हालांकि यह एक मजाक है, लेकिन इसके निहितार्थ बहुत बड़े हैं। किसी ने लिखा है, कि लॉकडाउन के पहले चरण में हम इतना डरे थे, कि सब कुछ ठप कर दिया। आफिस, कारखाने और परिवहन आदी सरी सेवाएं सरकार ने बंद करवा दीं। जो जहन फंसा था, वहीं का होकर रह गया। और जब कोरोना के केसेज बढ़े, तो कभी यह खोला तो कभी वह। कभी यह और वह खोला तो कभी वह और यह। मजे की बात कि जब कोरोना संक्रमण के लोगों की संख्या दो लाख के करीब पहुंची, तो सरकार ने हाथ खड़े कर दिए। अब हम कुछ नहीं कर सकते, जो करना है, पब्लिक करे। बंद करना है या खोलना है। सरकार स्वयं में मजाक बनती जा रही है।
‘डर के आगे जीत’ का प्रचार भले किया जाए पर वास्तविक दुनिया का सत्य यह है कि डर के चलते ही जीत होती है। इसे यूं कहना चाहिए कि जो डरता है वही जीतता है। डर के आगे जाने का मतलब जीवन को अराजक बना देना होता है। अगर मनुष्य डर अपने दिल से निकाल देगा तो हर चीज के प्रति अवहेलना जन्म लेती है। यह अवहेलना न सिर्फ मानसिक भय की वरन कानून के प्रति भी होने लगती है और निर्भय होने का उसका दावा व्यक्ति को हर सामाजिक बंधन से आजाद कर देता है। सत्य यह है कि जिस समाज में हम रहते हैं उसके प्रति दायित्वों के निर्वाह के लिए हमें उसके कानून-कायदे व नैतिक मयार्दाओं का ध्यान रखना ही पड़ता है। विभीषण लंका नरेश रावण के दरबार में रहते थे पर डर-डर कर ही और इसी का नतीजा था वे कई मामलों में लंका नरेश को समझाने की कोशिश भी करते थे। हनुमान जी जब लंका गए तो एक घर पर उन्होंने देखा कि वहां पर हवन हो रहा है और एक सज्जन पुरुष सौम्य मुद्रा में वहां बिराजे हैं। हनुमान जी उस घर में घुसे और उन सौम्य-सी मुद्रा वाले सज्जन से उनका परिचय पूछा तो उन्होंने बताया कि वे लंका नरेश रावण के छोटे भाई हैं पर यहां पर अराजक राक्षसों के बीच वे इस तरह रहा करते हैं जैसे दांतों के बीच बेचारी जीभ। संत कवि तुलसीदास ने विभीषण के इस वर्णन का अत्यंत मार्मिक वर्णन किया है। विभीषण हनुमान जी को बताते हैं- ‘सुनहु पवनसुत रहन हमारी, जिमि दसनन मा जीभ बिचारी’। अर्थात हे पवन सुत मेरा निवास तो यहां उसी तरह जैसे दांतों के बीच बेचारी जीभ रहती है। निडर होना अच्छी बात है पर निडर किस संदर्भ में अगर मानसिक संताप से गुजरने के लिए निडर और निर्भय बनना पड़े तब तो ठीक है पर आजकल जिस तरह से कोरोना के बावजूद सरकार लापरवाह हुई है, वह चिंता की बात है। आज हर संजीदा व्यक्ति चिंतातुर है। किंतु सरकार डाटा का खेल रही है। नतीजा यह है, कि लोगबाग सब कुछ छोड़-छाड़ कर बस इंटरनेट खेल रहे हैं। युवा अपनी जान जोखिम में डालकर सेल्फी लेते हैं उसे कहां तक उचित बताया जाए। सोशल मीडिया के चक्कर में आकर व्यक्ति व्यावहारिक दुनिया से कट जाता है और अपने लिए अपनी बात रखने का अकेला माध्यम सोशल मीडिया को मान लेता है। चूंकि सोशल मीडिया पर अंकुश नहीं है इसलिए वह जो कुछ चाहता है लिख देता है। यह अक्सर भड़काऊ और असामाजिक होता है। इसका नतीजा यह होता है कि वह व्यावहारिक दुनिया को भी सोशल मीडिया का ही एक मंच समझने लगता है और वहां भी अक्सर वह ऐसा व्यवहार करता है जो समाज के मान्य सिद्घांतों और नैतिकताओं के प्रतिकूल हो। यह इसी डर के निकल जाने का नतीजा है। डर को मन से निकालने का मतलब जानबूझ कर जोखिम मोल लेना नहीं है अथवा यह भी नहीं है कि हम समाज की नैतिकता और उसके मापदंडों को भूल जाएं या उनकी अवहेलना करने लगें। क्योंकि उसकी यही अवहेलना उसे अपनी जान को खतरे में डालने वाली होती है और साथ ही अपने निर्भय और निडर होते मन को वह दुस्साहसी बना देता है जिसका फल होता है अपना विनाश और समाज का पतनोन्मुखी होते जाना।
आजकल महानगरों खासकर उत्तर भारत के महानगरों में जान जोखिम में डालकर सड़कों पर मोटर साइकिल पर स्टंट करने की घटनाएं बढ़ती जा रही हैं। यह इसी डर के आगे जीत है का ही नतीजा है। मगर अगर इसी डर को वैज्ञानिक तरीके से जीतने का प्रयास किया जाए तो शायद नतीजे भी बेहतर होंगे। आजकल दिल्ली, हरियाणा, पंजाब और चंडीगढ़ से मोटरसाइकिलों के जरिये लेह-लद्दाख जाने का चलन बढ़ा है और इनमें से कुछ उत्साही युवा तो हिमाचल के दुर्गम रास्ते से लेह पहुंचते हैं। जहां पर कई सौ किमी का पैच तो ऐसा है कि अगर किसी कारणवश वहां रुक जाना पड़े तो मीलों तक कोई इंसान नहीं मिलता पर लोग जाते हैं। मय साजो सामान के और सकुशल लौटते हैं। मगर इस दुर्गम यात्रा के पीछे सोची-समझी रणनीति होती है। उनकी मोटर साइकिलें हर तरह से सुरक्षित बनाई जाती हैं और उनकी कीमत भी कई-कई लाख तक तक होती हैं। अच्छी किस्म की मोटरसाइकिल लेकर जो हिमालय पार करते हुए लेह व लद्दाख जाते हैं। वे पूरी तैयारी के साथ होते हैं। उनके पास कहीं भी रुकने के लिए जरूरी साजो-सामान से लेकर अतिरिक्त पेट्रोल व अन्य सहायक सामान रहते हैं। फिर वे समूह में चलते हैं और जहां कहीं भी बर्फ को गिरते देखा तो वे जोखिम लेते हुए आगे नहीं बढ़ते जाते वरन् वहीं रुक जाते हैं। वे जोखिम भरे रास्ते में सेल्फी नहीं लेते और न ही अपना धीरज खोते हैं। इसका साफ संकेत है कि अगर जोखिम को पार करना है तो डर को निकालना होगा पर अपना विवेक नहीं। जब आदमी विवेक खो देता है तब ही वह समाज की अवहेलना, कानून की अवहेलना और जोखिम में जान डाल देना जैसी हरकतें करने लगता है। इसलिए डर के आगे जीत है पर यह जीत तब ही सफल होती है जब आदमी विवेक न खोए। जिस दिन आदमी विवेक खो देगा उस दिन उसका यह निडर रहने का प्रयास उसे एक ऐसी खाई की तरफ ले जाएगा जहां पर सिर्फ गिरा जा सकता है उससे निकला नहीं जा सकता।
मनुष्य के लिए निडर रहने का अर्थ यह है कि वह पूरी सोच के साथ भय का मुकाबला करे। जब यह ऐसा करेगा तब उसके जोखिम का मतलब सत्य को जानना होगा न कि सत्य के साथ खिलवाड़। इसलिए जोखिम पूरा करने के लिए डर तो भगाइए मगर दुस्साहसी मत बनें। कोरोना अभी गया नहीं है। बल्कि जो आंकड़े आ रहे हैं, वे हालात और भयावह बना रहे हैं। कब यह कोरोना पलटवार कर जाए, कुछ पता नहीं। वह तो चूंकि हर स्तर पर जांच नहीं हो रही है न प्रशासन की निगरानी है, इसलिए हमें अब वह जाता हुआ दिख रहा है। लेकिन यह मिथ्या है। कोरोना अभी दो-तीन साल तब तक नहीं जाने वाला, जब तक इसके समूल नाश का टीका नहीं बन जाता। इसलिए हमें सतर्क रहना होगा। हम डरेंगे, तब ही जी पाएंगे।
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शंभूनाथ शुक्ल
(लेखक वरिष्ठ संपादक हैं। यह इनके निजी विचार हैं।)