किरण साहू
एकलव्य गुरु द्रोणाचार्य, पाण्डवों और कौरवों के गुरु थे, उन्हें धनुर्विद्या का ज्ञान देते थे। एक दिन एकलव्य जो कि एक गरीब शुद्र परिवार से थे. द्रोणाचार्य के पास गये और बोले कि गुरुदेव मुझे भी धनुर्विद्या का ज्ञान प्राप्त करना है आपसे अनुरोध है कि मुझे भी आपका शिष्य बनाकर धनुर्विद्या का ज्ञान प्रदान करें। किन्तु द्रोणाचार्य नें एकलव्य को अपनी विवशता बतायी और कहा कि वे किसी और गुरु से शिक्षा प्राप्त कर लें। यह सुनकर एकलव्य वहां से चले गये।
इस घटना के बहुत दिनों बाद अर्जुन और द्रोणाचार्य शिकार के लिये जंगल की ओर गये। उनके साथ एक कुत्ता भी गया हुआ था। कुत्ता अचानक से दौड़ते हुय एक जगह पर जाकर भौंकनें लगा, वह काफी देर तक भोंकता रहा और फिर अचानक ही भौंकना बंद कर दिया। अर्जुन और गुरुदेव को यह कुछ अजीब लगा और वे उस स्थान की और बढ़ गए जहां से कुत्ते के भौंकने की आवाज आ रही थी। उन्होनें वहां जाकर जो देखा वो एक अविश्वसनीय घटना थी। किसी ने कुत्ते को बिना चोट पहुंचाए उसका मुंह तीरों के माध्यम से बंद कर दिया था और वह चाह कर भी नहीं भौंक सकता था। ये देखकर द्रोणाचार्य चौंक गये और सोचनें लगे कि इतनी कुशलता से तीर चलाने का ज्ञान तो मैनें मेरे प्रिय शिष्य अर्जुन को भी नहीं दिया है और न ही ऐसे भेदनें वाला ज्ञान मेरे आलावा यहां कोई जानता हैङ्घ. तो फिर ऐसी अविश्वसनीय घटना घटी कैसे? तभी सामनें से एकलव्य अपनें हाथ में तीर-कमान पकड़े आ रहा था। ये देखकर तो गुरुदेव और भी चौंक गये। द्रोणाचार्य नें एकलव्य से पुछा, बेटा तुमनें ये सब कैसे कर दिखाया। तब एकलव्य नें कहा, गुरूदेव मैनें यहां आपकी मूर्ती बनाई है और रोज इसकी वंदना करने के पश्चात मैं इसके समकक्ष कड़ा अभ्यास किया करता हूं और इसी अभ्यास के चलते मैं आज आपके सामनें धनुष पकड़नें के लायक बना हूं।
गुरुदेव ने कहा , ह्व तुम धन्य हो ! तुम्हारे अभ्यास ने ही तुम्हें इतना श्रेष्ट धनुर्धर बनाया है और आज मैं समझ गया कि अभ्यास ही सबसे बड़ा गुरू है।
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