गगन बावा, गुरदासपुर :
रक्षाबंधन का त्यौहार प्रत्येक वर्ष श्रावण मास की पूर्णिमा के दिन मनााया जाता है, इसलिए इसे राखी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है। यह पर्व भाई-बहन के प्रेम का उत्सव है। इस दिन बहनें भाइयों की समृद्धि के लिए उनकी कलाई पर रंग-बिरंगी राखियाँ बांधती हैं, वहीं भाई बहनों को उनकी रक्षा का वचन देते हैं। यह सबसे बड़े हिन्दू त्योहारों में से एक है।
राखी बांधने का शुभ मुहूर्त
22 अगस्त 2021 को रक्षाबंधन के दिन प्रात: 06:00 से 12:30 बजे तक, चर लाभ अमृत के तीन विश्व प्रसिद्ध चौघड़िया मुहूर्त रहेंगे। इसमें बहनें अपने प्रिय भाई की कलाई पर रक्षा सूत्र बांध सकती हैं। यह राखी बांधने का सबसे उत्तम समय रहेगा। इसके बाद सायंकाल 04:50 से लेकर 06:20 बजे तक शुभ का चौघड़िया मुहूर्त रहेगा। इसमें भी बहनें अपने भाईयो के हाथ पर रक्षा सूत्र बांध सकती हैं।
इन बातों का रखें विशेष ध्यान
रक्षा बंधन का पर्व श्रावण मास में उस दिन मनाया जाता है, जिस दिन पूर्णिमा अपराह्ण काल में पड़ रही हो। यदि पूर्णिमा के दौरान अपराह्ण काल में भद्रा हो तो रक्षाबन्धन नहीं मनाना चाहिए. ऐसे में यदि पूर्णिमा अगले दिन के शुरूआती तीन मुहूर्तों में हो, तो पर्व के सारे विधि-विधान अगले दिन के अपराह्ण काल में करने चाहिए यदि पूर्णिमा अगले दिन के शुरूआती 3 मुहूर्तों में न हो तो रक्षा बंधन को पहले ही दिन भद्रा के बाद प्रदोष काल के उत्तरार्ध में मना सकते हैं। पंजाब आदि कुछ क्षेत्रों में अपराह्ण काल को अधिक महत्वपूर्ण नहीं माना जाता है, इसलिए वहाँ आम तौर पर मध्याह्न काल से पहले राखी का त्यौहार मनाने का चलन है, लेकिन शास्त्रों के अनुसार भद्रा होने पर रक्षाबंधन मनाने का पूरी तरह निषेध है, चाहे कोई भी स्थिति क्यों न हो। ग्रहण सूतक या संक्रान्ति होने पर यह पर्व बिना किसी निषेध के मनाया जाता है।
रक्षा बंधन से जुड़ी कथा
जिस मंत्र को रक्षा सूत्र को बांधते हुए पढ़ा जाता है, उसके पीछे भी एक महत्वपूर्ण कथा है, जिसे प्राय: रक्षाबंधन की पूजा के समय पढ़ा जाता है। एक बार धर्मराज युधिष्ठिर ने भगवान श्रीकृष्ण से ऐसी कथा को सुनने की इच्छा प्रकट की, जिससे सभी कष्टों से मुक्ति मिल जाती हो। इसके उत्तर में श्री कृष्ण ने उन्हें कथा सुनाते हुए कहा कि प्राचीन काल में देवों और असुरों के बीच लगातार 12 वर्षों तक संग्राम हुआ। ऐसा मालूम हो रहा था कि युद्ध में असुरों की विजय होने को है। दानवों के राजा ने तीनों लोकों पर कब्जा कर स्वयं को त्रिलोक का स्वामी घोषित कर लिया था। दैत्यों के सताए देवराज इन्द्र गुरु बृहस्पति की शरण में पहुँचे और रक्षा के लिए प्रार्थना की।श्रावण पूर्णिमा को प्रात:काल रक्षा-विधान पूर्ण किया गया। इस विधान में गुरु बृहस्पति ने ऊपर दिये गये मंत्र का पाठ किया। साथ ही इन्द्र और उनकी पत्नी ने भी पीछे-पीछे इस मंत्र को दोहराया। इंद्र की पत्नी इंद्राणी ने सभी ब्राह्मणों से रक्षा-सूत्र में शक्ति का संचार कराया और इन्द्र के दाहिने हाथ की कलाई पर उसे बांध दिया। इस सूत्र से प्राप्त बल के माध्यम से इन्द्र ने असुरों को हरा दिया और खोया हुआ शासन पुन: प्राप्त किया।
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