अंतरराष्ट्रीय मुद्राकोष और विश्वबैंक की समीक्षा रिपोर्ट पर मुहर लगाते हुए गुरुवार को भारतीय रिजर्व बैंक के गवर्नर शक्तिकांत दास ने भी मान लिया कि मौजूदा वित्तीय वर्ष (2020-21) में जीडीपी की विकास दर नेगेटिव रहने का अनुमान है। कोविड-19 के कारण हालात सुधरने में लंबा वक्त लगेगा। सरकार ने एक उच्चस्तरीय कमेटी बनाई है, जो कारपोरेट लोन की योजना बनाएगी। आर्थिक संकटों से जूझ रही छोटी इकाइयों को कर्ज के लिए भी योजना बनी है। शक्तिकांत दास जब अर्थव्यवस्था के बेहाल होने का दोष कोविड-19 महामारी को दे रहे थे, तब वह भूल गये कि 2019 की तीसरी तिमाही में जीडीपी की दर पिछले छह साल के न्यूनतम स्तर पर थी। यही नहीं बेरोजगारी दर भी पिछले 45 साल के सभी रिकॉर्ड तोड़ चुकी थी। वह अपने आर्थिक सलाहकारों के बूते 2024 तक देश की अर्थव्यवस्था 5 ट्रिलियन डॉलर की बनाने का दावा कर रहे थे। वैश्विक स्तर के अर्थशास्त्रियों ने तब भी कहा था कि 4.5 फीसदी की जीडीपी की दर, यह ख्वाब पूरा नहीं कर सकती। स्पष्ट है कि देश की अर्थव्यवस्था उस वक्त ही चरमरा चुकी थी। अपनी नाकामी से बचने के लिए कोविड-19 महामारी की चादर ओढ़ी जा रही है। असल में कोविड के कारण हालात बद से बदतर हो गये हैं। सरकार इससे निपटने के कारगर उपाय के बजाय एनएसएसओ के आंकड़े छिपा रही है। वजह, पिछले 40 साल के मुकाबले इस वित्तीय वर्ष में उपभोक्ता खर्च में भारी कमी आना है।
अब तो आरबीआई गवर्नर इतिहासकार शक्तिकांत दास ने भी मान लिया कि देश की अर्थव्यवस्था बुरे दौर में जा रही है। सरकार ने इससे निपटने के लिए जो योजनाएं बनाई हैं, वह नाकाफी हैं। उनकी समीक्षा बैठक में जो तथ्य सामने आए, उसमें सबसे बड़ा संकट बैंकिंग सेक्टर पर है। उनके मुताबिक बैड लोन 12 लाख करोड़ रुपये हो गया है। वैश्विक अर्थशास्त्री और आरबीआई के पूर्व गवर्नर रघुरमन राजन ने जो अनुमान लगाया है, उसके मुताबिक मौजूदा वित्तीय वर्ष में बैड लोन 20 लाख करोड़ रुपये से अधिक हो जाएगा। मतलब, देश की तमाम बैंकें डूबने की कगार पर खड़ी हैं। उनको सरकार से मदद की दरकार है, जिसके लिए सरकार ने कुछ और बैंकों के विलय के साथ ही उनके निजीकरण की तरफ कदम बढ़ा दिये हैं। इससे भी समाधान होता नहीं दिख रहा क्योंकि छोटे-लघु उद्योग संघ ने स्पष्ट किया है कि एमएसएमई सेक्टर, विश्वसनीय व्यवस्था तंत्र न होने के कारण अपना कर्ज अदा करने की हालत में नहीं है। कोविड-19 के कारण इस सेक्टर को उबरने में अभी लंबा वक्त लगेगा। निश्चित रूप से इसका असर तमाम अन्य उद्योगों पर भी पड़ना लाजिमी है। मीडिया उद्योग भारी वित्तीय संकट से गुजर रहा है, जिससे उसे खुद विज्ञापन पाने के लिए विज्ञापन देना पड़ रहा है। समझा जा सकता है कि लघु एवं मध्यम उद्योगों में संकट के कारण रोजगार और लोगों की क्रय क्षमता के खत्म का संकेत है।
बैंकिंग सेक्टर की बेहाली और जीडीपी दर के निगेटिव हो जाने का असर भयावह होना तय है। बैंकिंग और नॉन बैंकिंग में निवेश पर जो ब्याज या लाभ आपको मिल रहा है, महंगाई दर उससे दोगुनी हो चुकी है। उधर, तीन हजार से अधिक कंपनियों ने खुद को दीवालिया घोषित करने का आवेदन किया है। करीब इतनी ही कंपनियां आवेदन देने को तैयार बैठी हैं। फिलहाल सरकार ने इस प्रक्रिया में रोक लगा रखी है। साफ है कि बैंकिंग सेक्टर की रीढ़ टूट रही है। सरकार चलाने के लिए नीति निर्धारक आरबीआई से लगातार नोट छापने को कह रहे हैं। जब भी बगैर वाजिब मूल्य के नोट छापे जाएंगे तो मुद्रास्फीति निश्चित है। एक वक्त था जब बैंकों का राष्ट्रीयकरण करके देशवासियों में विश्वास जगाया गया था, जो अब टूट रहा है। सावर्जनिक बैंकों को निजी हाथों में सौंपने का काम शुरू हो चुका है। नतीजतन, निवेश पर अपेक्षित रिटर्न नहीं मिल रहा। जब बैंकें डूबने की कगार पर हों और आपका धन खतरे में हो, तो आपका परेशान होना भी लाजिमी है। घर में रुपये आप रख नहीं सकते और निवेश का कोई विश्वसनीय स्थान है नहीं। जो संकट को और भी बढ़ा रहा है। यही कारण है कि इस वक्त सोने में निवेश तेजी से बढ़ा है। आरबीआई ने अब सोने पर 90 फीसदी लोन देने का फैसला किया है। संकट की इस घड़ी में, अन्य संपत्तियों पर आपकी जरूरत के मुताबिक लोन नहीं मिल रहा। इससे उद्योग बदतर हाल में जा रहे हैं। आत्मनिर्भर योजना कागजी साबित हो रही। आम कामगार का रोजगार छिन रहा है। सरकार ने संसदीय समिति के समक्ष खुद माना कि इस संकट के कारण 10 करोड़ नौकरियां खत्म हो गई हैं। स्वाभाविक है, लोगों की खरीद क्षमता भी बेहद कम होगी। यात्री वाहनों की बिक्री 49.59 फीसदी गिर गई।
आपको याद होगा कि 23 मार्च 2020 को केंद्रीय बजट पास हुआ था। उस बजट में आय-व्यय का जो लेखा-जोखा तैयार किया गया था, वह पहले से ही जर्जर हो चुकी अर्थव्यवस्था के कोविड-19 महामारी का शिकार हो जाने जैसा है। अब सरकार के आय के सभी अनुमान निर्थक हो रहे हैं। खर्च में कटौती की योजना भी कारगर नहीं हो पा रही। सरकार का धन जनहित से अधिक शाहखर्ची और आयोजनों पर व्यय हो रहा है। रुपये जुटाने के लिए हमारी कमाई वाली सार्वजनिक कंपनियों को बेचने की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है। लोगों को सुरक्षा का भरोसा दिलाने वाली सरकारी क्षेत्र की इंश्योरेंस कंपनियों को भी बेचा जा रहा है। इन हालात में तय है कि लोग अब इनमें भी निवेश करने से बचेंगे। दूसरी तरफ केंद्रीय वित्त सचिव अजय भूषण पांडेय ने साफ कर दिया कि वह पहली तिमाही में राज्यों को उनके राजस्व का हिस्सा देने की स्थिति में नहीं हैं। राज्यों की समस्या यह है कि वह इसी राजस्व से अपने मुलाजिमों को वेतन-भत्ते देते हैं। अगर उन्हें कमाई में हिस्सा ही नहीं मिलेगा तो वह नौकरियों और वेतन-भत्तों में कटौती करने को मजबूर होंगे। बेरोजगारी और भुखमरी तेजी से बढ़ेगी। विकास और जन कल्याण के कार्यक्रम रुक जाएंगे। सरकारों के पास आय के लिए संपत्तियां बेचेने के सिवाय कोई रास्ता नहीं होगा। जनता कंगाली और भ्रष्टाचार के दलदल में फंसी रहेगी।
वक्त की मांग यह है कि सरकार दूरदर्शी और विश्वसनीय नीतियां बनाये, न कि सिर्फ अनुमानों पर ताल ठोके। सरकारी कामकाज में पारदर्शिता और समयबद्धता सुनिश्चित हो। अर्थव्यवस्था और विकास के लिए यह बेहद कठिन दौर है। संकट की इस घड़ी में सरकार आमजन की खरीद क्षमता बढ़ाने और उसके लिए बड़े स्तर पर आर्थिक प्रोत्साहन देकर उद्यमों को खड़ा करने का काम करे। वक्त रहते इस दिशा में कारगर कदम नहीं उठाये गये, तो भयावह हालात से जूझने को तैयार रहें। दूरदर्शिता के अभाव में निजी एजेंडों पर आधारित सरकारी उपाय सिर्फ संकट बन सकते हैं, इलाज नहीं।
जयहिंद!
(लेखक आईटीवी नेटवर्क के प्रधान संपादक हैं)