गीता मनीषी स्वामी ज्ञानानंद महाराज
मनन के माध्यम से आप शास्त्रोक्त विचारों को अपना बना सकते हैं। जब तक उन विचारों पर भली-भांति विचार नहीं करते, पुन: पुन: उन पर गहन चितंन नहीं करते, तब तक वे विचार शास्त्रों में हैं और शास्त्रों के हैं। जब आपने उन्हें अवसर दिया अपने विचार जगत में प्रविष्ट करके अंत:करण में सुचारू स्थान देने का, तब वे विचार आपके बन गए और अब प्रशस्त है आध्यात्म पथ आपके के लिए। पर्याप्त मनन के आभाव में ही आध्यात्म पथ कुछ दूरूह एवं जटिल सा बना रहता है। जो मननशील है, जिसमें जिज्ञासा है कल्याण की और उसकी पूर्ति के लिए जो अपने को सुंदर सुपुनीत विचारों की गहराई में लाने का स्त्रभाव रखता है, निश्चय हो वह उत्तरोत्तर आध्यात्मक मंजिलों की ओर अग्रसर होता जाता है- लक्ष्य उससे दूर नहीं रहता और वह लक्ष्य से। मननशील व्यवित मनन में ही अर्द्ध समाधि का आनन्द प्राप्त कर लेता है। विचार करते-करते, विचारों की उस गहराई तक वह अपने-आपको पहुँचा देता है जहां विचार शांत हो जाते हैं। जिस प्रकार दूषित जल में फिटकरी डाल देने से वह सारी मलिनता के साथ स्वयं नीचे आकर बैठ जाती और ऊपर रह जाता है स्वच्छ जल, उसी प्रकार पवित्र विचार मन में डालने से समस्त अशुद्ध विचारों के साथ वे शांत हो जाते हैं और अंत:करण स्वच्छ होकर अपने को आनन्द की स्थिति में पाता है।
मनन से ही एकाग्रता आती है
मनन के आभाव में श्रवण कभी भी फलीभूत नहीं हो सकता और निदिध्यारान की तो कल्पना भी नहीं की जा सकती यथोचित मनन के बिना। यदि श्रवण के पश्चात मनन का सहज स्वभाव बन गया है तो बिना किसी विशेष प्रयास के आप अपने को निदिध्यासन के योग्य पाएंगे मनन आपको द्विविध लाभ पहुंचाएगा। जहाँ एक और इसके श्रवण या अध्ययन में लगाए गए समय का पूरा लाभ प्राप्त होगा, वहां दूसरी ओर मन ध्यान के योग्य बनता जाएगा। मनन में जितना गहन आप स्वपं को ले जाएंगे, उतना ही आपका मन इसमें स्वत: ध्यान की ओर आकृष्ट होने लगेगा। वस्तुत: मनन की पराकाष्ठा अपने आप हो ध्यान में परिणत हो जाती है। आत्म कल्याण सम्बन्धी किसी भी भाय को लेकर उसमें गहरा उतरिए, उस पर मनन करते-करते ही आपको एक विशेष एकाग्रता मिलेगी, आप स्वयं को उसी भाव में खोने लगेंगे। वह भाव अत्र-तत्र के अन्य सभी भावों को समाप्त करके स्वयं भी एक ऐसी स्मति में आपको ले जाकर विलुप्त हो जाएगा। जहां रह जाएगी- मात्र एकग्रता ही एकाग्रता। यह अद्भुत अवस्था नि:सन्देह आन्दमयी है जिसे मननशील अहोभागी ही अनुभय कर सकता है।
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