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The poet Trilochan of folk life and public: लोकजीवन व जनमानस के कवि त्रिलोचन

त्रिलोचन आधुनिक हिंदी कविता की प्रगतिशील त्रयी में नागार्जुन व शमशेर बहादुर सिंह के साथ तीन स्तंभों में से थे। उनका जन्म 20 अगस्त 1917 को और महाप्रयाण 9 दिसम्बर 2007 को हुआ था ।
त्रिलोचन शास्त्री हिन्दी कविता के ठेठ कवि थे। हिन्दुस्तान गांवों का देश है। इस माइने में गांव, खेत, खेतिहर की चिन्ता भारत के जन-जीवन की चिन्ता यहां की मूल चिन्ता है, जो त्रिलोचन का आम विषय है। उनकी कविता में जीवन की गरमाहट, उसका ठंढापन और रेतीलापन सब कुछ लबालब भरा पड़ा है। त्रिलोचन की कविता पाठकों को आक्रांत नहीं करती बल्कि उनसे क्रमश: तादात्म्य स्थापित करती हैं। ऐसा तादात्म्य कि आम आदमी को उनकी अपनी भाषा में अपनी गाथा, अपनी बात मिलती है। उनकी काव्य-भाषा जन-भाषा के बजाय लोक-भाषा अधिक है। इतना होते हुए भी त्रिलोचन की कविता कलाहीन नहीं है। दरअसल ओढ़ी हुई आधुनिकता के शोर-शराबे और होड़ से मुंह फेरकर हिन्दी भाषा और लोगों के मन में गहरे तक बैठी हुई स्मृतियों की जड़ों को खोजखबर उनकी कविता में मिलती है। हालांकि आधुनिकता की इतनी गहरी समझ में उनमें थी कि वे अपने समय के प्रखर साहित्यकारों को समय-समय पर उसका गूढ़ तत्त्व समझाते रहे। चाहे वह नामवर सिंह हों या केदारनाथ सिंह। ‘तार सप्तक’ में शामिल न होने के बावज़ूद त्रिलोचन ने उसकी महत्ता व उनमें आधुनिकता के तत्त्व को रेखांकित किया था।
उनकी कविताएं वे लोकमानस की अभिव्यक्ति हैं। त्रिलोचन की प्रगतिशीलता जीवन से कटे विचार की तरह आरोपित स्थिति की नहीं हैं, बल्कि जीवन के ही उभार की अपनी प्रतीति है। त्रिलोचन की कविता न सिर्फ़ अनुभव सम्पन्न कविता है, बल्कि अनुभव के कई स्तरों और पक्षों का उद्घाटन भी करती है। उनकी कविताएं युगीन सामाजिक जीवन का विश्वस्त ग्राफ़ है। उनकी कविताओं में बदले हुए और बदलते हुए राजनीतिक परिप्रेक्ष्यों को भी महसूस किया जा सकता है। त्रिलोचन के यहां ठेठ-अवधी का नवनीत उपस्थित है और अंग्रेज़ी का सानेट। त्रिलोचन के गीतों में हिन्दुस्तानी शास्त्रीय संगीत के बंदिशें रचने की ललक दिखेगी।
त्रिलोचन की काव्य-क्षमता की विशिष्टता सरलता है। वे सपाटबयानी के कवि हैं, यहां तक कि बिम्बों को भी सरलीकृत करते चलते हैं इसीलिए उनकी कविताओं का स्वभाव वणर्नात्मक है। उन्होंने हर हाल में कविता से आत्मनिषेध नहीं किया, उनकी आत्मपरक कविताओं की संख्या काफी है, पर उनका आत्म इतना आम है कि उसका दूसरों से अलगाव असंभव है, उनकी एक कविता यूं है-
‘भीख मांगते उसी त्रिलोचन को देखा कल
जिस को समझे था है तो है यह फ़ौलादी
ठेस-सी लगी मुझे, क्योंकि यह मन था आदी
नहीं, झेल जाता श्रध्दा की चोट अचंचल
नहीं संभाल सका अपने को। जाकर पूछा,
‘भिक्षा से क्या मिलता है।”जीवन’। ‘क्या इसको
अच्छा नहीं समझते हैं।’ दुनिया में जिसको
अच्छा नहीं समझते हैं करते हैं, छूछा
पेट काम तो नहीं करेगा।’ ‘मुझे आप से
ऐसी आशा न थी।’ ‘आप ही कहें, क्या करूं,
क्या अच्छा है।’ जीवन जीवन है प्रताप से,
स्वाभिमान ज्योतिष्क लोचनों में उतरा था,
यह मनुष्य था, इतने पर भी नहीं मरा था।’
त्रिलोचन का यथार्थ सनसनीपूर्ण और चमत्कारवादी यथाथर्वाद यथार्थ नहीं है। वह टीसता और धीरे-धीरे दु:खता यथार्थ, जो अपने-आपको बहुत ही आहिस्ता-आहिस्ता खोलता है और कब पाठक को अपनी गिरफ़्त में ले लेगा, यह कहना कठिन है। त्रिलोचन को कविता को एक नया पाठक पहली नज़र में लगभग नकार भाव से लेता है, जो क्रमश: एक गहरे आत्मीय भाव में तब्दील हो जाता है-
‘पृथ्वी गल गयी है
पेड़ों की पकड़ ढीली हो गयी है
आज ककरिहवा आम सो गया
सुगैवा को देखो तो
शाखा का सहारा मिला गिरकर भी बच गया
बौछारें खा-खाकर
दीवारें सील गयीं
इनमें अब रहते भय लगता है
दक्खिन के टोले में
रामनाथ का मकान
बैठ गया
यह तो कहो पसु परानी बच गये
अब कल क्या खायेंगे।’
त्रिलोचन की कविता हर हाल में काव्यात्मक नफासत को अस्वीकार करते हुए रची गयी है। शायद यही कारण है कि लम्बे रचनाक्रम के बावज़ूद उनकी चर्चा देर से हुई है और अब तक उनकी कविता के मर्म से काव्य-रसिक किसी हद तक अपरिचित हैं। त्रिलोचन ने गीत भी खूब लिखे हैं।

-डॉ. अभिज्ञात

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