राष्ट्रीय राजधानी में एक तरफ आम पार्टी सरकार और दूसरी तरफ भाजपा और कांग्रेस के बीच वास्तविक राजनैतिक युद्ध छिड़ गया। हाल ही में यह संघर्ष उस समय हो रहा है, जब महामारी कोविड-19 लोगों की जान ले रहा है। मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की सरकार पर आरोप है वह मौत के आंकड़ें को कम करके बता रही है। अनुमान लगाया गया है कि जुलाई के अंत तक दिल्ली के कोरोना रोगियों की संख्या 5.5 लाख पार कर जाएगी। इस तरह कई तरह की शंका पैदा हो रही है।
सरकारी दावों, भाजपा और कुछ कांग्रेसी नेताओं ने कहा है कि जिन लोगों का दाह-संस्कार किया गया था या दफना दिया गया था, उनकी संख्या उससे कहीं अधिक थी जो सार्वजनिक क्षेत्र के सामने रखा गया है।त्रुटिपूर्ण चुनौती यह धारणा बनाने की कोशिश करती है कि जिन लोगों की मृत्यु इस काल में हुई थी वे पीड़ित हुए थे, पर ध्यान दिए बिना कि बहुत-से लोग अन्य बीमारियों से पीड़ित रहे होंगे, जिनमें वृद्धावस्था भी शामिल थी, जो अंतत: घातक सिद्ध हुई। इसलिए, अकाट्य सबूत को इन गैरजिम्मेदार आरोपों को सिद्ध करने की जरूरत है।
दुर्भाग्यवश, समस्या यह आती है कि किसी भी प्रकार के आंकड़े या अनुभव के आधार-जो अधिकृत एजेंसियों या निजी निकायों द्वारा दिए जाते हैं-में विश्वसनीयता और यथार्थता दोनों का अभाव है।भारत में अफसरशाही ऐसे तथ्यों को पकडने में माहिर है जिनका जमीनी हकीकत से कोई संबंध नहीं है। कई भोले-भाले राजनेता ‘एक सुविधाजनक प्रचार उपकरण के रूप में सूक्ष्मता से रचित असत्य को मान बैठते हैं। इस प्रक्रिया में कई अधपके सत्य सत्य बन जाते हैं और इस प्रकार समेटे हुए सत्य सत्य बन जाते हैं।
भिन्न राजनीतिक पृष्ठभूमि वाले कोरोना के योद्धा अपना युद्ध करने में लगे हुए हैं, जबकि उन्हें आम जनता की इस भयावह बीमारी को खत्म करने में मदद करनी चाहिए, जिसका अब तक कोई ज्ञात उपचार नहीं है।दिल्ली में खेल रहे दृश्य से यह स्पष्ट होता है कि इस तथाकथित धर्मयुद्ध में अनेक सत्ता की बहुलता ने कितनी बड़ी बाधाएं उपस्थित की हैं।
जन्म और मृत्यु का रजिस्ट्रार नगर निगम के अधिकार में आता है, अत: इसे जन्म और मृत्यु की संख्या के वृत्तिवार के लिए अंतिम प्राधिकार के रूप में नामित किया जाना चाहिए। गौरतलब है कि शीला दीक्षित के कार्यकाल में नागरिक निकाय को जब त्रिपक्षीय कर दिया गया तो रिकॉर्ड़ भी गंभीर रूप से प्रभावित हुआ। नकदी की तंगी वाली नगर संस्थाएं जन-स्वास्थ्य और स्वच्छता के बारे में शांत हैं। इस तथ्य से स्पष्ट है कि नगर निगम द्वारा चलाए जा रहे अस्पतालों में गुप्त नेतृत्व या अज्ञानता के कारण इस अभूतपूर्व टक्कर में शामिल नहीं हुए हैं। इसलिए, दिल्ली सरकार द्वारा निर्धारित आंकड़े अपर्याप्त हो सकते हैं क्योंकि वे विभिन्न अस्पतालों से एकत्रित अधूरी जानकारी पर आधारित हैं। यहां भी, एक बड़ी समस्या है, नगर में जो अस्पताल हैं, वो नागरिक निकायों द्वारा चलाए जाते हैं, तथा दिल्ली सरकार और केंद्र तथा इससे संबंधित एजेंसियों द्वारा संचालित अस्पताल हैं। इसके अलावा, प्राइवेट अस्पताल भी इस लड़ाई में कूद पड़े हैं।केजरीवाल इस जनादेश पर नजर रखते हैं कि राष्ट्रीय राजधानी के रखवाल के रूप में खुद को दिखाने के लिए बेहद उत्साह से यह भूल जाते हैं कि वे कई एजेंसियों पर नियंत्रण नहीं रखते। मीडिया भी मोटे तौर पर इन परिभाषित भेदों के बारे में अनभिज्ञ है और इस तरह से केजरीवाल और उनके साथियों से शहर में जो कुछ भी हो रहा है, सवाल उठता है। अब सफदरजंग अस्पताल और राम मनोहर लोहिया अस्पताल दोनों ही केंद्र सरकार तथा प्रख्यात एम्स, हालांकि चिकित्सा विभाग की स्वायत्तशासी संस्था, भी केंद्र के सामने जवाबदेह है।हिन्दू राव अस्पताल, राजन बाबू टीबी अस्पताल और किंगवे कैंप के संक्रामक रोग अस्पताल नगर निगम के पास हैं। एलएनजीपी अस्पताल तथा दीन दयाल उपाध्याय जैसी संस्थाएं ही दिल्ली सरकार के कार्यक्षेत्र में हैं। स्पष्ट है कि केजरीवाल का दिल्ली सरकार के अस्पताल में चलने वालों पर प्रभाव रखने का कोई मतलब नहीं है। केजरीवाल ने इसे राज्य का सेमी ही बताने का प्रयास करते हैं। इस गलत कारणों से खुद का ध्यान आकर्षित किया है। मोहल्ला क्लीनिकों की सफलता और जल, शक्ति और शिक्षा के मुद्दों के संचालन में प्रमुख रूप से दूसरी बार उनकी विजय का योगदान दिया। यह घोषण करते हुए कि कोविड-19 के मामले बढ़ने वाले हैं, उन्होंने अपनी चिकित्सा संबंधी उपलब्धियों से गंभीर संदेह पैदा कर दिए हैं। यह सब केंद्र के हाथ मे है। जहां पूरी स्थिति का दुखपूर्ण असर देखने के कारण गुजरात के शासन के उस नमूने से सवाल उठाये जा रहे हैं, जिसकी पहले कभी जांच नहीं की गई थी।दरअसल पिछले कुछ महीनों में कई मिथक बनाए गए हैं, हालंकि मीडिया ने भाजपा द्वारा प्रशासित राज्यों को नजरांदाज करने के बजाए विपक्षी शासित राज्यों पर पूरी तरह ध्यान केंद्रित किया है। अगर दिल्ली में नागरिकों के सामने खडे असंख्य उपद्रवों की देखभाल करने का एकमात्र आदेश होता, तो वह अपने को और भी अच्छा कर देता।अधिकारियों की बहुलता ने लोगों के कष्टों को और बढ़ा दिया है, उन्हें कोई ठोस राहत नहीं दी है।अविभाजित एमसीडी के खत्म का एकमात्र उद्देश्य था कि शीला दीक्षित को एक ताकतवर नागरिक संस्था द्वारा खतरा महसूस हो रहा था, जिसने निर्णायक रूप से दिल्ली सरकार की तुलना में लोगों के साथ रोजाना का व्यवहार किया था। एक दूसरे की निंदा और निंदा किए बिना कोविड-19 का सामूहिक रूप से मुकाबला करना होगा। लेकिन देशांतरों की पैंतरेबाजी के बाद केंद्र को पूरे राज्य का दर्जा देने –
की दिल्ली की मांग पर पुनर्विचार करना होगा।
-पंकज वोहरा
(लेखक द संडे गार्डियन के प्रबंध संपादक हैंं।)