The political belt of saffron shrinks: भगवा का सिमटता सियासी भूभाग ! 

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लोकतंत्र में जनता और उसके जनादेश का नजरिया कभी स्थाई नहीं होता। सरकारें अगर जनता के विश्वास पर खरी नहीं उतरती तो उन्हें अपनी सत्ता गंवानी पड़ती है। ऐसी स्थिति में सरकारों को आम लोगों के नजरिये को गहराई से समझना चाहिए। लोकतंत्र में जनता ही जनार्दन है। लेकिन सत्ता की अकड़ डूबोती है। झारखंड का जनादेश कम से कम यहीं संदेश देता है। सरकारों को इस भूल से निकलना चाहिए। केंद्र और राज्य की कमान एक डोर से नहीं खींची जा सकती। बदलते राजनीतिक समीकरण में भाजपा और कांग्रेस जैसे केंद्रीय दलों के लिए यह बड़ी चुनौती है। राज्यों में वह बगैर कंधे के नहीं सफल हो सकती हैं। झारखंड में भाजपा की पराजय की वजह भी यही है। राज्य की जनता ने केंद्रीय मुद्दों को किनारे रख आदिवासी समस्याओं को तरजीह दिया। भाजपा जहां नागरिकता बिल और धारा-370 में अटकी रही वहीं झारखंड मुक्ति मोर्चा का युवा चेहरा हेमंत सोरेन ने आदिवासी पीड़ा हो अच्छी तरह समझा और उसी मसलों पर चोट किया जिसकी वजह से भाजपा बैकफुट पर चली गई। आजसू जैसे विश्वसनीय सियासी दोस्त को भी भाजपा ने किनारे रखा। मुख्यमंत्री रघुवरदास की छवि ने उसे परास्त कर दिया। झारखंड से निकला जनादेश का संदेश भाजपा और उसके शीर्ष नेतृत्व के लिए बड़ी सीख है।
भाजपा की राजनीतिक साख और जनविश्वास का सूचकांक गिर रहा है। एक सालों में भाजपा ने पांच राज्यों को गंवा दिया। मध्यप्रदेश, राजस्थान, महाराष्ट, छत्तीसगढ़ के बाद झारखंड में भी भगवा का सफाया हो गया। 2019 में भाजपा केंद्र में बड़े बहुमत से भले सत्ता में आई, लेकिन राज्यों में खींसकता जनाधार उसकी पकड़ कमजोर बना रहा। हालांकि इस दौरान उसने कर्नाटक, मेघालय, त्रिपुरा और मिजोरम में सरकार बनाई है। जिसमें कर्नाटक बड़ा राज्य है। सात माह में 18 फीसदी वोट घटे हैं यह भाजपा और केंद्रीय नेतृत्व की नींद उड़ाने वाला है। झारखं डमें वोट शेयर के लिहाज से देखें तो भाजपा सबसे अधिक  33.41 प्रतिशत वोट हासिल किया है। लेकिन यह शेयर सीटों में नहीं परिवर्तित हो सका। राज्य में अपने पुराने साथी आजसू से रिश्ता तोड़ना उसे काफी घाटे का सौदा साबित हुआ। अगर भाजपा और आजसू के वोट शेयर को जोड़ दिया जाय तो यह 42 फीसदी तक पहुंचता है। जबकि कांग्रेस, झामुओं और दूसरे मित्र दल मिल कर भी 33 फीसदी से आसपास पहुंचते हैं। निश्चित रुप से सरयू प्रसाद राय की नाराजगी भाजपा की लुटिया डूबाने में अहम भूमिका निभाई। भाजपा को राज्य की 25 विधानसभाओं में जीत मिली है जबकि सरयू प्रसाद की आजसू को दो सीटों पर कामयाबी मिली है। आजसू पहली बार विधानसभा चुनाओं में उतरी थी।
झारखंड में जनता की नाराजगी इसी से साबित होती है कि मुख्यमंत्री रघुबरदास खुद की सीट नहीं बचा पाए और सरयू प्रसाद राय के सामने पराजित हो गए। इसी से अंदाजा लगाया जा सकता है कि राज्य में मुख्यमंत्री रघुबरदास की छबि कितनी अच्छी थी। यही नहीं दास मंत्रीमंडल के पांच मंत्री भी अपनी हार को नहीं बचा पाए। इससे यह साबित होता है कि राज्य में भाजपा सरकार की नीति को लेकर जनता में काफी नाराजगी थी। प्रधानमंत्री मोदी और गृहमंत्री अमितशाह भी आदिवासी इलाकों में जनता की नाराजगी नहीं समझ पाए। भाजपा 65 प्लस का नारा देती रही लेकिन उसे 25 पर सिमटना पड़ा। आदिवासीहितों की अनदेखी और मुख्यमंत्री की कार्यप्रणाली भाजपा को ले डूबी। जबकि आदिवासी परिवारों ने गुरु शिबू सोरेन की विरासत संभालने वाले युवा चेहरे हेंमत सोरेन पर अधिक भरोसाा जताया। जेएमएम ने 81 सीटों में 18.78 फीसदी वोट हासिल कर सबसे अधिक 30 सीट जीतने में कामयाब हुई है। जबकि उसकी सहयोगी इंडियन नेशनल कांग्रेस सिर्फ 13.85 प्रतिशत वोट पाकर 16 विधानसभा सीटों को अपने कब्जे में लिया। कांग्रेस और जेएमएम ने पिछले चुनाव से बेहतर प्रदर्शन किया। चुनाव विश्लेषकों की माने तो राज्य के 19 साल के इतिहास में कोई भी सत्ताधारी दल वापसी नहीं कर पाया है। 30 सीट जीतने वाली झारखंड मुक्ति मोर्चा पिछले चुनाव में 19 सीट पर जीत हासिल किया था। भाजपा से अलग होने के बाद आलइंडिया स्टूडेंट यूनियन यानी आजसू पहली बार चुनाव मैदान में उतरी थी। उसने दो सीट हासिल किया। जबकि झाविमों ने 5.44 फीसदी वोट हासिल कर तीन सीटों पर कब्जा किया। राज्य के दूसरे दलों ने पांच सीटों पर जीत हासिल किया।
भाजपा का खींसकता जनाधार उसके लिए चिंता का विषय है। उसे अब अपनी रणनीति बदलनी होगी। अब भावनात्मक मसलों के जरिए वोट बैंक जमा करने की नीति फिलहाल कामयाब होती नहीं दिखती है। शोर शराबे की राजनीति के बजाय विकास की ठोसनीति तैयार करनी होगी। जिससे उसका जनविश्वास लौट पाए। क्योंकि नागरिकता बिल और एनआरसी जैसे मसलों पर विपक्ष भाजपा को कटघरे में ला दिया है। सरकार के खिलाफ सड़क पर उतरे लोगों ने नींद उड़ा दिया। गृहमंत्री अमितशाह को संसद से लेकर बाहर तक सीएए, एनआरसी और एनपीआर पर सफाई देनी पड़ी है। जबकि विपक्ष हंगामा खड़ा कर अपनी रणनीति में कामयाब हुआ है। गृहमंत्री एनआई को दिए गए साक्षात्कार में यह माना भी है कि सीएए पर लोगांे के आक्रोश को समझने में कहीं न कहीं भूल हो सकती है। 2017 के बाद भाजपा ने सातवें राज्य में अपनी सत्ता गंवाई है। 2017 में भाजपा 71 फीसदी आबादी के 75 फीसदी भूभाग पर भगवा लहराया था। उस दौरान उसकी सत्ता 19 राज्यों में थी। जबकि 2019 में केवल 16 राज्यों में उसकी सत्ता बची है। मीडिया रिपोर्ट की माने तो इस समय उसका कब्जा महज 42 फीसदी आबादी और 36 फीसदी भूभाग पर बचा है। यह बेहद चिंता का विषय है, आखिर उसका जनाधार क्यों खींसक रहा है। भाजपा ने मई 2019 में लोकसभा चुनाव के दौरान 51 फीसदी वोट हासिल कर झारखंड में 54 विधानसभा सीटों पर बढ़त हासिल की थी। जबकि 14 लोकसभा सीटों में 11 पर जीत हासिल किया था और आजसू को एक सीट मिली थी। लेकिन सात माह में इतना बड़ा परिवर्तन विचारणीय है। निश्चित रुप से इस हार के पीछे मुख्यमंत्री रघुबरदास की नीतियां रही हैं। हार के बाद उन्होंने अपने बयान में खुद माना है कि यह पार्टी की नहीं मेरी हार है।
झारखंड मुक्ति मोर्चा के युवा नेतृत्व आदिवासी पीड़ा समझने में कामयाब रहा है। 26 फीसदी आदिवासी आबादी के बाद भाजपा ने एक बार गैर आदिवासी चेहरा रघुबरदास को बतौर मुख्यमंत्री पेश किया था। दलबदलू नेताओं पर विश्वस और बागियों ने उसे भारी नुकसान पहुंचाया। दूसरी बात आदिवासी समस्याओं पर गौर नहीं किया गया। आजसू जैसे भरोसेमंद दोस्त को किनारे करना उसकी पराजय का मुख्यकारण है। दूसरी बात भू-अधिकग्रहण कानून पर उपेक्षित नजरिये उसकी सबसे बड़ी भूल कही जा सकती है। पत्थलगढ़ी आंदोलन के दौरान दस हजार आदिवासियों पर देशद्रोह का मुकदमा लादना भी सरकार की लुटिया डूबोने में अहम भूमिका निभाई। आदिवासियों में अच्छी पैठ रखने वाले गुरुजी के नाम से चर्चित शिबू सोरेन और उनके परिवार की पैठ बेहद गहरी रही है। बिहार से अलग होकर झारख्ंड 2000 में अलग राज्य बना। शिबू सोरेन राज्य के तीन बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। जबकि उनके उत्तराधिकारी हेमंत सोरेन भी दो बार मुख्यमंत्री रह चुके हैं। इस बार भाजपा के खिलाफ आदिवासियों में जो नाराजगी बनी उसे भूनाने में जेएमएम और कांग्रेस कामयाब रही है। भाजपा को खींसकते जनाधार को लेकर मंथन करने की आवश्यकता है। देश की नब्ज पकड़ना होगा। भावनात्मक मसलों पर वह अधिक नहीं टिक सकती है। शीर्ष नेतृत्व के लिए यह विचारणय बिंदु है।
–       प्रभुनाथ शुक्ल