The ‘world’ cup of ten countries: दस देशों का ‘विश्व’ कप

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पिछले एक पखवाड़े से हल्ला मचा है। सारी नजरें इंग्लैंड की तरफ है। यहां क्रिकेट का एक टूनार्मेंट चल रहा है। कहने को तो ये वर्ल्ड कप है। बमुश्किल दस देश खेल रहे हैं। अगर अफगनिस्तान की अंगुली पकड़ लें तो भारत, पाकिस्तान, श्रीलंका और बांग्लादेश को मिलाकर आधे से अधिक तो भारतीय उप-महाद्वीप के देश ही हैं। रह गए दक्षिण अफ्रÞीका, इंग्लैंड, वेस्ट इंडीज, न्यूजीलैंड और आस्ट्रेलिया। मतलब ये अंग्रेज, उनके संगे-साथी और कभी उनके हाथ लुटे-पिटे देशों का हू-तु-तु है।

उपनिवेशवाद भी अचरज की चीज है। जो हमें आदमी मानने को तैयार नहीं थे, हम उन्ही की भाषा, वेश-भूषा एवं पसंद-नापसंद पर जान छिड़कते हैं। उनका एक तथाकथित वार हीरो था चर्चिल। 1940 के दशक में इंग्लैंड के गोदाम भारत के अनाज से भरता रहा। लोग यहां भूख और अकाल से मरते रहे। अंग्रेज जाते-जाते ऐसी लड़ाई छेड़ गए कि हम हथियारों के दुनिया में दूसरे सबसे बड़े खरीदार बन बैठे हैं। पाकिस्तान में आधे से अधिक बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। लेकिन क्या मजाल कि फौजियों की चर्बी एक सूत भी कम हो जाए। वे बम-मिसाइल बनाने में लगे हैं जैसे कि भूख-बेरोजगारी इसी से मिटेगी। पड़ोसी का भय दिखाकर अपने ही लोगों को लूट रहे हैं।

दर्शक दीर्घा को देखकर लगता नहीं कि मैच भारत में नहीं हो रहा। ‘रिवर्स कोलोनाईजेशन’ की स्थिति है। आत्ममुग्ध और खिलन्दड़े अंग्रेज अपने ही देश में विस्थापित हो रहे हैं। लंदन समेत अस्सी छोटे-बड़े शहरों का मेयर पाकिस्तानी मूल का है। और तो और, इनका गृह मंत्री भी इधर से ही है। भारत-पाकिस्तान के बीच कुछ हो, उन्माद युद्ध-सा ही रहता है। कप जीतें ना जीतें, उनके लिए भारत से जीतना जरूरी होता है। राउंड रॉबिन मैच में जब रगड़े गए तो इनके फेंस टीवी तोड़-तोड़ कर रोए। ह्यरैला कट्टाह्ण शब्द इंटर्नेट पर ट्रेंड करने लगा। पता चला कि ये रॉबिन सिंह, रॉजर बिन्नी, संजय बांगड जैसी प्रजाति के खिलाड़ियों की बात कर रहे है। ये सब-कुछ करने की बात कर टीम में घुस आते हैं। होता इनसे कुछ भी नहीं है। कप्तान सरफराज की विकेट के पीछे जम्हाई वाला फोटो देखकर तो पाकिस्तानी पागल ही हो गए। पता कर लिया कि मैच की शाम को पिज्जा-बर्गर-आइसक्रीम खा रहे थे। इस बात के लिए दुनिया-भर की लानत भेजी। अगर उस समय उनमें से कोई अपने तथाकथित फैन्स के बीच फँस जाता तो उसकी मॉब-लिंचिंग तय थी।

ह्यमॉब-लिंचिंगह्ण शब्द का भी अपना इतिहास-भूगोल है। ये हिंसक झुंड द्वारा किसी कमजोर को ऐसे ही मार दिए जाने की जाहिलाना कायरता है। अमेरिकन क्रांति के समय ये शब्द चलन में आया था। वर्जिनीया के चार्ल्ज़ लिंच ने 1782 में पहली बार ह्ललिंच लॉह्व शब्द का इस्तेमाल किया। भाई ने अमेरिका-ब्रिटेन झगड़े के दौरान ब्रिटेन के समर्थकों को साल-साल के लिए जेल में डालना शुरू कर दिया जबकि इसके लिए कोई कानून नहीं था। इसको उसने ह्लयुद्धकाल की जरूरतह्व बताया और कांग्रेस से बाद में माफी भी ले गया। वैसे भीड़ द्वारा निरीह लोगों को मार दिया जाना कोई नई बात नहीं है। दुनिया भर में इसका प्रचलन है। जो लोग हिंसक प्रवृति के हैं, वे इस कुकृत्य में अपनी प्रासंगिकता ढूँढते हैं। कभी धर्म, कभी वर्ग, कभी जाति, कभी नस्ल की आड़ लेते हैं। भीड़ की ताकत के बूते सोचते हैं कि उनको उनके किया की सजा नहीं मिलेगी। अपराध अक्सर लोग छिपाते हैं। इन मामलों में ये ढीठ किस्म के लोग फोटो-विडीओ बनाकर अपनी मरदानगी के नमूने के तौर पर प्रचारित-प्रसारित करते हैं। शिकार गरीब और कमजोर तबके के लोग होते हैं। मकसद उनमें दहशत पैदा करना होता है। अपने को धर्म, जाति, नस्ल और संस्कृति का नायक साबित करना होता है। कहीं ना कहीं इन्हें कानून का भय नहीं होता। इन्हें विश्वास होता है कि जिन तबकों के लिए ये सब कर रहे हैं, वे उन्हें अपना हीरो मानेंगे। वे बच निकलेंगे। इस बात में कोई भ्रम नहीं होना चाहिए कि ये किसी के सगे नहीं हैं। आदमी की खाल में भेड़िए हैं। इन्हें पनपने देने का अर्थ भय और आतंक के गुजरे जमाने को फिर से वापस बुलाने जैसा है। जंगलराज कायम करना है।

बाद के दो-चार मैच जीतकर पाकिस्तानी टीम जैसे-तैसे घर-वापसी के लायक बनी। एक समय ऐसा भी आया कि पाकिस्तानी फैंस भारतीय टीम से इंग्लैंड को हराने की मिन्नत करने लगे। धोनी टेरिटॉरियल आर्मी के लेफ्टिनेंट कर्नल ठहरे। पहले अपने दस्ताने पर पाराकमांडो का प्रतीक-चिन्ह लगाकर बवाल खड़ा किया। फिर जब इंग्लैंड से जीत सकते थे, शॉट लगाना ही भूल गए। ट्विटर पर पाकिस्तानियों ने भारतीय खिलाड़ियों पर फिक्सिंग का आरोप लगाया। किसी ने जवाब में लिखा कि जितनी गम्भीरता से तुम आतंकियों से लड़ते हो, लगभग उतनी ही शिद्दत से हमने इंग्लैंड को तुम्हारे फायदे के लिए पीटने की कोशिश की।

टीम के चाल-ढाल से उनके देश की वर्तमान स्थिति का मोटा-मोटी अंदाजा लग जाता है। पाकिस्तानियों की फटेहाली साफ झलक रही थी। श्रीलंकाई मोटे-ताजे दिखे। टुरिज्म की मोटी कमाई मलिंगा के पेट पर दिख रही थी। बांग्लादेश की कुलाँचे मारती अर्थव्यवस्था उनके खिलाड़ियों के बिंदास रवैये में भी दिखी। बेशक हार गए, लेकिन बूमरा को भी ठोकने में नहीं झिझके। सबसे मस्त अफगानिस्तानी थे। जिससे भी भिड़े, तबीयत से टक्कर दी। भारत को भी मुश्किल से बख़्शा।

मंगल को भारत का दंगल न्यूजीलैंड से है। बैटिंग में रोहित शर्मा-विराट दूल्हे के रोल में है। बाकी बराती हैं। बोलिंग में फैसला नहीं हो पा रहा कि कुल-चा (कुलदीप-चहल) का आॅर्डर करें कि कुलर (कुलदीप-रविंद्र जडेजा) चलायें। जीत जाएँ तो अच्छा रहेगा। जश्नो-गारत में साल तो निकल ही जाएगा। फिर देखेंगे कि देश किधर जा रहा है।

ओ.पी.सिंह
लेखक वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी हैं।