सोबियत रूस दुनिया में कभी अपनी संघीय शासन प्रणाली के रुप में अपनी पहचान रखता था। लेकिन विभाजन के बाद भी उसने अपनी ताकत नहीं खोई और अमेरिका जैसे शक्तिशाली देश का हमेंशा प्रतिस्पर्धी रहा है। रुस में मार्क्सवादी- -लेनिनवादी विचारधारा वाली व्लादिमीर पुतिन सरकार का शासन है। पुतिन दुनिया के ताकतवर नेताओं में अपनी पहचान रखते हैं। पिछले दिनों रूस की संसद ‘ड्यूमा’ ने एक बेहद अलोकतांत्रिक संविधानिक संशोधन किया है। जिसका ऐलान पुतिन ने तीन माह पूर्व यानी जनवरी में ही कर दिया था। ‘ड्यूमा’ के फैसले पर रूस में राजनैतिक अशांति फैलने की आशंका जताई गई है। प्रतिपक्ष सड़क पर उतरने का ऐलान किया है। विरोधियों ने इसे अलोकतांत्रिक फैसला बताया है। पुतिन की एकल शासन प्रणाली की सोच मुल्क में हिंसा और अस्थिरता पैदा कर सकती है।
रुस की संसद ‘ड्यूमा’ ने दो-तिहाई बहुमत से उस कानून को खत्म करने का फैसला किया है जिसमें कोई भी व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति बनने बाद भविष्य में इस अधिकार से वंचित हो जाता है। इस कानून के पास होने के बाद पुतिन 2036 तक राष्ट्रपति की कमान संभाल सकते हैं। क्योंकि उनका कार्यकाल 2024 में खत्म हो रहा है। आपको याद होगा कुछ इसी तरह का प्रस्ताव ठीक दो साल पूर्व चीन की नेशनल कांग्रेस ने पास किया था। जिसमें चीनी राष्ट्रपति शी जिनपिंग आजीवन राष्ट्रपति चुने जा सकते हैं। चीन में भी कम्युनिस्ट शासन प्रणाली है। वहां भी कोई भी व्यक्ति दो कार्यकाल पूरा करने के बाद राष्ट्रपति- उपराष्ट्रपति पद पर आसीन नहीं हो सकता था। इस प्रस्ताव को भी तकरीबन 3000 हजार चीनी सांसदों ने दो-तिहाई बहुमत से पास किया था। चीन और रूस में शासन प्रणाली में एक समानता है। दोनों देशों में कम्युनिस्ट विचारधारावाली सरकारें हैं। दोनों में साम्यवादी शासन प्रणाली है। इस तरह के फैसले तो बेहद अलोकतांत्रिक हैं।
दुनिया के अधिकांश मुल्कों में औपनिवेश के खात्में और रक्तपात के बाद स्वशासन प्रणाली व्यवस्था में आई है। दुनिया भर में औपनिवेशवाद के साथ तानाशाह सरकारों से निजात पाने का संघर्ष का भई लंबा इतिहास रहा है। लेकिन बदलते दौर में दुनिया एक बार पुनः अतिवादी और तानाशाह शासन प्रणाली की तरफ बढ़ रही है। उत्तर कोरिया इसका सबसे बेहतरीन उदाहरण है। जहां एक तानाशाह किम जोन का शासन है। पुतिन सरकार के इस निर्णय से प्रतिपक्ष में जनाक्रोश है। विपक्ष ने सड़कों पर उतरने का एलान किया है। लेकिन पुतिन सरकार ‘कोरोना’ की आड़ में इस बगावत को दबाना चाहती है। सरकार के इस दमन के बाद रुस में आतंरिक अशांति बढ़ने की आशंका है। क्योंकि पुतिन रुस के इस वक्त सबसे ताकतवर नेता हैं और वे इस आंदोलन को दबाना चाहेंगे। जिसकी वजह से खूनी संघर्ष की स्थिति बन सकती है। अगर यह कानून पास हो गया तो रुस जैसे मुल्क में सत्ता की बागडोर पुतिन के हाथों में पुनः आ सकती है। वह अगले 12 साल तक राष्ट्रपति की कमान फिर संभाल सकते हैं। ‘ड्यूमा’ में यह प्रस्ताव 383 मतों से पास हो गया है। 22 अप्रैल को वोटिंग कराई जाएगी फिर अदालत इसकी समीक्षा करेगी। 20 सालों से रुस की बागड़ोर ब्लादीमिर पुतिन के हाथों में है। वह दो बाद प्रधानमंत्री और दो बार राष्टपति बन चुके हैं।
दुनिया के 56 मुल्कों में लोकतांत्रिक प्रक्रिया का बेहद सम्मान किया जाता है। जहां चुनी हुई सरकारें चलती हैं। जिसमें भारत, अमेेरिका और फ्रांस समेत कई देशा शामिल है। जबकि चीन, अरब, उबेकिस्तान, उत्तर कोरिया समेत तमाम देश तानाशाह शासन प्रणाली के तहत काम करते हैं। यहां लोकतांत्रिक व्यस्था नगण्य है। भारत दुनिया का सबसे बड़ा लोकतांत्रिक देश है। पूरी दुनिया में 15 फीसदी से अधिक देशों में लोकतांत्रिक शासन प्रणाली है जबकि 31 फीसदी देशों में एकाधिकार शासन व्यस्वस्था है। एक अध्ययन के अनुसार दुनिया का हर तीसरा व्यक्ति सामंतवादी शासन में जी रहा है। इस सामंतवादी व्यवस्था में चीन के नागरिकों की हिस्सेदारी आधे से अधिक है। इस तरह के फैसले जहां लोकतांत्रिक व्यस्था का गलाघोंटते हैं। वहीं एकाधिकार और व्यक्तिवाद शासन प्रणाली का विकास होता है। समता और समानता का अधिकार खत्म होता है। राष्ट्राध्यक्ष में सत्ता की चाहत इतनी अधिक बढ़ जाती है कि वह तानाशाह बन कर मनमानी फैसले करता है। अभिव्यक्ति की आजादी पर खतरे मंडराने लगते हैं। विपक्ष जैसी संस्थाए खत्म हो जाती हैं। सरकारें एक निहित एजेंडे के तरह सत्ता का संचालन और नियंत्रण करती हैं। देशवासियों में हमेंशा सत्ता का भय कायम रहता है। विचारों की आजादी खत्म हो जाती है। इस तरह के निर्णयों की आलोचना जायज है। एक बार सत्ता में आने के बाद राजनेता उसके ग्लैमर में इतना डूब जाता है कि सत्ता से बेदखली उसे बर्दाश्त नहीं होती है। पुतिन हो या चीनी राष्ट्रपति शीनपिंग सत्ता के इसी भय से ग्रसित हैं, जिसकी वजह से ससंद की तरफ से स्थापित लोकतांत्रिक मूल्यों को आघात पहुंचाने का काम किया है।
सरकारों को सत्ता सौंपने वाली जनता यह कभी उम्मीद नहीं रखती है कि लोकतांत्रिक संस्थाओं को खत्म किया जाए। पारदर्शी व्यस्था तानाशाही में बदला जाय। विकास और अच्छी सोच विकसित करने के बजाय सत्ता में बने रहने के अलोकतांत्रिक कायदे अपनाए जाएं। जनता संसद को अधिकार देती हैं, लेकिन संसद का भी दायित्व बनता है कि वह देश की जनता की तरफ से मिले जनादेश का सम्मान करे। बहुमत वाली सरकारों को सत्ता पाने के बाद यह अधिकार कभी नहीं मिल जाता है कि वह लोकतांत्रिक मूल्यों को आघात पहुंचा कर व्यक्तिवादी शासन प्रणाली का विकास करें। रुस जैसे देश के लिए यह फैसला कत्तई उचित नहीं है। इस तरह से तो लोकतंत्र खत्म हो जाएगा। सरकारों को बहुत के साथ लोकतांत्रिक संस्थाओं और मर्यादाओं का सम्मान करना चाहिए। एक निश्चित विचारधाराएं हिंसा और अस्थिरता के साथ अशांति को जन्म देती हैं। सत्ता में रहकर ही हम सब कर सकते हैं , इस विचारधारा से हमें बचना चाहिए। एक जिम्मेदार लोकतंत्र के लिए इस तरह के फैसले बेहद घातक हैं। सरकारों को इस तरह के निर्णयों से बचना चाहिए। लेकिन आम तौर पर दिखता नहीं है। विदेशों में इस तरह के फैसले आम हैं जिसकी वजह से लोगों का गुस्सा सड़क पर आता है लोग प्रदर्शन को बाध्य होते हैं। भारत में भी केंद्र सरकार की तरफ़ सीएए लागू होंने से किस तरह के आंदोलन छीड़े हैं किसी से छुपा नहीं हैं। देश को इसकी भारी कीमत चुकानी पड़ी है। इसलिए
लोकतांत्रिक दायित्वों और परंपरा का एक अच्छी और चुनी हुई सरकार को सम्मान करना चाहिए।
-प्रभुनाथ शुक्ल