधु कानून तोड़कर छिपते छिपाते जा रहे थे। नफरती लोगों ने अफवाह फैलाई हुई थी कि दूसरी कौम के लोग साधुओं के वेष में कोरोना फैलाने निकले हुए हैं। इसी अफवाह ने मॊब लिंचिंग का रूप ले लिया। नफरत के इस खेल का शिकार साधु भी हुए और हमला करने वालों के धर्म के लोग भी। मानवता की हत्या हो रही थी और नफरती मीडिया टीआरपी का खेल खेल रहा है।
हमने 90 के दशक में पत्रकारिता की शुरुआत की थी। उस वक्त संचार माध्यमों में तकनीकी बदलाव या कहें उन्नति आ रही थी। एक चर्चा पर बहस चल रही थी कि पत्रकारिता सिर्फ प्रोफेशन है या मिशन? तमाम वैचारिक गोष्ठियों और मंथन के बाद निष्कर्ष निकला कि यह एक “श्रेष्ठ पेशा” है। हमें सिखाया जाता था कि पत्रकार वह है, जो तमाम अभावों में भी अधिकतम ज्ञान अर्जित करके, उससे समाज को ऐसी सूचनाएं देता है, जिससे प्रेम, सौहार्द और सभ्यता मजबूत हो। घृणा उत्पन्न करने वाली घटनाओं को निंदा भाव से प्रस्तुत करता है। आज हम खुद को उन्नत समझते हैं, मगर हालात बद से बदतर होते जा रहे हैं। कोरोना महामारी के संकट के समय हमने देखा एक न्यूज चैनल ने चलाया “कोरोना के कहर से बर्बाद हो जाएगा पाकिस्तान”। एक चैनल ने चलाया कि “कोरोना से खत्म हो जाएगा मुस्लिम समुदाय”। कुछ मीडिया माध्यमों ने तो कोरोना के लिए सिर्फ मुस्लिम समुदाय और तब्लीगी जमात को ही दोषी ठहरा दिया। केंद्र सरकार के आंकड़े भी इसका समर्थन नहीं करते, सिर्फ नफरत फैलाने के लिए इन्हें तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत किया गया। खुद को बड़ा पत्रकार समझने वाला एक एंकर-संपादक देश के एक शीर्ष सियासी परिवार की बहू, जो किसी भी भारतीय महिला से श्रेष्ठ होने का आदर्श प्रस्तुत कर चुकी हैं, के लिए मर्यादा के विपरीत शब्दों का प्रयोग करता है। घृणित व्यवहार करके नफरत फैलाने की साजिश रचता है। ऐसी पत्रकारिता हमें शर्मसार करती है, श्रेष्ठ नहीं बनाती।
हाल के दिनों में कोरोना ग्रसित पूंजीवादी देशों ने चीन के खिलाफ नफरत फैलाने की मुहिम शुरू की है। कोरोना महामारी से लड़ने की घड़ी में कई यूरोपीय और अमेरिकी छत्रछाया वाले देशों ने चीन के साथ व्यापारिक रिश्ते सीमित करने का फैसला कर लिया। अमेरिका में राष्ट्रपति का चुनाव प्रस्तावित है, जिससे खुद को बचाने के लिए वहां के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप ने भी नफरत का कार्ड चला है। इस नफरत से तीसरे विश्वयुद्ध की भी तैयारियां भी शुरू हो गई हैं। जब दुनिया कोरोना से जूझ रही है, अमेरिका अपने हथियार चीन विरोधी देशों को बेच रहा है। अमेरिका ने तेल उत्पादन घटाने के बजाय उन तमाम देशों को लगभग मुफ्त में ही तेल बेचना शुरू कर दिया, जिन्हें वह चीन के खिलाफ हथियार की तरह प्रयोग करना चाहता है। आर्थिक मंदी के दौर में भी सोना आसमान पर जा रहा है। रुपये के मुकाबले डालर ऊंचाइयां छू रहा है। आखिर ऐसा क्या हो गया कि खराब अर्थव्यवस्था के बाद भी अमेरिकी डालर बढ़ रहा है और बाकी देशों पर संकट के बादल मंडरा रहे हैं? वजह साफ है, कि अमेरिका नफरत के हथियार से दूसरे देशों की धरती पर युद्ध लड़ना चाहता है। जैसे गुजरातियों के खून में व्यापार होता है, वैसे ही गोरे अमेरिकन भी व्यापारी हैं। वह अपना माल नफरत से भरे देशों को बेचकर लड़ाने और अपनी अर्थव्यवस्था मजबूत कर थानेदारी करने की साजिश रच रहा है। हम भी जाने-अनजाने उसके हथियार बन रहे हैं।
संयुक्त राष्ट्र संघ और विश्व स्वास्थ संगठन ने स्पष्ट किया है कि कोरोना महामारी में मुस्लिम कौम हो या चीन दोनों ही पीड़ित हैं। चीन ने वक्त रहते निरोधात्मक कदम उठाये, जिससे उसके यहां वायरस आगे नहीं बढ़ पाया मगर तमाम देश लंबे समय तक चेतावनी को हल्के में लेते रहे। हमें याद आता है कि यही गलती हमारे यहां भी हुई, जब फरवरी के पहले सप्ताह में कांग्रेस सांसद राहुल गांधी ने कोरोना वायरस के संकट पर सरकार को कई बार चेताया मगर उनका मजाक उड़ाया गया। हम महामारी के संकट में फंस गये। सिर्फ सियासी एजेंडों और नफरत के कारण इन चेतावनियों को नजरांदाज किया गया। यदि वक्त रहते विश्व के विकसित देशों के साथ ही हमारे देश ने भी एहतियाती कदम उठा लिये होते तो शायद लॊकडाउन की जरूरत ही न पड़ती। भारत के तमाम विचारक सदैव से दावे करते रहे हैं कि हम पुरातन में विश्व गुरु थे और वही बनना चाहिए मगर हम यह भूल जाते हैं कि विश्व गुरु हम तब थे, जब श्रेष्ठ आचरण-विचारों को अपनाते थे। घृणा और संक्रीर्ण विचारों से दूर रहते थे। हमें श्रेष्ठ व्यक्ति, संस्था, समाज और गणराज्य बनना है, तो आचार-विचार में श्रेष्ठता लानी होगी। नफरत वाली सोच को दफनाना होगा। एक बार फिर से वसुधैव कुटुंबकम को अपनाकर आगे बढ़ना होगा। सरकार को उद्योगों और उद्यमियों की मदद करनी होगी, जिससे वो लोगों का रोजगार बचाने में मदद मिले, नहीं तो कोरोना से जीतने के बाद भी तस्वीर भयावह होना तय है। सौहार्द, सहयोग और मानवता की राह ही हमें श्रेष्ठ बनाएगी, मरने के बाद कोई भौतिक वस्तु साथ नहीं जाने वाली।
जयहिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)